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महापुरुषों के प्रेरक प्रसंग एवं कहानियाँ – Mahapurusho Ke Prerak Prasang Kahaniyan In Hindi

महापुरुषों के लघु प्रेरक प्रसंग – Mahapurusho Ke Short Motivational (Prerak Prasang) Story With Moral Value in Hindi

Prerak Prasang In Hindi - Kahani
Prerak Prasang In Hindi – Kahani

Mahapurusho Ke Prerak Prasang In Hindi – दोस्तों ! मेरा मानना है कि बच्चों को कुछ सिखाने के लिए कहानियों से बढ़िया कोई उपाय नहीं हो सकता। क्योंकि कहानियाँ सुनकर जहां बच्चों का मन खुश होता है वहीं इनसे बच्चे स्वत: प्रेरित होते हैं। चुंकि बच्चे बहुत छोटे होते इसलिए उनको सिद्धांतों के उपदेश देकर कोई चीज नहीं सिखाई जा सकती। लेकिन कहानियों से मिलने वाली सिद्धांतों और आदर्शों की सीख को बच्चों का कोमल हृदय बड़ी सरलता से ग्रहण कर लेता है।

ऐसा माना जाता है की बच्चों के चहुँमुखी विकास के लिए उन्हें उन सिद्धांतों को आचरण में उतारने वाले आदर्श महापुरुषों के जीवन चरित्र या प्रेरक प्रसंग सुनाना अत्यंत ही उपयोगी रहता है। और महान चरित्रों, व महापुरुषों के प्रेरक प्रसंगों को प्रत्येक काल खंड में अलग-अलग अंदाज, भाषाशैली व माहौल के मुताबिक लिखने, पढ़ने और सुनाने की हमारी परम्परा भी रही है।

भारत इसी परम्परा को आगे बढ़ाते हुए इस पोस्ट के माध्यम से बेहद उम्दा 5 छोटे प्रेरक प्रसंग कहानियों को आप तक पहुंचा रही हूँ, जो की अत्यंत रोचक एवं बाल मनोभावों के अनुरूप है। ये प्रेरक प्रसंग बच्चों को अवश्य पढाएँ एवं सुनाएँ।एक motivational ब्लॉग होने के कारण मेरा पूर्ण प्रयास रहता है कि जो भी महापुरुषों के प्रेरक प्रसंग यहाँ पर लिखा जाये वो छात्रों के लिए ज्ञान और शिक्षा का अच्छा स्रोत हो । आशा करती हूँ ये कहानियाँ भी आपके द्वारा निश्चित रूप से सराही जाएगी।

प्रेरक प्रसंग 1 (अभ्यास से सफलता)

करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत जात ते सिल पर परत निशान ।।

बचपन में यह दोहा सुना था। उसके पीछे छिपी हुई कहानी को आज आपके सामने एक प्रेरक प्रसंग के जरिए प्रस्तुत कर रही हूँ :

प्राचीन काल में एक वरदराज नाम का शिष्य हुआ। वह गुरुकुल में रहता तो था विद्या पढ़ने के लिए, पर विद्या तो शायद उससे रूठी हुई थी। उसे ना कुछ याद होता और ना ही कुछ समझ में आता था। अब तो साथी बच्चे भी उसे चिढ़ाते रहते थे और उसे वरदाजे वैला का राजा कहकर बुलाते थे। यूं ही 12 साल आश्रम में उसके व्यर्थ में बीत गए। उसका किशोरावस्था खत्म होकर युवावस्था भी गया।

वरदराज के गुरु ने भी काफी प्रयत्न किए कि वह पढ़ लिख कर किसी काबिल बन जाये लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। थकहार कर एक दिन गुरु जी ने वराज से कह ही दिया कि वराज तुम अपने गाँव वापस लौट जाओं। विद्या ग्रहण करना तुम्हारें बस की बात नहीं हैं। तुम्हारी बुद्धि तो पत्थर बन चुकीं है। और पत्थर को खुरचना मुश्किल ही नहीं नामुमिकन है।

वराज अपनी मंदबुद्धि पर दुखी होकर पाठशाला छोड़ देने का निश्चय किया। और अपने घर की ओर चल दिया। चुंकि गांव बहुत दूर था। सो बीच-बीच में वह ठहते हुए जा रहा था। इसी क्रम में वह एक गांव में एक कुएं के पास बैठकर सुस्ताने लगा। वहां सहसा उसका ध्यान कुएं पर लगे पत्थर की जगह पर गहरे निशान पर पड़ी जो पानी खींचते समय बार-बार रस्सी के नीचे ऊपर जाने-आने से पड़ा था। यह देखकर वह गंभीरतापूर्वक सोचने लगा कि जब बार-बार इस रगड़ रूपी अभ्यास के कारण इस कुएं के कठोर पत्थर पर निशान पड़ सकता है तो कोई कारण नहीं कि मेरी मोटी बुद्धि निश्चय पूर्वक मेहनत करने से सही काम न करने लगे।

ऐसा विचार कर तुरंत उसने घर जाने का इरादा छोड़ दिया और वापिस पाठशाला पहुंचकर गुरूजी से बोला’ “गुरूजी आप मुझे एक अवसर और प्रदान कीजिए। मैं इस बार अपने अभ्यास से अपने पत्थर बुद्धि पर निशान बना कर दिखाउंगा। फिर वह बड़े उत्साह से पूरी मेहनत और दिलचस्पी से पढ़ने लगा। अब उसकी बुद्धि में भारी सुधार होने लगा। बड़ा होने पर वही वराज माना हुआ विद्वान हुआ उसने अनेक ग्रंथ संस्कृत भाषा में लिखें।

शिक्षा – प्रिय बच्चों! अभ्यास से हर कार्य सिद्ध हो जाता है। कोई भी मनुष्य बचपन से ही किसी कार्य में पारंगत पैदा नहीं होता है। बार – बार अभ्यास और प्रयत्न के आधार पर किसी भी क्षेत्र में कुशल बना जा सकता है।

कहानी 2 (अपना काम स्वयं करो)

एक दिन एक नवयुवक कोलकाता स्टेशन पर गाड़ी से उतरा और कुली-कुली पुकारने लगा। यद्यपि उसके पास इतना सामान था कि वह उसे स्वयं उठा सकता था।

एक सीधी-सादी सज्जन उसके पास आए और बोले, “कहां चलना है?” वह युवक स्कूल में पढ़ने आया था। तुरंत उसने स्कूल का नाम बताया। वह सज्जन उसका सामान उठाकर चलने लगे। स्कूल पास में ही था। शीघ्र ही वह स्कूल पहुंच गए। जब वह सामान रखकर जाने लगे, तब उसने कुछ भाड़ा देना चाहा।

सामान ढोने वाले ने कहा, “मुझे कोई इनाम नहीं चाहिए। अपना काम स्वयं करने की कोशिश, यही मेरा इनाम है। इतना कहकर वह आदमी चला गया। अगले दिन जब वह विद्यार्थी कॉलेज पहुंचा तब प्रार्थना स्थल पर उसने देखा कि वही आदमी प्राचार्य है। उसे काटो तो खून नहीं।

प्रार्थना के बाद जब विद्यार्थी अपनी-अपनी कक्षाओं में चले गए, तब उसने प्राचार्य के चरणों में अपना सिर रखकर माफी मांगी। प्राचार्य पहले ही उसे क्षमा कर चुके थे।

वे प्राचार्य थे- ईश्वर चंद्र विद्यासागर जो किसी भी काम को छोटा नहीं समझते थे। ईश्वर चंद्र विद्यासागर का जन्म 26 सितंबर 1820 मेदिनीपुर के वीरसिंह गांव में एक निर्धन ब्राह्मण परिवार में हुआ था। पिता का नाम ठाकुर प्रसाद बंदोपाध्याय था। गरीब पिता ने विद्या के प्रति रुचि विरासत में प्रदान की। नव वर्ष की अवस्था में बालक ने पिता के साथ पैदल कोलकाता जाकर संस्कृत कॉलेज में विद्यारंभ की। शारीरिक अस्वस्थता और घोर आर्थिक कष्ट तथा गृह कार्य के बावजूद ईश्वर चंद्र ने प्राय: प्रत्येक कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया।

प्रेरक प्रसंग 3 (गांधीजी की सीख)

गाँधी जी के करीबी मित्रों में से एक थे डॉ. प्राणजीवन मेहता। रेवाशंकर और जगजीवन दास डॉ. मेहता के भाई थे। गांधीजी के प्रति रेवाशंकर के मन में अपार श्रद्धा थी। इसलिए, गांधी जी जब मुंबई जाते तो प्रायः रेवाशंकर के घर पर ही ठहरते थे। रेवाशंकर बापू का खूब स्वागत सत्कार करते थे। एक दिन गांधीजी मुंबई आए तो उनके साथ आनंदस्वामी भी थे। रेवाशंकर उन्हें देख बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने दोनों का यथोचित स्वागत किया।

एक दिन आनंदस्वामी की रेवाशंकर के रसोइए के साथ किसी बात पर अनबन हो गई। रसोइए ने तैश में आकर कुछ ऐसा बोल दिया जो आनंदस्वामी को बहुत बुरा लगा। वह क्रोधित हो उठे और उन्होंने रसोइए को चांटा जड़ दिया। पर शिकायत गांधीजी तक जा पहुंची। उन्होंने आनंदस्वामी को बुलाकर समझाया, ‘तुम्हारा यह आचरण अशोभनीय है। तुमने ऐसा क्यों किया ?’ आनंदस्वामी ने जवाब दिया, ‘मुझे क्रोध आ गया था।’ इस पर गांधी जी बोले, क्रोध में भी प्राय: अपने से कमजोर लोगों को ही निशाना बनाते हैं। यदि बड़े लोगों से तुम्हारा ऐसा झगड़ा हो जाता तो उन्हें तो तुम थप्पड़ नहीं लगाते। वह नौकर है इसलिए तुमने उसे चांटा जड़ दिया। अभी जाकर क्षमा माँगों।

जब आनंदस्वामी ने आनाकानी की तो गांधीजी ने कहा, ‘अपने अपराध का प्राश्चित तभी होता है जब पीड़ित से सच्चे हृदय से क्षमा मांग ली जाए। क्षमा से न केवल अपराध का बोझ समाप्त होता है, बल्कि आत्म परिष्कार भी होता है। तुम स्वयं में सुधार नहीं कर सकते तो मेरे साथ भी नहीं रह सकते।’ इतना सुनते ही आनंद स्वामी ने तत्काल रसोइए के पास जाकर उससे क्षमा मांग ली।

प्रेरक प्रसंग 4 (मुसीबत से डरों नहीं, उसका सामना करों)

एक बार बनारस में स्वामी विवेकानंद जी मां दुर्गा जी के मंदिर से निकल रहे थे कि तभी वहां मौजूद बहुत सारे बंदरों ने उन्हें घेर लिया। वे उनसे प्रसाद छीनने लगे और उनके नजदीक आ-आ के डराने भी लगे। इससे स्वामी जी बहुत भयभीत हो गए और खुद को बचाने के लिए दौड़ कर भागने लगे। लेकिन बंदर तो मानो पीछे ही पड़ गए और वह भी उन्हें पीछे-पीछे दौड़ाने लगे.

वहां पास खड़े एक वृद्ध संन्यासी यह सब देख रहे थें। उन्होंने स्वामी जी को रोका और कहा, रुको! डरो मत, उनका सामना करो और देखो क्या होता है। वृद्ध संन्यासी की यह बात सुनकर स्वामी जी तुरंत पलटे और बंदरों के तरफ बढ़ने लगे। उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब उनके ऐसा करते ही सभी बंदर तुरंत भाग गए। उन्होंने वृद्ध संन्यासी को इस सलाह के लिए बहुत धन्यवाद किया।

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इस घटना से स्वामी जी को एक गंभीर सीख मिली और कई सालों बाद उन्होंने एक संबोधन में इसका जिक्र भी किया और कहा – यदि तुम किसी चीज से भयभीत हो, तो उससे भागो मत पलटो और सामना करो। वाकई, यदि हम भी अपने जीवन में आये समस्याओं का सामना करें और उससे भागे नहीं तो बहुत-सी समस्याओं का समाधान हो जाएगा।

कहानी 5 (सरल उपाय)

एक दिन एक चोर गुरु नानक देव के पास आया और बोला, मैं अपने जीवन से बहुत तंग हूं। कृपया मेरा मार्गदर्शन कीजिए।’

गुरु नानक देव जी ने कहा, सुनों! तुम आज से ही चोरी करना छोड़ दो तो सब ठीक हो जाएगा। आपकी की सलाह पर निश्चय ही अमल करूँगा ऐसा कहते हुए चोर उन्हें प्रणाम करके चला गया। लेकिन कुछ दिनों बाद वह फिर आया और कहने लगा, ‘गुरुदेव ! मैंने अपनी आदतों से मुक्त होने का भरसक प्रयत्न किया किंतु न हो सका।

गुरु नानक देव जी ने फिर कुछ सोच कर जवाब दिया, अच्छा जो तुम्हारे मन में आए सो करो, लेकिन दिनभर चोरी करने के बाद शाम को लोगों को सब बता जरूर देना।

फिर चोर प्रणाम करके चला गया। इस बार वह पलट कर गुरु नानक के पास नहीं आया। गुरुनानक जी भी सब भूल चुके थे। लेकिन कई दिनों बाद एक दिन अचानक वही चोर नानक जी के पास फिर आया और अब तक न आने का कारण बताते हुए उसने कहा, ‘गुरुदेव मैंने तो उस उपाय को बहुत सरल समझा था लेकिन वह तो और भी ज्यादा कठिन निकला। लोगों के सामने अपनी बुराइयां करने में तो मुझे बहुत लज्जा आती है। अतः मैंने बुरे काम करना ही छोड़ दिया।’

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दोस्तों ! उम्मीद है उपर्युक्त प्रेरक प्रसंग कहानियाँ (Prerak Prasang Kahani In Hindi)  छोटे और बड़े सभी लोगों के लिए उपयोगी साबित होगा। गर आपको हमारा यह पोस्ट अच्छा लगा हो तो इसमें निरंतरता बनाये रखने में आप का सहयोग एवं उत्साहवर्धन अत्यंत आवश्यक है। आशा है कि आप हमारे इस प्रयास में सहयोगी होंगे साथ ही अपनी प्रतिक्रियाओं और सुझाओं से हमें अवगत अवश्य करायेंगे ताकि आपके बहुमूल्य सुझाओं के आधार पर इस कहानी को और अधिक सारगर्भित और उपयोगी बनाया जा सके।

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Babita Singh
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