पहला सुख निरोगी काया – Pehla Sukh Nirogi Kaya Essay In Hindi

Pehla Sukh Nirogi Kaya Essay In Hindi – दोस्तों! इस आर्टिकल को पढ़ने से पहले मेरे एक आसान – सा सवाल का जबाब दें कि आप में से कौन ऐसा है जो स्वस्थ नहीं रहना चाहता? जी हाँ खुद स्वस्थ रहने के साथ आप सभी यह भी अनिवार्य रूप से चाहते होंगे कि आपके परिवार के सभी सदस्य, आपके परिचित और मित्र, सगे-संबंधी सभी स्वस्थ रहें तो अच्छा है! आपका ऐसा सोचना विल्कुल लाजमी है। या यूँ कहें कि 21वीं सदी में मनुष्यों की सबसे बड़ी जरूरतों में से एक है स्वास्थ्य। यह एक खुशहाल जीवन की आधारशिला है।
हमारे ऋषि-मुनि भी कह गए हैं, ‘पहला सुख निरोगी काया। जिसका आशय है कि जिस व्यक्ति का शरीर स्वस्थ है, रोग रहित है वह व्यक्ति सबसे सुखी है। संसार के सभी सुखों में निरोगी काया सबसे बड़ा सुख है। यदि शरीर स्वस्थ न हो तो संसार के सब वैभव, आस्वाद फीके हैं। उनसे कोई आनन्द प्राप्त नहीं होगा। लेकिन स्वस्थ काया किसी भी व्यक्ति को अनायास नहीं मिलता।
ऐसा भी नहीं है कि यह किसी फैक्ट्री में बनता है या फिर किसी वनस्पति उद्यान या पहाड़ की तलहटी में पैदा होता है। इसे हासिल करने का मात्र एक ही तरीका है संयमित जीवन शैली। अगर यकीन न हो तो जिन्हें आप निरोग समझते हैं, यह मानते हैं कि बीमारियों से परे पूरी तरह स्वस्थ उनका जीवन है; तो कभी निकट से उनके विगत जीवन और दैनन्दिन जीवन के क्रियाकलापों का अध्ययन करके अवश्य देखें। हो सके तो सीधे उनसे ही पूछने का प्रयास करें क्या कभी उनके जीवन में किसी प्रकार की कोई स्वास्थ्य संबंधी मुसीबत नहीं आयी? उन्हें कभी कोई बीमारी नहीं हुई?
तो आप पाएंगें कि उनको स्वास्थ्य रूपी धन आसमान से फट कर अपने आप नहीं मिला। और न ही इसे पाना के लिए उन्होंने कोई असाध्य कार्य किए हैं। रोजमर्रा के जीवन में हम जो असंयमी, विलासितापूर्ण जीवन जीते हैं, उसने उनके जीवन को भी उसी उसी प्रकार आकर्षित किया था। बशर्ते उनके जीवन का प्रेरक व संबल पूर्णत: सयंम था।
ध्यान देने योग्य बात तो यह है कि हमारी आज की जीवन शैली अपनी निज की विलासिता पूर्ण जीवन जीने की प्रतिक्रिया ही है। दरअसल हम चाहते तो हैं स्वस्थ व निरोगी काया; पर आज के इस पश्चिमी सभ्यताओं से ओतप्रोत लाइफ स्टाइल के मकड़जाल में हम बुरी तरह फंस चुके हैं। हम इस दो सेकंड के स्वाद से बाहर निकलना तो चाहते हैं लेकिन इन विभिन्न प्रकार के रंगीन स्वादिष्ट वैकरी प्रोडक्ट को छोड़ना नहीं चाहते। हालांकि जानकारी का अभाव भी इसमें शामिल है।
आज जो मैकाले शिक्षा हमें दी जा रही हैं उसमें शरीर विज्ञान का नामोनिशान नहीं है। इसका परिणाम, हमारे स्वास्थ्य की क्रांति का सर्वोत्तम भारतीय तरीका या यूँ कहें की भारतीय रहस्य जिसके जरिए प्रत्येक भारतीय अपनी जीवनशैली में हमेशा स्वस्थ, समृद्ध, सुरक्षित रहता था उससे नाता टूट चूका है और हम ये मान बैठे हैं की हम से कुछ नहीं हो सकेगा। निरोगी काया पाना हमारे बस की बात नहीं है।
पर यह सोच हमारे स्वास्थ्य के लिए घातक है। मानवीय शक्तियों में निरोगता पहली प्रत्यक्ष शक्ति माना गया है। जो निरोग है वह रोटी कमाने से लेकर, विद्या पढ़ाने और कला कौशल क्षेत्र में प्रवेश करने तक कहीं भी सफलता प्राप्त कर सकता है। जो रोगी है वह स्वयं तो कष्ट भुगतता ही है, अपनी सेवा परिचर्या में औरों को भी लगाए रहता है। यह अनुत्पादक श्रम है। इसमें मित्र, कुटुंबी जो भी लगता है, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से खींचता है।
रोगी कमाता तो क्या है औषधि, पथ्य, परिचर्या आदि दूसरों की शक्ति का उसके लिए नियोजन होता है। अस्वस्थ व्यक्ति का मन, मस्तिष्क, स्वभाव सभी अस्त-व्यस्त हो जाता है। अतएव वह कोई योजना बनाने और उसे सफल बनाने की स्थिति में भी नहीं रहता। अपने लिए और दूसरों के लिए भारभूत बनकर ही वह दिन गुजरता है। ऐसी जिंदगी न अपने को प्रसन्नता देती है न दूसरों को। किसी से झगड़ा झंझट हो जाए तो प्रतिवाद करने की सामर्थ भी नहीं होती। दबकर मनमार कर रहना पड़ता है। जो कमाऊ नहीं है, प्रसन्नता दे नहीं सकता, उसके प्रति दूसरों के मन में सम्मान भी नहीं रहता। इसलिए निरोग रहना जीवन की प्रथम आवश्यकता मानी गई है। हर किसी को ऐसी स्थिति में रहना चाहिए। गरीब होते हुए भी यदि व्यक्ति निरोग है तो अपनी प्रसन्नता बनाए रह सकता है और उसे दूसरों को भी बांट सकता है।
निरोग रहने के लिए क्या करना चाहिए? इसे लोग रहस्यमयी विधा समझते हुए भ्रांतियों में भटकते रहते हैं। वे बहुमूल्य दवाएँ खरीदते हैं, पौष्टिक खाद्य खरीदते हैं, और जो भी बनता है करते हैं। गुणी योगीजनों से राह पूछते हैं। इतने पर भी सुनिश्चित और चिरस्थाई आरोग्य किसी-किसी के ही हाथ आता है।
यह तथ्य विरलों को ही विदित है कि स्वास्थ्य अति सरल है। निरोग रहने के लिए ऐसा कुछ नहीं करना पड़ता जो रहस्यमय है। केवल प्रकृति का अनुसरण करने वाले थोड़े से नियमों का पालन करने भर से इस प्रयोजन की पूर्ति बिना किसी कठिनाई के हो जाती है। बीमारी अस्वाभाविक है। इसे असंयम का दुष्परिणाम भी कह सकते हैं। यह नियम बहुत नहीं है़ं। थोड़ी सी ही हैं, जो सर्वविदित है, सर्वसुलभ हैं, जिनका पालन करने में, निभाने में किसी को भी कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए। मूर्खता या उद्दंडतावश मनुष्य इन्हें तोड़ता, बिगाड़ता है तो बीमारी चढ़ दौड़ती है। थोड़ा अपने ऊपर संयम रखा जाय। थोड़ी सावधानी बरती जाय। तो बीमारी होने का अभिशाप न भुगतना पड़े। यह नियम संयम भी ऐसे नहीं है, जिनके लिए योगाभ्यास जैसी कठिन प्रक्रिया रोज ही अपनानी पड़े।
स्वस्थ रहने के लिए जिन संयमी मर्यादाओं का पालन करना पड़ता है। वे मात्र 5 हैं। इन्हें निरोगता के पंचशील कह सकते हैं। पहला संतुलित सात्विक भोजन, दूसरा उपयुक्त श्रम, तीसरा समय पर गहरी नींद, चौथा स्वच्छता और पांचवा मन को हल्का रखना। इन 5 नियमों के पालन करने से स्वास्थ्य अक्षुण्ण बना रहता है। यदि किसी कारणवश बिगड़ गया है तो भूल सुधार लेने से प्रकृति क्षमा कर देती है। और खोया हुआ स्वास्थ्य फिर वापस लौटा देती है।
संतुलित सात्विक भोजन से तात्पर्य है बिना भूख के कभी ना खाना। खाने की मात्रा इतनी सीमित रखनी चाहिए जिसमें आधा पेट आहार से भरे, चौथाई पानी के लिए और चौथाई हवा के लिए खाली रहे। आमतौर से लोग जायके के फेर में पड़कर आवश्यकता से प्राय: दूना खा जाते हैं। पीछे पेट की थैली चौड़ी हो जाती है और जरूरत से अधिक खाया जाने लगता है। पेट की चौडी की गई थैली, जब तक तन नहीं जाती, तब तक ऐसा लगता है मानो हम भूखे हैं। अमाशय आंतें, जिगर से रिसने वाला पाचक रस इतना कम होता है कि औसत खुराक की तुलना में प्रायः आधा ही पच सके। लोगों को यह भ्रम है कि ज्यादा खाया जाएगा तो ज्यादा रक्त मांस बनेगा। ज्यादा ताकत आयेगी। लोग यह भूल जाते हैं कि जो पच सके वह अमृत और जो बिना पचे पेट में पड़ा रहे वह विष होता है।
खाने के संबंध में एक और बुरी आदत लोगों में पाई जाती है। जल्दी-जल्दी बिना चबाए निकलना। यह भुला दिया जाता है कि जिस प्रकार पेट में पाचक रस निकलता है, उसी प्रकार मुंह के स्राव भी महत्वपूर्ण हैं। यदि पूरी तरह भोजन के ग्रास को चबाया गया है तो ही वे ठीक तरह पचेंगे अन्यथा दांतो का काम आंतों को करना पड़ेगा और अपच उत्पन्न होगा।
क्या खाया जाय? इसका उत्तर एक शब्द में यह है कि हमारा खाद्य जीवित हो। जीवित का अर्थ है उसे भुना तला न गया हो। यदि मजबूरी हो तो उसे उबाला भर जा सकता है। मिर्च, मसाले, नमक, शक्कर की जितनी आवश्यकता है, उतनी फलों में, शाक, भाजियों में होती है। ऊपर से जो मिलाया जाता है वह नुकसान के अतिरिक्त और कुछ नहीं करता। अन्य लेना आवश्यक हो तो उसे अंकुरित कर लेना चाहिए। यही जीवित खाद्य की व्याख्या है। छिलके हटाकर बनायी दाल तथा बिना चोकर का आटा एक प्रकार से निर्जीव हो जाते हैं। छिलकों में बहुमूल्य जीवन तत्व होते हैं। उन्हें हटा देने के उपरांत, भूनने, तलने के बाद एक प्रकार से खाद्य का कोयला ही पेट में जाता है। यदि सजीव आहार खाया जाएगा तो वह साधारण होते हुए भी मेवा, मिठाइयों की तुलना में कहीं अधिक पौष्टिक होगा। इनका पालन करते रहा जाए तो पेट कभी खराब न होगा और बीमारी से बचाव की आधी समस्या हल हो जाएगी।
खाने के बाद पचाने के लिए श्रम की जरूरत है। अंग अवयवों को पुष्ट रखने के लिए शारीरिक श्रम की नितांत आवश्यकता है। पशु पक्षियों को अपना आहार जुटाने के लिए दिनभर भागदौड़ करनी पड़ती है। यह व्यवस्था इसलिए है कि भोजन पचता रहे और भीतरी तथा बाहरी अवयवों को उस परिश्रम द्वारा मजबूती हस्तगत होती रहे। यदि वे मनुष्य की तरह आरामतलबी का जीवन बितायें, बैठे ठाले रहें तो न उनका भोजन पचे, न अंग अवयवों में पुष्टाई रहें। मनुष्य में अनेक अब बुद्धिजीवी बनते जा रहे हैं। मस्तिष्कीय काम, लिखा-पढ़ी आदि करते रहते हैं। कुर्सी पर बैठे रहते हैं। श्रम के अभाव में उनका पाचन तंत्र गड़बड़ा जाता है और हाथ-पैरों से लेकर हृदय, फेफड़े, गुर्दे, जिगर आदि में कमजोरी घुसती जाती है।
होना यह चाहिए कि शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए शारीरिक श्रम नियमित रूप से किया जाए। मानसिक श्रम भले ही थोड़ा हो पर शारीरिक श्रम में कोताही कदापि न हों। यही कारण है कि किसान, मजदूर जैसे श्रमजीवी शारीरिक दृष्टि से स्वस्थ रहते हैं। और बैठे ठाले समय गुजारने वाले, कलर्क, मुनीम, वकील आदि अपना स्वास्थ्य गॅंवाते चले जाते हैं। न ठीक तरह भोजन पचता है न अन्य अवयवों की श्रम जन्य मजबूती हाथ लगती है। जिन्हें ऐसी परिस्थितियों में रहना पड़ता है उन्हें व्यायाम अपनाना चाहिए। तेज चलना तथा टहलना, मालिश अंग संचालन के कई तरीके ऐसे निकालने चाहिए, जिससे अंग अवयवों को पसीना निकाल देने वाला श्रम करने का अवसर मिल सके। ड्रिल के कई तरीके अंग संचालन की दृष्टि से उपयोगी सिद्ध होते हैं। वयोवृद्धों को भी चारपाई पर पड़े पड़े प्रत्येक अवयवों को उठाने, गिराने, फैलाने, सिकोड़ने का व्यायाम करना चाहिए। जो स्वयं यह करने की स्थिति में न हों, उन्हें दूसरों की सहायता से यह फैलाने सिकोड़ने की व्यायाम पद्धति अपनानी चाहिए। नियमित मालिश भी व्यायाम की आवश्यकता पूरी करती है। कमजोरों, बीमारों वृद्धों का काम इससे भी चल सकता है।
इसके अतिरिक्त पूरे समय नींद लेने की आवश्यकता पूरी करनी चाहिए। मध्यम श्रेणी के आयु के व्यक्ति को सात-आठ घंटे सोना चाहिए। इसके लिए ऐसा कार्यक्रम बनाना चाहिए जिसमें जल्दी सोने और जल्दी उठने का क्रम सतत बना रहे। बहुत रात बीतने तक जागते रहना और सवेरे देर से उठना स्वास्थ्य पर बुरा असर डालता है। जिन्हें रात में कम समय सोने को मिले उन्हें दोपहर को नींद लेने का क्रम बनाना चाहिए। थकान को दूर करने के लिए नींद से बढ़कर और कोई खुराक नहीं है। रात में, दिन में कुल मिलाकर कम सोना बुढ़ापा जल्दी बुलाने का ढंग है।
कई व्यक्ति शौक-मौज में गपबाजी में, सिनेमा आदि देखने में रात का बहुत सा भाग गुजार देते हैं। ग्यारह-बारह बजे तक सोने का तुक बिठाते हैं। देर तक दुकान खोले बैठे रहने वाले और घर आकर गर्म रसोई की फरमाइश करने वाले घर की स्त्रियों का स्वास्थ्य चौपट कर देते हैं। जिन्हें देर में घर आना हो उन्हें गरम रोटी की फरमाइश नहीं करनी चाहिए। शाम को बना हुआ भोजन अपने लिए उठाकर रखवा लेना चाहिए। उसी से काम चलाना चाहिए ताकि इस कारण घर की स्त्रियों को देर तक जागना न पड़े। जिन घरों की स्त्रियां देर से सोती और जल्दी उठती है, वे अनेक बीमारियों से घिर जाती हैं।
कभी-कभी सिर भारी होने, कई दिन नींद अधूरी आने, पेट में कब्ज रहने, शरीर के किसी अंग में पीड़ा होने आदि कारणों से नींद अधूरी आती है। सपने दिखते रहते हैं। ऐसी अनिद्रा से मिलती-जुलती स्थिति में भी आंखें बंद करके चुपचाप पड़े रहना चाहिए। कोई विचार मस्तिष्क में चक्कर काटते रहने या ग्रंथि बनने पर भी अनिद्रा जैसी स्थिति बन जाती है। ऐसी दशा में विचारों को विचारों से काटना चाहिए। जो विचार दिमाग में घूम रहा हो, उससे भिन्न प्रकार का विचार मस्तिष्क में लाना चाहिए। शरीर के अंग प्रत्यंगों को शिथिल करने का अभ्यास “शवासन”या शिथिलीकरण कहलाता है। अभ्यास किया जाए और यदि रात की नींद में विक्षेप पड़ रहा हो तो अंग प्रत्यंगों को ढीला मृतक तुल्य शिथिल करने के अभ्यास का प्रयोग किया जाए। अपनी ओर से शक्ति भर प्रयत्न यही किया जाए कि सोने का समय जागने में न बिते। स्मरण रहे, दिनभर की शारीरिक और मानसिक थकान दूर करने के लिए नींद से बढ़कर और कोई उपचार नहीं है। उसमें जो भी विक्षेप पड़ते हों, उन्हें दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए।
स्वास्थ्य को बिगाड़ने में एक कारण गंदगी है। शरीर, वस्त्र, घर, उपकरण, आहार आदि के माध्यम से विषाणु शरीर में प्रवेश करते हैं और वह अपना विस्तार करके ऐसी स्थिति पैदा करते हैं जिससे मनुष्य अस्वस्थ रहने लगता है। पानी के बर्तन साफ-सुथरे रहने चाहिए। टंकी या नल से पानी निकालने के बाद उसे कई परत वाले कपड़े से छान लेना चाहिए। भोजन की सामग्री एवं पकाने के बर्तनों की सफाई भी आवश्यक है। छोटे-छोटे कीड़े मकोड़े खाद्य सामग्री में घुस जाते हैं। बारीकी से ना देखा जाए तो वह दिखते भी नहीं है। यह सभी स्वास्थ्य के शत्रु हैं। इसलिए इनसे बचने, इन्हें हटाने का हर संभव उपाय करना चाहिए।
जिन स्थानों पर हवा का, धूप का आवागमन नहीं होता। ऐसे सीलन भरे स्थानों में भी रोग के कीटाणु पलते हैं। रहने के घर यथासंभव ऐसे होने चाहिए, जिनमें धूप और हवा का आवागमन होता रहे। मजबूरी हो तो ऐसे घरों को आग जलाकर गरम कर लेना चाहिए। कपड़े ढीले पहने जायॅं, कम पहने जाए ताकि शरीर से धूप और हवा का संपर्क बना रहे। बिस्तर आदि जो कपड़े रोज नहीं धोए जा सकते, उन्हें कड़ी धूप में कई घंटे नित्य सुखाना चाहिए। रात को मुंह खोल कर सोना चाहिए। मुंह ढक कर सोने की आदत बुरी है। इससे सांस की गंदी हवा ही बार-बार भीतर जाती है और जहरीले तत्व शरीर में बढ़ाती है।
स्वास्थ्य रक्षक का पांचवा आधार है विचार तंत्र। मस्तिष्क पर कुविचारों का अनावश्यक तनाव न पड़ने देना चाहिए। चिंता, क्रोध, आवेश, भय, निराशा आदि के हिन विचार जिस मस्तिष्क में जमा होते रहेंगे वह शरीर निरोग न रह सकेगा। मस्तिष्क शरीर तंत्र का संचालक है, हृदय रक्त संचार करता है, फेफड़े शुद्ध वायु को शरीर में पहुंचाते हैं। ठीक इसी प्रकार मस्तिष्क ज्ञान तंतुओं द्वारा समस्त अंग अवयवों पर शासन करता है। यदि मस्तिष्क उत्तेजित आवेश ग्रस्त रहेगा तो सारे शरीर पर इसका बुरा असर पड़ेगा।
अनैतिक विचारों के संबंध में भी यही बात है। ईर्ष्या, डाह, चोरी, बेईमानी, प्रतिशोध, आदि से दूसरों को हानि पहुंचाने वाले विचार भी ऐसे ही हैं उनकी प्रतिक्रिया जीवन संतुलन पर तो बुरी होती ही है साथ ही स्वास्थ्य को भी बिगाड़ती है। अनैतिक अथवा आवेश ग्रस्त विचार मस्तिष्क में भरे रहकर कोई व्यक्ति शरीर को स्वस्थ नहीं रख सकता। उत्तेजक विचारों में कामुकता प्रधान है। कितने ही लोग वासनात्मक कुकल्पनाएं करते रहते हैं। काम सेवन का अवसर न मिलने पर भी जिस तिस के साथ कामसेवन-विलास की कल्पना करते रहते हैं। यह भी एक उत्तेजनात्मक प्रक्रिया है। इससे तनाव बढ़ता है और मानसिक शक्तियों का बेतरह क्षरण होता है।
जिन्हें स्वस्थ रहना हो, उन्हें मस्ती भरे दिन गुजारने चाहिए, हंसते मुस्कुराते रहना चाहिए। प्रसन्न रहने की आदत न केवल स्वभाव को लोकप्रिय बनाती है, वरन् स्वास्थ्य को भी स्थिर-सुदृढ़ बनाए रहती है। मिलजुल कर रहने, मिल बांट कर खाने, हंसती-हंसाती जिंदगी गुजारने से मनुष्य देखने में आकर्षक सुंदर लगता है, लोकप्रिय बनता है। इतना ही नहीं, उसका स्वास्थ्य भी परिपुष्ट, निरोग एवं दीर्घ जीवी बना रहता है।
स्वास्थ्य को अच्छा बनाए रखने के लिए उपयुक्त 5 नियमों को यदि सतर्कता पूर्वक पालन किया जाए तो शरीर ऐसा बना रहेगा जिस पर दुर्बलता और रुग्णता का आक्रमण ही न हो सके। कदाचित कोई व्यक्ति किसी कारण रुग्णता की चपेट में भी आ जाए तो इन 5 नियमों का पालन करने पर अपने खोए हुए स्वास्थ्य को वापस लौटा सकेगा।
यह प्रकृति के नियमों का परिपालन है। जो जीव-जंतु मनुष्य के शिकंजे में नहीं बधे हैं, जिन्हें स्वेच्छापूर्वक जीवन जीने का अवसर मिलता है, उनमें से कदाचित ही कोई बीमार पड़ता है। मौत, बुढ़ापा तो स्वभाविक है पर बीमारी और अस्वाभाविक है। यह तो प्रकृति के अनुशासन की अवज्ञा करने का दंड है। दंड का भाजन उसी को बनना पड़ेगा जो करेगा। खुली हवा में प्राकृतिक जीवन जीने वाले पशु-पक्षी तक सदा निरोग रहते हैं। फिर बुद्धिमान कहे जाने वाले मनुष्य को आए दिन बीमारी का दंड भुगतना पड़े इसका कारण जीवन के सरल नियमों की अवज्ञा करना भर है। यदि वह सही रास्ते पर चले तो निश्चय ही निरोग और दीर्घ जीवी बनारस वह सब कुछ कर सकता है जिसके लिए इस धरती पर वह आया है।
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दोस्तों ! उम्मीद है उपर्युक्त ”पहला सुख निरोगी काया’ पर निबन्ध (Pehla Sukh Nirogi Kaya Essay In Hindi) छोटे और बड़े सभी लोगों के लिए उपयोगी साबित होगा। गर आपको हमारा यह पोस्ट अच्छा लगा हो तो इसमें निरंतरता बनाये रखने में आप का सहयोग एवं उत्साहवर्धन अत्यंत आवश्यक है। आशा है कि आप हमारे इस प्रयास में सहयोगी होंगे साथ ही अपनी प्रतिक्रियाओं और सुझाओं से हमें अवगत अवश्य करायेंगे ताकि आपके बहुमूल्य सुझाओं के आधार पर इस निबंध को और अधिक सारगर्भित और उपयोगी बनाया जा सके।
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