Mahila Aarakshan Bill Kya Hai । महिला आरक्षण बिल 2023. Women Reservation Bill । What Is Women Reservation Bill । Mahila Aarakshan Bill Par Kya Tha Vivad । Woman Reservation Bill In New Parliament Session.

What Is Women Reservation Bill In Hindi – दोस्तों ! औरत एक ऐसा जीता जागता विषय है जो अक्सर ही चर्चा में रहता है….कभी करुणा, कभी शक्ति, कभी शोषण, तो कभी अपनी परंपरागत भूमिका के नि:शब्द निर्वाहन या फिर इसी भूमिका से बगावत के कारण। लेकिन आज हम उसकी किसी भूमिका पर विचार नहीं करेंगे बल्कि उस ज्वलन्त मुद्दे पर बात करेंगे जिसे प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी के नेतृत्व में केन्द्र सरकार द्वारा 18 सितबंर, 2023 को नवीन संसद भवन में ‘नारी शक्ति वंदन अधिनियम’ नाम से प्रस्तुत किया गया। ऐसा माना जा रहा है कि महिला शक्ति को उनका अधिकार देने वाला लोकसभा में पेश हुआ ‘नारी शक्ति वंदन अधिनियम’ एक ऐसा निर्णय साबित होगा, जिससे हमारी नारी शक्ति को सही मायने में उनका अधिकार मिलेगा।
ध्यानतव्य है कि 18 सितबंर, 2023 में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण उपलब्ध कराने की दिशा में विगत 27 वर्षों से चल रहे प्रयासों को एक बड़ी सफलता उस समय मिली जब राजनीतिक गहमागहमी के बीच 128वें संविधान संशोधन विधेयक को लोकसभा और राज्यसभा द्वारा स्वीकृत प्रदान कर दी गई। यह बिल 27 वर्षो से लंबित था। जो सर्व सम्मति से पारित हुआ। और अविस्मरणी बन गया।
महिला आरक्षण बिल पर क्या था विवाद-

इस संबंध में महत्वपूर्ण है कि लोकसभा व राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण की प्रावधान वाले महिला आरक्षण विधेयक को पूर्व वर्षों में चार बार लोकसभा में प्रस्तुत किया गया था, किंतु चारों बार यह विधेयक लोकसभा में निष्प्रभावी हो गया था। 12 सितंबर, 1996 में एचडी देवगौड़ा के नेतृत्व वाली सरकार ने पहली बार महिला आरक्षण बिल को 11वीं लोकसभा में 81वें संविधान संशोधन विधेयक के रूप में प्रस्तुत किया था, किंतु लोकसभा के भंग हो जाने के कारण यह निष्प्रभावी हो गया। 1997 में प्रधानमंत्री इंद्रकुमार गुजराल की सरकार भी इसे पारित करवाने में असफल ही रही थी।
इसके बाद प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के कार्यकाल में यह 84वें संविधान संशोधन विधायक के रूप में लोकसभा में प्रस्तुत किया गया, किंतु 12वीं लोकसभा का विघटन होने पर एक बार पुनः यह निरस्त हो गया। अटल बिहारी वाजपेई द्वारा पुन: 23 दिसंबर, 1999 को लोकसभा में इसे पेश किया गया, किंतु आम सहमति के अभाव में यह बिल आगे नहीं बढ़ पाया। अगर बात करे डॉ मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार की तो इन्होंने 6 मई, 2008 को 108वें संविधान संशोधन विधेयक के रूप में इस बिल को लोकसभा की बजाय राज्यसभा में प्रस्तुत किया। जहां यह कुल सदस्यता के दो तिहाई से ज्यादा बहुमत से पारित हो गया। लेकिन 2014 में लोकसभा भंग हो गयी और यह बिल अपने आप ही ख़त्म हो गया।
फिर इस 25 साल तक ठंडे बस्ते में पड़े रहे महिला आरक्षण बिल को पास करने के लिए ‘नेशनल फेडरेशन ऑफ़ इन्डियन वुमेन’ ने 2021 में महिला आरक्षण बिल को फिर से पेश करने के लिए सुप्रीमकोर्ट में याचिका दाखिल की। यह याचिका स्वीकार कर ली गई मगर कोरोना के कारण इसे संसद में पेश नहीं किया जा सका। जैसा की ऊपर हमनें बताया कि 27 वर्षो से लंबित महिला आरक्षण बिल लोकसभा में पास हो चूका हुआ है। अब सवाल ये उठता है कि क्या इस महिला आरक्षण विधेयक के कानून बन जाने से भारत की संसद और राज्यों की विधान सभाओं का चेहरा पूरी तरह बदल जाएगा। जहां तक लोकसभा का संबंध है, अभी वहां 543 सांसदों में से इस समय 78 महिला सांसद है और जिनमें से आधे से अधिक महिला सांसद किसी न किसी राजनीतिक परिवारों से जुड़ी हैं।
राजनीति में महिलाओं के प्रतिनिधित्व के मामले में भारत अपने पड़ोसी देश पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल से भी पीछे है। ख़ुशी की बात ये है कि इस विधेयक के पारित होने के पश्चात लोकसभा में महिला सांसदों की संख्या तीन गुनी बढ़कर कम से कम 181 हो जाएगी। इसका सीधा सा तात्पर्य है कि 122 पुरुष सांसद लोकसभा से कम हो जाएंगे। कामोबेश यही स्थिति राज्यों में भी देखने को मिलेगी। लेकिन महिलाओं को राजनीति में बड़ा हिस्सा मिलने से बड़े-बड़े राजनीतिज्ञों के साथ सामंती मानसिकता वाले पुरुषों में भी खलबली है, क्योंकि इसमें रोटेशन व्यवस्था के तहत संसदीय क्षेत्र बदलता रहेगा। येन-केन-प्रकारेण निर्वाचन क्षेत्र में एकाधिकार जमाए राजनीतिज्ञों को अपनी सीट से वंचित होने की भारी आशंका है। इसलिए वे इसके विरोध में अनेक तर्क दे रहे हैं। उने मुख्य विरोध का कारण यह भी है कि वे विधेयक में दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक महिलाओं के लिए अलग से आरक्षण अर्थात ‘कोटा के अंदर कोटा’ की व्यवस्था करना चाहते हैं। एक अन्य तर्क यह भी दिया जा रहा है कि महिलाओं के लिए संसद और विधानसभा में एक तिहाई आरक्षण बहुत अधिक है और इसलिए इसे 20% तक सीमित रखने की बात भी की जा रही है।
कई राजनेताओं का यह भी मत है कि लोकसभा तथा विधानसभाओं की सीटें बढ़ाकर इस 33% की आरक्षण को समायोजित किया जाए अर्थात सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। कुछ राजनेता निर्वाचन आयोग के सुझाव पर भी विचार करने की इच्छुक हैं जिसमें आयोग ने राजनीतिक दलों को अपने स्तर पर महिलाओं के लिए आरक्षण की बात की है। कुछ राजनीतिज्ञों ने महिलाओं की योग्यता तथा उनकी क्षमता पर भी सवाल उठाएं हैं, परंतु महिलाओं के लिए आरक्षण का विरोध करने वाले यह राजनीतिज्ञ इस बात को भूल जाते हैं कि देशभर में हमारी महिला सरपंच और महिला नगर पालिका अध्यक्ष अपनी पूरी ईमानदारी, संवेदनशीलता और पारदर्शिता के साथ अपने कार्यों को अंजाम दे रही हैं और गांवों तथा शहरों का प्रशासन चला रही हैं। इतिहास गवाह है कि आजादी की लड़ाई में भारतीय नारी ने कितनी बहादुरी और कौशल से अंग्रेजों के दांत खट्टे किए थे। आरक्षण का विरोध करने वाले और आरक्षण के भीतर आरक्षण का समर्थन करने वाले राजनेताओं को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि आज तक उन्होंने अपनी पार्टी के भीतर महिलाओं को कितना महत्व प्रदान किया है तथा कितनी गरीब महिलाओं को पार्टी का टिकट देकर उन्हें विधानसभा तथा संसद में पहुंचा है?
‘कोटा के अंदर कोटा’ आरक्षण समर्थकों के पर्याप्त विरोध के बावजूद यदि विधेयक लागू हो चुका है तो आने वाले समय में भारतीय महिलाओं के समक्ष बड़ी विकट चुनौतियां हैं। अब तक इसके विरोध में राजनीतिज्ञों का कैसा बर्ताव रहा है और उनकी तरफ से कैसी-कैसी हास्यास्पद टिप्पणियां की गई, उनकी क्षमता, दक्षता तथा अनुभव के प्रति आशंका व्यक्त की गई। उससे हम सभी परीक्षित हैं। इसलिए संसद तथा विधानसभाओं में आगे उनका कितना सहयोग मिलेगा, यह भी विचारणीय मुद्दा है। इसलिए महिलाओं को इन सब की अनदेखी करते हुए आगे बढ़ते रहना होगा। आज उनके समक्ष अपने अस्तित्व को बचाए रखने का दायित्व तो है ही साथ ही उन्हें समाज में उने विरुद्ध हो रहे अत्याचार तथा कुप्रथाओं से भी छुटकारा पाना है।
यद्यपि इस विधेयक में महिला आरक्षण की अवधि 15 वर्ष रखी गई है यानी 15 वर्ष के बाद संसद/विधान सभाओं में महिला आरक्षण समाप्त माना जाएगा, परंतु हम ये नहीं भूल सकते कि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के लिए भी शिक्षा तथा नौकरियों में आरक्षण को संविधान के लागू होने के बाद केवल 10 वर्ष के लिए ही रखा गया था, लेकिन आजादी प्राप्ति के इन 75 वर्षों में आरक्षण तो समाप्त नहीं हुआ, बल्कि उसमें ‘अन्य पिछड़ा वर्ग’ हेतु आरक्षण की व्यवस्था कर उसे और विस्तार दिया गया और उसी अनुरूप आरक्षण प्रतिशत भी बढ़कर 50% तक हो गया, लेकिन यहां पर हम यही चाहेंगे कि इस आरक्षण व्यवस्था के तहत निर्धारित अवधि के भीतर संपूर्ण देश की महिलाएं अपने पैरों पर खड़ी हों और भविष्य में उन्हें आरक्षण की वैशाखी की जरूरत महसूस न हो।
वास्तविक स्थिति तो यह है कि आरक्षण व्यवस्था किसी समस्या का वास्तविक समाधान नहीं है। इसे हम अनुसूचित जाति और जनजाति तथा अन्य पिछड़े वर्गों के लिए शिक्षा तथा रोजगार में लागू आरक्षण व्यवस्था में स्पष्ट देख सकते हैं। वहां इस आरक्षण व्यवस्था से दो वर्ग पैदा हो गए हैं। एक वर्ग जो आरक्षण व्यवस्था का निरंतर लाभ उठा रहा है और उसमें से कुछेक को हम ‘क्रीमी लेयर’ के अंतर्गत ले सकते हैं और दूसरा वर्ग इस आरक्षण व्यवस्था से लगभग वंचित है। और इसलिए भुखमरी, गरीबी, अशिक्षा और बीमारी में जी रहा है।
इस प्रकार आरक्षण व्यवस्था के मूल में सामाजिक समरसता स्थापित करने की मूल भावना का हनन हुआ है। भारत के गांव इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है कि इस प्रकार निम्न जाति के परिवार वर्षों से सवर्ण जाति का हल जोतकर अपना पेट भरने को विवश हैं। उसके जीवन का एकमात्र लक्ष्य दो जून की रोटी कमाना है। स्वास्थ्य, शिक्षा और नौकरी के बारे में वह दूर-दूर तक नहीं सोच सकता। ऐसी स्थिति में आरक्षण का उसके लिए कोई अर्थ नहीं है।
प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आखिर ग्रामीण इस आरक्षण व्यवस्था से क्यों वंचित रहे। इसका एकमात्र कारण उनकी गरीबी और परिवार का बड़ा आकार है। चुकीं गरीबी सभी समस्याओं की जड़ है। इसलिए कुपोषण, अशिक्षा और अस्वस्थकर परिस्थितियों में जी रहे इस वर्ग के लोग आरक्षण की सुविधा से वंचित रहे और अपने अधिकारों से अनभिज्ञ रहे।
इससे यह निष्कर्ष भी निकलता है कि इन कमजोर वर्गों की पेट की आग को शांत करना सबसे पहले जरूरी है और यह तभी संभव है, जबकि उनके लिए कृषि के अलावा रोजगार के अन्य वैकल्पिक साधन मुहैया कराया जाए। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि गांवों में केवल कृषि ही किसान की आजीविका हेतु पर्याप्त नहीं है। आज कृषि उसके लिए घाटे का सौदा हो गई है, क्योंकि जमीन छोटे-छोटे टुकड़ों में विभाजित हैं, सिंचाई, बीज, खाद की उचित व्यवस्था नहीं है और इन सब से ऊपर मानसून की अनिश्चितता से उसको बाढ़, सूखे की स्थिति का बराबर सामना करना पड़ता है।
यही जमीनी हकीकत है जिसकी ओर सरकार का ध्यान नहीं जाता, लेकिन यदि यह महिला आरक्षण विधेयक कानून का रूप लेकर लागू होता है, तो इसे अवश्य एक आशा की किरण इस रूप में दिखाई देगी कि इन इलाकों से जो महिलाएं निर्वाचित होकर आएंगी, वे अपने क्षेत्र की समस्याओं के समाधान के प्रति गंभीर होंगी। अपने लिए पृथक से बजटीय व्यवस्था करने में सक्षम होंगी तथा शिक्षा और नौकरी में आरक्षण सहित अन्य कल्याणकारी कार्यक्रमों के लाभ उठाने में सक्षम होंगी।
जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है। अब तक शिक्षण संस्थानों/सरकारी नौकरियों में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति तथा अन्य पिछड़े वर्गों के लिए की गई आरक्षण व्यवस्था का मूल्यांकन यदि करें तो आशानुरूप परिणाम नहीं मिला है। इसलिए संसद और विधानसभा में महिला आरक्षण के मूर्त रूप लेने की स्थिति में यह आशंका व्यक्त करना अनुचित नहीं होगा कि कहीं इस व्यवस्था के द्वारा परिवारवाद हावी हो जाए और महिला की योग्यता नेपथ्य चली जाए।
राजनीतिक दलों को महिला प्रत्याशियों के चुनाव के तरीके तथा उसके संचालन में आमूल चूल बदलाव लाना होगा, जैसा कि अभी तक हमने देखा है कि किसी भी राजनीतिक दल ने संसद और विधानसभाओं में महिलाओं को उचित प्रतिनिधित्व नहीं दिया। पुरुष मानसिकता ही इसका एकमात्र कारण रही जिसने महिलाओं की योग्यता पर संदेह व्यक्त करते हुए उन्हें आगे नहीं आने दिया।
सन 2009 के आम चुनाव में 8070 प्रत्याशियों में से केवल 556 महिला प्रत्याशी यानी 6.9% ने चुनाव लड़ा। यहां यह कहना भी युक्ति संगत होगा कि हमारा देश न केवल जाति विभाजित समाज का प्रतिनिधित्व करता है, बल्कि यह वर्ग विभाजन को भी महत्व देता है। राजनीति में वर्ग विभाजन भी हावी रहा है और जाति आधार पर अपने वोट बैंक को बढ़ाकर सत्ता के शिखर पर पहुंचने की हर राजनीतिक दल की बलवती इच्छा रही है।
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