Prerak प्रसंग: छोटे विद्यार्थियों के लिए लघु नैतिक इंस्पायरिंग प्रेरक प्रसंग – Short Motivational (Prerak Prasang) Story With Moral Value in Hindi

Prerak Prasang Kahani In Hindi – दोस्तों इस पोस्ट के माध्यम से बेहद उम्दा 2 छोटे प्रेरक प्रसंग कहानियों को आप तक पहुंचा रही हूँ, जो की अत्यंत रोचक एवं बाल मनोभावों के अनुरूप है। ये प्रेरक प्रसंग बच्चों को अवश्य पढाएँ एवं सुनाएँ।
मेरा मानना है कि बच्चों को कुछ सिखाने के लिए कहानियों से बढ़िया कोई उपाय नहीं हो सकता। क्योंकि कहानियाँ सुनकर जहां बच्चों का मन खुश होता है वहीं इनसे बच्चे स्वत: प्रेरित होते हैं। चुंकि बच्चे बहुत छोटे होते इसलिए उनको सिद्धांतों के उपदेश देकर कोई चीज नहीं सिखाई जा सकती। लेकिन कहानियों से मिलने वाली सिद्धांतों और आदर्शों की सीख को बच्चों का कोमल हृदय बड़ी सरलता से ग्रहण कर लेता है।
ऐसा माना जाता है की बच्चों के चहुँमुखी विकास के लिए उन्हें उन सिद्धांतों को आचरण में उतारने वाले आदर्श महापुरुषों के जीवन चरित्र या प्रेरक प्रसंग अत्यंत ही उपयोगी रहते हैं। इसलिए एक motivational ब्लॉग होने के कारण मेरा पूर्ण प्रयास रहता है कि जो भी महापुरुषों के प्रेरक प्रसंग यहाँ पर लिखा जाये वो छात्रों के लिए ज्ञान और शिक्षा का अच्छा स्रोत हो । आशा करती हूँ ये कहानियाँ भी आपके द्वारा निश्चित रूप से सराही जाएगी।
कहानी 1 (अभ्यास से सफलता)
करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत जात ते सिल पर परत निशान ।।
बचपन में यह दोहा सुना था। उसके पीछे छिपी हुई कहानी को आज आपके सामने एक प्रेरक प्रसंग के जरिए प्रस्तुत कर रही हूँ :
एक विद्यार्थी बड़ा मंदबुद्धि था। बड़ी उम्र हो गई थी पर पढ़ने में सबसे पीछे था। अब तो साथी बच्चे भी उसे चिढ़ाते रहते थे और उसे वरदाजे वैला का राजा कहकर बुलाते थे।
वराज के गुरु ने भी काफी प्रयत्न किए कि वह पढ़ लिख कर किसी काबिल बन जाये लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। थकहार कर एक दिन गुरु जी ने वराज से कह ही दिया कि वराज तुम अपने गाँव वापस लौट जाओं। विद्या ग्रहण करना तुम्हारें बस की बात नहीं हैं। तुम्हारी बुद्धि तो पत्थर बन चुकीं है। और पत्थर को खुरचना मुश्किल ही नहीं नामुमिकन है।
वराज अपनी मंदबुद्धि पर दुखी होकर पाठशाला छोड़ देने का निश्चय किया। और अपने घर की ओर चल दिया। चुंकि गांव बहुत दूर था। सो बीच-बीच में वह ठहते हुए जा रहा था। इसी क्रम में वह एक गांव में एक कुएं के पास बैठकर सुस्ताने लगा। वहां सहसा उसका ध्यान कुएं पर लगे पत्थर की जगह पर गहरे निशान पर पड़ी जो पानी खींचते समय बार-बार रस्सी के नीचे ऊपर जाने-आने से पड़ा था। यह देखकर वह गंभीरतापूर्वक सोचने लगा कि जब बार-बार इस रगड़ रूपी अभ्यास के कारण इस कुएं के कठोर पत्थर पर निशान पड़ सकता है तो कोई कारण नहीं कि मेरी मोटी बुद्धि निश्चय पूर्वक मेहनत करने से सही काम न करने लगे।
ऐसा विचार कर तुरंत उसने घर जाने का इरादा छोड़ दिया और वापिस पाठशाला पहुंचकर गुरूजी से बोला’ “गुरूजी आप मुझे एक अवसर और प्रदान कीजिए। मैं इस बार अपने अभ्यास से अपने पत्थर बुद्धि पर निशान बना कर दिखाउंगा। फिर वह बड़े उत्साह से पूरी मेहनत और दिलचस्पी से पढ़ने लगा। अब उसकी बुद्धि में भारी सुधार होने लगा। बड़ा होने पर वही वराज माना हुआ विद्वान हुआ उसने अनेक ग्रंथ संस्कृत भाषा में लिखें।
शिक्षा – प्रिय बच्चों! अभ्यास से हर कार्य सिद्ध हो जाता है। कोई भी मनुष्य बचपन से ही किसी कार्य में पारंगत पैदा नहीं होता है। बार – बार अभ्यास और प्रयत्न के आधार पर किसी भी क्षेत्र में कुशल बना जा सकता है।
कहानी 2 (अपना काम स्वयं करो)
एक दिन एक नवयुवक कोलकाता स्टेशन पर गाड़ी से उतरा और कुली-कुली पुकारने लगा। यद्यपि उसके पास इतना सामान था कि वह उसे स्वयं उठा सकता था।
एक सीधी-सादी सज्जन उसके पास आए और बोले, “कहां चलना है?” वह युवक स्कूल में पढ़ने आया था। तुरंत उसने स्कूल का नाम बताया। वह सज्जन उसका सामान उठाकर चलने लगे। स्कूल पास में ही था। शीघ्र ही वह स्कूल पहुंच गए। जब वह सामान रखकर जाने लगे, तब उसने कुछ भाड़ा देना चाहा।
सामान ढोने वाले ने कहा, “मुझे कोई इनाम नहीं चाहिए। अपना काम स्वयं करने की कोशिश, यही मेरा इनाम है। इतना कहकर वह आदमी चला गया। अगले दिन जब वह विद्यार्थी कॉलेज पहुंचा तब प्रार्थना स्थल पर उसने देखा कि वही आदमी प्राचार्य है। उसे काटो तो खून नहीं।
प्रार्थना के बाद जब विद्यार्थी अपनी-अपनी कक्षाओं में चले गए, तब उसने प्राचार्य के चरणों में अपना सिर रखकर माफी मांगी। प्राचार्य पहले ही उसे क्षमा कर चुके थे।
वे प्राचार्य थे- ईश्वर चंद्र विद्यासागर जो किसी भी काम को छोटा नहीं समझते थे। ईश्वर चंद्र विद्यासागर का जन्म 26 सितंबर 1820 मेदिनीपुर के वीरसिंह गांव में एक निर्धन ब्राह्मण परिवार में हुआ था। पिता का नाम ठाकुर प्रसाद बंदोपाध्याय था। गरीब पिता ने विद्या के प्रति रुचि विरासत में प्रदान की। नव वर्ष की अवस्था में बालक ने पिता के साथ पैदल कोलकाता जाकर संस्कृत कॉलेज में विद्यारंभ की। शारीरिक अस्वस्थता और घोर आर्थिक कष्ट तथा गृह कार्य के बावजूद ईश्वर चंद्र ने प्राय: प्रत्येक कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया।
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दोस्तों ! उम्मीद है उपर्युक्त प्रेरक प्रसंग कहानियाँ (Prerak Prasang Kahani In Hindi) छोटे और बड़े सभी लोगों के लिए उपयोगी साबित होगा। गर आपको हमारा यह पोस्ट अच्छा लगा हो तो इसमें निरंतरता बनाये रखने में आप का सहयोग एवं उत्साहवर्धन अत्यंत आवश्यक है। आशा है कि आप हमारे इस प्रयास में सहयोगी होंगे साथ ही अपनी प्रतिक्रियाओं और सुझाओं से हमें अवगत अवश्य करायेंगे ताकि आपके बहुमूल्य सुझाओं के आधार पर इस कहानी को और अधिक सारगर्भित और उपयोगी बनाया जा सके।
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