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महिला आरक्षण पर निबंध – Essay On Women Reservation In Hindi

Essay On Women Reservation In Hindi – महिला आरक्षण बिल या विधेयक का महत्व, उद्देश्य एवं लाभ

Women Reservation Essay In Hindi - Nibandh
Women Reservation Essay In Hindi – Nibandh

Essay On Women Reservation In Hindi – औरत यानी ‘आधी दुनिया’, जिसे बच्चे की प्रथम पाठशाला कहा जाता है जो अपने प्यार दुलार से ईंट-गारे के ढांचे को घर बनाती है। अपने आंचल में सारे दु:ख छिपाकर परिवार में खुशियां बांटती है। यही नहीं अपनी पूरी जिंदगी आशियां के ही तिनके सहेजने-समटने में गुज़ार देती है। सदियों से वह निस्वार्थ भाव से सर्वस्व समर्पण करके अपनी जिम्मेदारियां निभा रही है क्या कभी इस बात पर गौर किया गया है कि औरत के स्नेह, ममता, करुणा, सेवा, और त्याग के बदले समाज ने उसे क्या दिया, चंद खोखले और कमजोर बनाने वाले नारे, जो बरसों से यही कहते आ रहे हैं कि औरत की डोर हमेशा तीन ‘प’ पिता-पति-पुत्र के ही हाथों में रहनी चाहिये क्योंकि बकौल तुलसीदास ‘जिमि स्वतंत्र होई बिगरही नारी’ यानि आजादी मिलने से औरत बिगड़ जाएगी इसीलिए उसे पर अंकुश रखो।

विरासत में मिली इसी मूर्खतापूर्ण नसीहत ने ही लोगों के दिमाग में यह बात भर दी है कि औरत तो ‘निजी संपत्ति’ की तरह है जैसे चाहो इस्तेमाल करो। लेकिन शायद समाज यह नहीं जानना चाहता है कि इस सडी़-गली सोच से हम रिश्तो में बिखराव और स्वभाव में उच्श्रंखलता के अलावा और कुछ हासिल नहीं कर पाएंगे। इसी घटिया मानसिकता ने ही औरतों के खिलाफ तमाम अपराधों को भी जन्म दिया।

जरा सोचिए जिस हिंदुस्तान में घर में रहने वाली एक आम औरत, जो सेटेलाइट की इस दौर में भी सर से पल्लू तक गिरने में संकोच महसूस करती है; अगर उसे चौराहे पर बेइज्जत किया जाए तो उसके दिल पर क्या गुजरती होगी। मगर अफसोस के साथ यह कहना पड़ता है कि आज ऐसे कम लोग बचे हैं जो दूसरे की आंख के आंसू को अपना समझते हैं। इससे अधिक खराब स्थिति और क्या हो सकती है कि हमें इंसानों को यह एहसास करना पड़ रहा है कि औरत कोई वस्तु नहीं है वह भी इंसान है। उसका भी सम्मान है। उसके भी कुछ सपने हैं। लेकिन जो एक बात मुझे इस वक्त महसूस हो रही है वह यह है कि समाज को यह एहसास करने के साथ ही हमें हर औरत को भी वह सब महसूस करना होगा जो उसे एक सम्मानपूर्ण पृष्ठभूमि दे सके।

उम्मीद है कि प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में गठित होने वाले महिला सशक्तिकरण आयोग में इस पर गंभीरता से विचार कर निर्णय लिया गया होगा। नि:संदेह संसद और विधानसभाओं में आरक्षण व्यवस्था के परिणामस्वरुप देश की आधी आबादी को समुचित भागीदारी मिलने से भारतीय जनतंत्र को नई ताकत और नई दिशा मिली है। परंतु यहां पर हमें इस बात पर भी गंभीरता से विचार करना होगा कि जिन महिलाओं के लिए हम आरक्षण प्रदान करने की बात कर रहे हैं क्या वे इतने सक्षम और आत्मविश्वास से परिपूर्ण हैं कि अपनी आवाज को पुरजोर संसद में उठा पाएंगी। हमारे भारत के गांव में रहने वाली लगभग 60% आबादी में महिलाओं की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है। दो जून की रोटी कमाने के प्रयास में ही उनका संपूर्ण जीवन व्यतीत हो जाता है। गरीबी, कुपोषण और अशिक्षा के दुष्चक्र में फंसी इन महिलाओं की जब अपने ही समाज में पहचान नहीं है तो फिर घर की दहलीज लांघकर राष्ट्रीय स्तर पर सामने आकर इनके काम करने के प्रति संदेह पैदा होना स्वाभाविक है।

यहां पर हम पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं के लिए मौजूदा 33 प्रतिशत की आरक्षण व्यवस्था का उल्लेख करना चाहेंगे। भले ही उनकी इन स्थानीय निकायों में भागीदारी बढ़ी है, परंतु यह भी हकीकत है कि अपनी अशिक्षा तथा कुछ और कारणों से अधिकांश महिला सरपंच अपने को पुरुष की छांव में मुक्त नहीं कर पाई हैं। फलत: स्वतंत्र निर्णय लेने में वे असहज महसूस करती हैं। हमें आरक्षण के समानांतर समाज में बालिका के जन्म लेने के बाद से उसके सशक्तिकरण की दिशा में ठोस पहल करनी होगी। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि बालिका के गर्भ में आते ही उसके समक्ष लिंग भेद की वजह से अपने को सुरक्षित रखने की चुनौती प्रारंभ हो जाती है। कन्या भ्रूण हत्या की बढ़ती घटनाएं इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। यही नहीं, जन्म लेने के बाद भी उसे पग-पग पर सामाजिक भेदभाव का शिकार होना पड़ता है।

इसलिए बालिका एक स्वस्थ माहौल में जन्म ले, उसके जन्म पर खूब खुशियां बरसे और फिर उसके बाद उसके स्वास्थ्य, पोषण, शिक्षा जैसी बुनियादी आवश्यकताओं पर पूरा ध्यान दिया जाये। तो तभी एक स्वस्थ और सुरक्षित बालिका आगे जाकर राष्ट्र निर्माण में अपना सक्रिय योगदान दे सकती है और तभी वह उस आरक्षण की व्यवस्था का लाभ उठाने में सक्षम हो सकती है।

हमें इस बात पर भी विशेष गौर करना होगा कि बालिका को शिक्षा से वंचित रखने की कीमत न केवल उसे स्वयं को बल्कि परिवार, समाज और देश को समान रूप से चुकानी पड़ती है। यहां हम इस कटु सत्य से भी मुंह मोड़ नहीं सकते कि देश की 54% गर्भवती महिलाओं में खून की कमी है और उनमें से 43% का ही प्रसव प्रशिक्षित स्वास्थ्य कर्मियों द्वारा किया जाता है। महिलाओं को पुरुष की तुलना में कब मजदूरी मिलती है। यही नहीं सुदूर गांव में उनका शारीरिक शोषण भी आम बात है। इसका भी काफी हद तक समाधान हो सकता है बशर्ते महिलाओं की राजनीति में भागीदारी हो।

कहना न होगा कि अतीत में भारतीय नारी ने भारी विरोधों और विपरीत परिस्थितियों का सामना करते हुए न केवल अपनी गरिमा की रक्षा की, बल्कि अपने परिवार, समाज तथा राष्ट्र को भी एक नई पहचान दी है। हम यहां पर इस तथ्य की भी अनदेखी नहीं कर सकते कि महिलाओं का टीमवर्क पुरुषों की अपेक्षा बेहतर होता है। वे घर और प्रमोशन में बेहतर तालमेल रखने में सक्षम है, वे संवेदनशील है और वे सबके साथ केवल चलने में भरोसा रखती हैं। किसी भी काम के व्यावहारिक पहलुओं पर उनकी पैनी नजर होती है। इसलिए इस आरक्षण व्यवस्था के मूर्त रूप ग्रहण करने पर हमें महिलाओं से काफी अपेक्षाएं हैं। हम यह भी चाहेंगे की राजनीति में आज धनबल, बाहुबली के सहारे जिस तरह से अपराधी तत्वों का प्रवेश हुआ है। राजनीति उनके लिए सुरक्षित आरामगाह बन गई है। उस पर भी यह चोट करेंगी और इस राजनीति में शुचिता आएगी।

महिला आरक्षण की सफलता की पहली शर्त जहां मूलतः बालिका के सर्वोतोमुखी विकास में निहित है, वहीं दूसरी शर्त के बतौर हमें यह कहने में भी लेशमात्रा हिचक नहीं कि पुरुष मानसिकता में आमूलचूल बदलाव आए और वह इस वास्तविकता को जाने कि घर के कामकाज के साथ जब महिलाएं अन्य महत्वपूर्ण और चुनौती भरे क्षेत्र में भी पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़ रही हैं और सफलता का परचम लहरा रही हैं, तो फिर राजनीति में उनकी क्षमता पर सवाल और बवाल क्यों?

महिलाओं के इस 33% आरक्षण से महिला सशक्तिकरण की दिशा में क्रांतिकारी बदलाव आ सकता है बेशर्ते पंचायत, ब्लॉक तथा जिला स्तर पर चुनी महिलाओं के साथ पुरुष सांसद / विधायक उचित तालमेल स्थापित करें और स्थानीय समस्याओं को संसद तथा विधानसभा में उन्हें उठाने के लिए प्रोत्साहित करें और उन्हें संसद विधानसभा में पूर्ण सहयोग दें। यह भी वास्तविकता है कि प्रत्येक राज्य की भौगोलिक स्थिति भिन्न-भिन्न होने के कारण वहां की समस्याएं भी भिन्न-भिन्न हैं, मसलन उत्तराखंड, हिमालय तथा पूर्वोत्तर के पहाड़ी इलाकों में जो स्थानीय समस्याएं मौजूद हैं और वहां जिन विकास योजनाओं की जरूरत है, उनका राजस्थान के रेगिस्तानी इलाकों से तादात्म्य नहीं बैठ सकता। इसलिए जब देश के विभिन्न क्षेत्रों से महिला प्रतिनिधि चुनकर आएंगी तो निश्चित तौर पर विश्व संसद/ विधानसभा में अपने क्षेत्र की आवश्यकताओं तथा समस्याओं पर चर्चा करेंगी और उसी अनुरूप कल्याणकारी योजनाएं बनेंगी।

यहां यह उल्लेख करना समीचीन होगा कि आज यदि देश में भारी क्षेत्रीय विषमता व्याप्त है और देश के महत्वपूर्ण राज्य बिहार, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, राजस्थान और उड़ीसा ‘बीमारू’ राज्यों की श्रेणी में घोषित किए गए हैं तो उसके मूल में यही कारण है कि हमने “सब धान बाईस पसेरी” की तर्ज पर प्रत्येक राज्य के संबंध में समान कल्याणकारी नीतियां बनाई और स्थानीय परिस्थितियों तथा आवश्यकताओं को नजर अंदाज कर दिया।

यह तथ्य भी किसी से छिपा नहीं है कि महिलाओं ने कृषि तथा पशुपालन के साथ स्थानीय परिस्थितियों की अनुकूल गतिविधियों यथा- बागवानी, खाद्य प्रसंस्करण, लघु तथा कुटीर उद्योग, हथकरघा, ग्रामीण पर्यटन तथा स्वसहायता समूह के निर्माण में भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया है और जब उन्हें सत्ता में समुचित भागीदारी मिलेगी तो निश्चित तौर पर देश की लगभग आधी आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाले गांवों की तस्वीर बदलने में देर नहीं लगेगी। यही नहीं, इन महिलाओं, सांसदों तथा विधायकों के सहयोग से गांवों में व्याप्त विभिन्न सामाजिक बुराइयों, अंधविश्वास सहित नशा मुक्ति, जातिवाद, लिंग भेद, कन्या भ्रूण हत्या, घरेलू हिंसा, दहेज प्रथा जैसी सामाजिक समस्याओं का भी अंत होगा और उनके विरुद्ध समाज में बढ़ते अपराधों में भी कमी आएगी। स्वास्थ्य, पोषण, शिक्षा, परिवार नियोजन जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर उनके प्रति बढ़ते जा रहे भेदभाव का उन्मूलन भी होगा। इससे महिला कल्याणकारी योजनाओं के निर्माण में भी तेजी आएगी।

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Babita Singh
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