पेड़ों का महत्व, Importance of trees, pedon ka mahatva / vrikshon ka mahatva…

Importance of Trees Essay In Hindi – कुछ लोग उसे सनकी कहते हैं, कुछ जुनूनी तो कुछ पागल। मगर रमेश को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वो तो अपनी साइकिल पर ढेरों पौधे लिए रोज सुबह घर से गीत गाता निकल पड़ता है। बचपन से ही उसका सपना है हरी-भरी धरती का, वन-उपवन बचाने का, पेड़ लगाने का। और वो ये भी जानता है कि उपहार एक ऐसा माध्यम है जो भावनात्मक रूप से लोगों को एक-दूसरे के करीब लाता है। इसलिए किसी की शादी होती तो वह उपहार में पौधे देता है। किसी का जन्मदिन हो तो वह पौधा भेंट करता है। जहां जो भी मिल जाए उसे निःसंकोच एक पौधा उपहार स्वरूप जरूर थमा देता है।
लेकिन जहां इस काम के लिए कुछ लोग उसकी सराहना कर रहे थे वहीं कुछ लोगों को उसका ऐसा करना पसंद न आया। और उन्होंने वन विभाग के अधिकारियों से शिकायत कर दी। लोगों की शिकायत पर वन विभाग के अधिकारी ने उसे बुलवाया। इससे पहले वे कुछ प्रश्न करते, रमेश ने एक पौधा वन अधिकारी की ओर बढ़ा दिया और बोला सर पहले ये गुणकारी नीम का पौधा रखिए। दांतों के लिए इसकी दातुन बहुत ही लाभदायक होती है। इसके सुखे पत्ते जलाने से मच्छर भी दूर भाग जाते हैं। रमेश के इस व्यवहार से अधिकारी बहुत खुश हुए और उससे कुछ पूछने की जरूरत नहीं समझी।
अब तो रमेश के इस जुनून में वन विभाग के अधिकारी भी सहयोग देने को तैयार थे। लेकिन यह तो मात्र एक कहानी थी। हक़ीकत में ऐसे विरले ही मिलेंगे जो वृक्षों के महत्व को समझते हैं तथा वृक्षारोपण को तबज्जों देते हैं। ज्यादातर लोगों को तो यही लगता है कि पेड़-पौधें जेब भरने की केवल एक चीज़ है। जबकि पेड़-पौधें की कीमत पैसों से कहीं ज्यादा है। और इसे प्रमाणित भी किया जा सकता है।
मानव सभ्यता का उदय और आरंभिक आश्रय प्रकृति यानी वन-वृक्ष ही रहें हैं। उसकी सभ्यता-संस्कृति के आरंभिक विकास का पहला चरण भी वन-वृक्षों की सघन छाया में ही उठाया गया। यहां तक कि उसकी समृद्धतम साहित्य-कला का सृजन और विकास ही वनालियों की सघन छाया और प्रकृति की गोद में ही संभव हो सका, यह एक पुरातत्व एवं इतिहास सिद्ध बात है।
आरंभ में मनुष्य वनों में वृक्षों पर या उनसे ढकी कंदराओं में ही रहा करता था। वृक्षों से प्राप्त फल-फूल आदि खाकर, या उसकी डालियों को हथियार की तरह प्रयोग में ला उनसे शिकार करके अपना पेट भरा करता था। बाद में बचे-खुचे फ़ल और उनकी गुठलियों को दोबारा उगते देखकर ही मानव ने खेती-बाड़ी करने की प्रेरणा और सीख प्राप्त की। वृक्षों की छाल का ही सदियों तक आदिमानव वस्त्र रूप में प्रयोग करता रहा, यद्यपि बाद में वन में रहकर तपस्या करने वालों, वनवासियों के लिए ही वे रह गए थे।
इसी प्रकार आरंभिक वैदिक ऋचाओं की रचना या दर्शन भी सघन वनलियों में बने आश्रमों में रहने वाले लोगों ने किये। इतना ही नहीं आरंभ में ग्रंथ लिखने के लिए कागज के बजाय जिस सामग्री का प्रयोग किया गया वे भोजपत्र भी विशेष वृक्षों के पत्ते थे। संस्कृत की धरोहर माने जाने वाले कई ग्रंथों की भोजपत्रों पर लिखी गई पांडुलिपियों आज भी कहीं-कहीं उपलब्ध हैं।
मानव सभ्यता ने संस्कृति के विकास की दिशा में कदम बढ़ाते हुए गुफाओं से बाहर निकल और वृक्षों से नीचे उतर कर जब झोपड़ियां का निर्माण आरंभ किया, तब तो वृक्षों की शाखाएं पत्ते सहायक सामग्री बने ही, बाद में मकानों, भवनों की परिकल्पना साकार करने के लिए भी वृक्षों की लकड़ी का भरपूर प्रयोग किया गया। उन घरों को सजाने का काम तो आज भी वृक्षों की लकड़ी से ही किया जा रहा है। कुर्सी, टेबल, सोफा आदि मुख्यतः लकड़ी से ही बनाए जाते हैं। हमें अनेक प्रकार के फल-फूल और औषधियां भी वृक्षों से प्राप्त होती हैं, कई तरह की वनस्पतियों का कारण भी वृक्ष ही हैं। इतना ही नहीं, वृक्षों के कारण ही हमें वर्षाजल एवं पेयजल आदि की प्राप्ति हो रही है।
वृक्षों की पत्तियां धरती के जल का शोषण कर सूर्य-किरणें और प्रकृति बादलों को बनाती है। और वर्षा कराया करती हैं। कल्पना कीजिए, निहित स्वार्थी मानव जिस बेरहमी से वनों, वृक्षों को काटता जा रहा है, यदि उस क्षति की पूर्ति के लिए साथ-साथ वृक्षारोपण-रक्षण न होता रहे, तब धरती के एकदम वृक्ष-शून्य हो जाने की स्थिति में मानव तो क्या, समूची जीव-सृष्टि की क्या दशा होगी? निश्चय ही वह स्वत: ही जलकर राख का ढेर बन और उड़कर अतीत की भूली-बिसरी कहानी बनकर रह जाएगा।
प्राचीन भारत में निश्चय ही वृक्षारोपण को एक उद्धात्त सांस्कृतिक दायित्व माना जाता था। तब तो मानव समाज के पास ऊर्जा और ईंधन का एकमात्र स्रोत भी वृक्षों से प्राप्त लकड़ी ही हुआ करती थी, जबकि आज कई प्रकार के अन्य स्रोत भी उपलब्ध हैं। इस कारण उस समय के लोग इस तथ्य को भली-भांति समझते थे कि यदि हम मात्र वृक्ष काटते रहेंगे, नहीं उगाएंगे, तो एक दिन वनों की वीरानगी के साथ मानव जीवन भी वीरान बनकर रह जाएगा। इसी कारण एक वृक्ष काटने पर दो नए वृक्ष उगाना वे लोग अपना धर्म एवं सांस्कृतिक कर्तव्य माना करते थे।
जो हो, अभी भी बहुत देर नहीं हुई है। अब भी निरंतर वृक्षारोपण और उनके रक्षण के सांस्कृतिक दायित्व का निर्वाह कर सृष्टि को अकाल भावी-विनाश से बचाया जा सकता है। व्यक्ति और समाज दोनों स्तरों पर इस ओर प्राथमिक स्तर पर ध्यान दिया जाना परम आवश्यक है।
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