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गणतंत्र दिवस पर छात्र, शिक्षक, मुख्य अतिथि व प्रधानाचार्य दे सकते हैं ऐसे भाषण – Best Speech On Republic Day In Hindi

गणतंत्र दिवस पर क्रमशः छात्र, शिक्षक, मुख्य अतिथि एवं प्रधानाचार्य का शानदार भाषण…

Republic Day Speech In Hindi - Bhashan
Republic Day Speech In Hindi – Bhashan

Best Speech on Republic Day In Hindi – वंदे मातरम ! इस सभागार में उपस्थित सभी गणमान्य अथिति, अध्यापकों और प्यारे साथियों को मेरा नमस्कार। जैसा कि आप सबको ज्ञात है, आज हम यहाँ स्वतंत्र भारत के 74वें गणतंत्र दिवस के उपलक्ष्य में राष्ट्र को नमन करने के लिए एकत्रित हुए हैं।

सर्वविदित है कि देश के लिए प्राणों की बाजी लगाने वाले देशभक्तों के अथक प्रयासों और बलिदानों से भारत देश 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्र हुआ। इसी दिन भारतीयों ने अंग्रेजों की लम्बी दासता के बाद मुक्ति पायी, और स्वतंत्र वातावरण में साँस ली। लेकिन आजादी मिलने के बावजूद भी हम पूर्ण रूप से स्वतंत्र न थे क्योंकि हमारा कोई अपना संविधान न था। सारे नियम एवं कानून अंग्रेजों के ही थे।

हालांकि अपना संविधान बनाना कोई आसान और सुगम काम नहीं था। संविधान के प्रत्येक प्रावधान को इस आधार पर उचित सिद्ध करना था कि वह भारत की समस्याओं और आशाओं के अनुरूप है। यह तो भारत का सौभाग्य था कि 29 अगस्त 1947 को, आम्बेडकर को स्वतंत्र भारत के नए संविधान की रचना के लिए बनी संविधान की मसौदा समिति के अध्यक्ष पद पर नियुक्त किया गया। 

इस प्रकार भीमराव अंबेडकर जैसे एक सुयोग्य व्यक्ति के नेतृत्व में भारत के संविधान निर्माण की प्रक्रिया कुल 2 वर्ष 11 मास तथा 18 दिन में पूरी कर ली गई, और सन 1950 की 26 जनवरी को देश में लागू कर दिया गया। बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर में समाज के सभी वर्गों को एक साथ लेकर चलने की विलक्षण क्षमता थी। इसलिए इनकी अध्यक्षता में बने संविधान को भारी वैधता मिली। डॉक्टर भीमराव अंबेडकर का अभिवादन करते हुए स्वयं संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ राजेंद्र प्रसाद ने कहा था कि –

जैसा मैंने महसूस किया, शायद ही किसी ने किया हो। प्रारूप समिति के सदस्य विशेषकर इसके सभापति डॉ आंबेडकर ने अस्वस्थ होने के बावजूद कितने उत्साह और लगन के साथ कार्य किया। डॉक्टर अंबेडकर को प्रारूप समिति में शामिल करने और इसके सभापति बनाने के निर्णय से बेहतर और कोई निर्णय नहीं हो सकता था। उन्होंने न केवल अपने चयन को न्यायोचित किया बल्कि उन्होंने जो कार्य किया उसे भी गरिमा प्रदान की। हालांकि इस संबंध में समिति के अन्य सदस्यों में परस्पर भेद करना पक्षपातपूर्ण होगा। मैं जानता हूं कि उन सभी ने उतने ही उत्साह और लगन के साथ कार्य किया, जितना कि उसके सभापति ने। वे सभी देश की कृतज्ञता के पात्र हैं।

आपको बता दे कि भारतीय बहुज्ञ विधिवेत्ता, अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ और समाज सुधारक डॉक्टर भीमराव अंबेडकर एक बुद्धिमान संविधान विशेषज्ञ थे, उन्होंने लगभग 60 देशों के संविधानों का अध्ययन किया था। यह उनकी बुद्धिमत्ता और दूर दृष्टि का प्रमाण है कि वे देश को एक ऐसा संविधान दे सके जिसमें जनता द्वारा मान्य आधारभूत मूल्यों और सर्वोच्च आकांक्षाओं को स्थान दिया गया था। यही वह कारण है जिसकी वजह से इतनी जटिलता से बनाया संविधान ना केवल अस्तित्व में है, बल्कि एक जीवंत सच्चाई भी है जबकि दुनिया के अन्य अनेक संविधान काग़जी पोथो में ही दब कर रह गए। ये एक बड़ी वजह है कि भीमराव आम्बेडकर को “भारत के संविधान का पिता” के रूप में मान्यता प्राप्त है।

वास्तव में भीमराव अंबेडकर उस सदी में आज के युवा जैसी नई सोच के व्यक्ति थे। उन्होंने देश की अखंडता और एकता को सुनिश्चित किया। यह अंबेडकर जी ही थे जिन्होंने आजादी के बाद भारतीय संविधान का निर्माण कर देश को एकता के सूत्र में बांध दिया। उनका साहसिक नेतृत्व आज भी देश के लिए प्रेरणा का स्रोत है। वे देश को हमेशा एकता का संदेश देते रहे।

भारत कई सालों तक गुलाम रहा, तो इसकी एक वजह यह थी की हमारे बीच एकता की भावना नहीं थी। और इसी का फायदा उठाकर विदेशी ताकतें वर्षों तक हमारे ऊपर राज करते रहे। देश का विकास, शांति, समृद्धि तभी संभव है जब देश के लोगों के बीच मिलजुल कर रहने की भावना हो। प्राचीन भारत में ऋषियों ने इसके लिए एक नारा भी दिया था, “वसुधैव कुटुम्बकम्” का अर्थात सभी को एक कुटुंब के रूप में रहना चाहिए। अत: हम सब को मिल बाटकर खाना चाहिए और हिल-मिलकर रहना चाहिए और यह तभी संभव होगा जब इस बात को जन जन समझेगा।

इस दिन को मनाने का उद्देश्य यही है कि मनुष्य चैन से रहें और दूसरों को भी चैन से रहने दे। स्वयं खाए, प्रगति करे तथा दूसरों को भी खाने दे तथा प्रगति करने दे । व्यक्ति हँसे तथा दूसरों को भी हँसने दे। वह स्वयं खिले और दूसरों को भी खिलने दे। व्यक्ति जिए और दूसरों को भी जीने दे। यद्यपि यही वह सिद्धांत है जिसे गणतंत्र कहते है। अंततः यही पर अपनी बात को समाप्त करते हुए मैं इस पावन अवसर पर हमारे बीच उपस्थित शिक्षामंत्री महोदय जी का हार्दिक अभिनंदन करता हूँ।

इस कार्यक्रम को आगे बढ़ाते हुए विद्यालय के प्रधानाचार्य महोदय से प्रार्थना है कि वे आदरणीय शिक्षामंत्री महोदय को सम्मानपूर्वक मंच पर ले आएँ। आज के मुख्य अतिथि और नगर के प्रख्यात उद्योगपति श्री सुरेश जी से निवेदन है कि वे भी मंच पर पधारने की कृपा करें। देश के पिछड़े वर्ग के हजारों परिवारों को अपनी अनथक साधना से नया जीवन प्रदान करने वाली, जानी-पहचानी समाज सेविका श्रीमती शकुन्तला जी आज के कार्यक्रम की विशिष्ठ अतिथि हैं। उनसे भी प्रार्थना है कि कृपया मंच पर पधारें। हम लोग जोरदार तालियों से उनका स्वागत करते हैं।

आदरणीय शिक्षामंत्री जी से निवेदन है कि वे अपने कर कमलों से ध्वजारोहण करें। अब हम सब राष्ट्रध्वज के सम्मान में अपने-अपने स्थान पर खड़े हो जाएँगे और राष्ट्रगान पूरा हो जाने के बाद आसन ग्रहण करेंगे। 

वाह ! एकसाथ मिलकर सबने बहुत सुंदर गाया। ऐसे राष्ट्रीय पर्व सचमुच हमें याद दिलाते हैं कि हम सब एक है। देश में नदियाँ अनेकों, पर उनमें पानी एक है। जाति, भाषा भले अलग हो, पर सबकी वाणी एक है। वह वाणी है देश-सेवा के संकल्प की, सबके प्रति प्यार और सत्कार की। इसका जीवंत और प्रत्यक्ष उदाहरण है। हमारे बीच विराजमान श्रीमती शकुन्तला जी जो समाज के उद्यान को बड़ी लगन से सींचकर जन-जन में खुशियाँ बाँट रही हैं। उनसे विनम्र अनुरोध है की इस अवसर पर देश के नौनिहालों को अपने अनुभवों का स्पर्श प्रदानकर उन्हें प्रोत्साहित और प्रेरित करें ! श्रीमती शकुन्तला जी !

साथियों ! भारत की आजादी को 73 वर्ष बीतने के बाद अब 74 वां गणतंत्र दिवस भी आ गया। बड़ी तेजी से दिन बीते हैं। हमारा हिंदुस्तान बहुत दिनों से आजादी की प्रतीक्षा कर रहा था। लगता था, शहीदों का खून रंग लाएगा, गांधी के सत्याग्रह- जेल जाने वाली जुझारूओं का साहस एक नया हिंदुस्तान हमें देगा।

अंततः हम आजाद हो गए। आजादी की सांस में जीते-जीते हमें इतने दिन हो गए कि अब लगता ही नहीं कि हम कभी आक्रांत, भयभीत कर देने वाले गोरों के गुलाम थे। तब वह समय था कि गांव में मात्र एक सिपाही भी गोरों की सरकार का आ जाता था, दहशत छा जाती थी एवं कमाल है कि उसे किसी सहायक की जरूरत पड़े। जनसंख्या भी इतनी नहीं थी। लोग श्रम करते थे, कृषि जिंदा थी, पानी खूब बरसता था, शहरों के जंगल तब बढ़े नहीं थे, हमारी क्षेत्रीय भाषाएं जिंदा थीं। जुल्म सहकर भी अपनी क्षेत्रीय भाषा में लोग शाम को चौपाल में गीत गाते थे।

1930 का अंत आते आते उसमें बापू का रंग जुड़ता गया और कहीं-कहीं भक्ति के साथ बगावत के स्वर जुड़ने लगे। गांधी का सविनय अवज्ञा आंदोलन ऐसी दहशत नहीं फैलाता था, जैसा आज एक नंदीग्राम फैलाता है। सभी कुछ चलता रहा व क्रमशः आजादी आती गई।

हम आज आजाद हैं, पर क्या वह उल्लास हममें हैं, जो आजादी के पूर्व था? आजादी पर ढेरों लोगों से संस्मरणों को सुन सुनकर लगता है कि आजादी के पूर्व का जमाना आज की तुलना में बेहतर था। बड़े बुजुर्ग, जिनकी पैदाइश बीसवें या तीसवें दशक की है, कहते हैं – तब अनाज सस्ता था। आपस में प्रेम खूब था। मारामारी ऐसी नहीं थी, जैसी कि आज है। जीवन शैली सीधी-सादी थी। भ्रष्टाचार तब भी था, पर ऐसा नहीं, जैसा आज सारा तंत्र आकंठ डूबा दिखाई देता है। फाइलें तब भी धीरे-धीरे खिसकती थीं, पर काम हो जाते थे। पर्व त्योहारों में, पारंपरिक मिलन संयोगों में गरमाहट थी, ऐसी कि परस्पर सब मिलकर व्यवस्था बनाते थे। आज की चकाचौंध उनमें भले ही नहीं थी, पर पारिवारिकता का माहौल था। आज बाजार ने सब जगह प्रवेश कर लिया और परिवार को समाप्त कर दिया है। तब का प्रेम, स्नेह, सौजन्य एक-दूसरे के लिए जीना अब नहीं है ।

आज महानगरों-कसबों-शहरों की बात छोड़ें तो सारे देश में एक अजीब सी स्थिति दिखाई पड़ रही है। एक सांस्कृतिक आक्रमण, एक बाजारवादी, उपभोक्तावादी मानसिकता का घर-घर में प्रवेश, संचार के साधनों से उन्मुक्त होता जनजीवन, आंग्ल भाषा में परस्पर संवाद, घटते कपड़े उघड़ता बदन-लगता है कि पिछले 25 वर्षों में बहुत कुछ बदल गया। आपको अंग्रेजी नहीं आती, ढंग के कपड़े नहीं पहनते, आधुनिक वेशभूषा आपको पहनना नहीं आती, सामाजिक सरोकारों में आप नाच गा नहीं सकते, आपने विदेश यात्राएं नहीं कीं तो धिक्कार आप पर! क्यों जी रहे हैं आप ? इस हिंदुस्तान में आपके लिए कोई जगह नहीं है। क्या? आप पेप्सी नहीं पीते, कोक या हार्ड ड्रिंक्स में थोड़ी व्हिस्की आदि नहीं पीते तो फिर आप क्या हैसियत रखते हैं! अपने बेटे या बेटी की शादी में आपने बैंक्वेट हॉल बुक कराया या नहीं ? अरे भाई! कर्ज ले लो और शादी वही कराओ। किसी आश्रम में आदर्श विवाह कर रहे हैं! कैसे भारतीय हैं आप! 21वीं सदी में या पिछड़ापन! यह सब आपको सुनने को मिल सकता है।

आज की संस्कृति-सभ्यता सब सिमटकर बाजारवाद उपभोक्तावाद के चारों ओर आ गई है। जोर-जोर से ढोल पीट पीटकर, नगाड़े बजाकर कहां जा रहा है कि सेंसेक्स बीसहजारी हो गया है, मल्टीप्लेक्स मॉल में जाकर खरीदारी कीजिए, सस्ती सेल का लाभ लीजिए और घर को सामान से भर लीजिए; भले ही अभी उसकी जरूरत ना हो।

कहा जा रहा है कि औसत आदमी की क्रय करने की क्षमता (बाइंग कैपेसिटी) बढ़ गई है। वह अब जो चाहे, खरीद सकता है; भले ही उधार लेना पड़े। नौकरियां बहुत बड़ी संख्या में उपलब्ध हैं। ढेर सारा लोन लीजिए। अपने बच्चे को कुकुरमुत्तों की तरह खुल गए घटिया संस्थानों में पढ़ाइए। मान्यता की चिंता ना करें। आप पैसा देंगे (लाखों में) तो आपका लाडला वहां पढ़ेगा – उसी डोनेशन के पैसे से मान्यता भी खरीद ली जाएगी। आपका बेटा मैनेजर, डॉक्टर या इंजीनियर बन जाएगा। क्या? शिक्षक बनाना चाहते हैं किसी संस्कृतिप्रधान (यथा – देव संस्कृति विश्वविद्यालय) तंत्र में या गुरुकुल जैसे तंत्र में पढ़ाना चाहते हैं। क्या आपका सिर फिर गया है? पढ़ाइए, प्रबंधक बनाइए। सिविल सर्विसेज में बिठाए। ढेरों बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने भारत में आ गई हैं, उनमें नौकरियां मिलेंगी। आप तो किसी तरह उसे इंजीनियर, आईटी प्रोफेशनल बना दीजिए, फिर लाखों में दहेज लीजिए। मौका मिले तो विदेश भेज दीजिए। बेटा बहू दोनों कमाएंगे। यह सलाह आपको आम स्थानों पर भी मिल जाएगी।

इतना ही नहीं सीमित साधनों में जीना एक पिछड़ापन माना जाने लगा है एवं मार्गदर्शक बनना, शिक्षक बनना एक पागलपन। फिर कौन बनाएगा इस राष्ट्र के भावी कर्णधारों को? कौन ढ़ालेगा राधाकृष्णन की तरह अपने विद्यार्थियों को? फिर मजबूरी में बीएड किए हुए और कहीं से इंग्लिश सीखे लोग घटिया स्तर के पब्लिक स्कूलों, कॉन्वेंट स्कूलों में शिक्षा दे रहे होंगे। यह कान्वेंट गांव-गांव में फैल गए हैं, जिनमें बच्चे भेड़ बकरियों की तरह रिक्शे में ढोकर ले जाए जाते हैं, पर सभी के गले में टाई वह पीठ पर कई किलो का बस्ता होता है। भले ही नाक बह रही हो, पढ़ाई जरूरी है। शिक्षा के साथ जितना बलात्कार इस देश में विगत 73 वर्षों में हुआ है, उतना शायद किसी के साथ नहीं हुआ।

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मैकाले कभी पुनर्जन्म ले लें या अपनी आत्मा के रूप में भारत की पवित्र धरती का दर्शन करने आ जाएं तो वे भी आश्चर्यचकित हो जाएंगे कि मैंने तो सोचा भी नहीं था कि भारत इतना बदल जाएगा और वह भी मेरी परिकल्पना के आधार पर अंग्रेजी भाषा को जिंदा रखने के कारण! आज एक शब्द भी पढ़े-लिखे आदमी को हिंदी में बात करने व हिंदी अखबार मांगने पर एक पूर्णतः आधुनिक एयरलाइंस से उतार दिया जाता है। बहाना एयर होस्टेस से दुर्व्यवहार का बना दिया जाता है। यदि आपको अंग्रेजी नहीं आती तो आप अत्यधिक गए बीते हैं, यह मान्यता कूट-कूट कर कुछ वर्षों में भर दी गई है।

इसका परिणाम यह हुआ कि हमारे ही देश में दो हिंदुस्तान बन गए हैं- एक पढ़ा-लिखा आधुनिक फर्राटदार अंग्रेजी बोलने वाला एवं दूसरा मातृभाषा में पढ़ने वाला, हीनता के बोध से ग्रस्त एवं सतत उसी भाव में जिकर शिक्षा को बीच में ही छोड़ देने वाला। यह जो दूसरा हिंदुस्तान है, हमारे लिए एक अभिशाप माना जाने लगा है।

अतः इसका तेजी से अंग्रेजीकरण करने के लिए हमारे पुरोधा नीति निर्माता प्रयास कर रहे हैं। वो उच्च शिक्षा को भी समूल नष्ट करने का खड्यंत्र रच रहे हैं। संस्कृत व संस्कृति की, बड़ी सोची समझी रणनीति के तहत, धीमी हत्या की जा रही है। संस्कृत पिछड़ों की भाषा है वह संस्कृति का अर्थ मात्र नाच गाना होता है; यह प्रचार किया जाता है। सांस्कृतिक कार्यक्रमों द्वारा यही प्रचार किया जाता है कि असली संस्कृति यही है। भले ही यह सारे कार्यक्रम बेहूदगियों से भरे हों, अश्लीलता की सीमा लांग जाते हों पर उनके लिए यही संस्कृति है।

बार-बार सिर ठोकने का मन करता है कि क्या यह वही हिंदुस्तान है, जिसकी हमने कल्पना की थी? आज विश्व एक ग्लोबल ग्राम बन गया है। हमारे देश के लोग जितनी जल्दी-जल्दी कम समय में बाहर की, विदेशों की यात्रा कर आते हैं, उतना पहले नहीं था। यदि बाहर जाते हैं तो वहां की प्रगति का राज सीख कर क्यों नहीं आते? वहां तो जुर्माना हो जाएगा, इसलिए गंदगी इधर-उधर नहीं फेंकते, पर यहां आकर खुलेआम सारी भारत भूमि एक डस्टबिन (कचरे की जगह) है या गुसलखाना है, जहां कहीं भी, कभी भी आप अपनी शंकाओं से निवृत्त हो सकते हैं।

ऐसा क्यों कर बैठते हैं? स्वच्छता का संदेश बाहर से सीख कर क्यों नहीं आते? महंगी गाड़ियों में सफर करते हैं एवं कांच खोलकर केले के छिलके, मूंगफली के छिलके सड़क पर फेंकते रोज देखा जा सकता है। ‘रोडरेज’ इतना बढ़ गया है कि जीवन शैली का तनाव अब गुस्से की तीव्र पराकाष्ठा पर निकलने लगा है। बाहर ट्रैफिक के नियम सीख कर वैसा ही चल कर आते हैं। यहां हाॅर्न का शोर मचाकर दूसरों से आगे निकलने में शान समझते हैं। कोई नही निकलने देता तो गुस्सा करते हैं, मारपीट कर बैठते हैं।

जबकि हमारा देश धार्मिक है, धर्म प्रधान है, पर कभी-कभी लगता है कि कहीं यहां धर्म अफीम तो नहीं बन गया है। जहां देखें, कथाएं चल रही हैं। करवा चौथ, दिवाली, छठ पूजा – सबका बाजारीकरण हो गया है। सभी का सामान – पूजा के किट उपलब्ध हैं। किराए पर पंडित उपलब्ध हैं। आपके पास जेब खाली करने लायक पैसा हो तो अपनी गाढ़ी कमाई खोकर आप आधुनिक जीवन शैली में जीवन कला भी सीख सकते हैं; योग, जो योगा बन गया है, अब मूल अर्थ में नहीं रहा, भी कर सकते हैं; स्पा (SPA) भी जा सकते हैं, जहां एक स्वामी जी आपको ध्यान करना सिखाएंगे अथवा एक कथा के मेजबान बन जाइए। बड़े-बड़े कथावाचकों से भरा पड़ा देश है। क्या मिला इससे देश को- अपने आप से पूछिए?

हमें इस हिंदुस्तान को नए सिरे से बनाना होगा। संस्कृति प्रधान, भारतीयता प्रधान हिंदुस्तान ही हमारा 21वीं सदी का हिंदुस्तान हो – यह नहीं, जो आज दिखाई दे रहा है। इससे पहले कि देर हो जाए, हम अपनी जीवनशैली बदलें- गांव की ओर लौटें उन्हें स्वस्थ बनाएं, शहरों का मोटापा कम करें एवं मैकाले के प्रेत से मुक्त पाकर हिंदी को राष्ट्रभाषा बना दें। क्या हम यह कर सकेंगे? बिल्कुल कर सकेंगे। हमारी इच्छाशक्ति वास्तव में महाशक्तिशाली है, बशर्ते हम इसे जाग्रित करें। धन्यवाद !

वाह! कितना उत्तम विचार है संस्कृति प्रधान भारतीयता प्रधान हिंदुस्तान…

साथियों! राष्ट्रोदय में जहां ज्ञान, सेवा-साधना और शक्ति-उत्साह आवश्यक है वहीं आज के युग में औद्योगिक और आर्थिक विकास भी जरूरी है। हमारे साथ उपस्थित प्रसिद्ध उद्योगपति श्रीमान सुरेश जी से अधिक इस तथ्य को और कौन जान सकता है! उनसे प्रार्थना है कि वह अपने विचारों से देश के भावी निर्माताओं का मार्गदर्शन करें। श्रीमान सुरेश जी!

यहाँ उपस्थित संविधान के प्रति समर्पित सभी भाइयों और बहनों को गणतंत्र दिवस की बहुत-बहुत शुभकामनाएं। प्रत्येक भारतवासियों के लिए गणतन्त्र दिवस महत्वपूर्ण दिन है। यह दिन इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इस दिन को हमारे देश के आत्मगौरव तथा सम्मान से भी जोड़ा जाता है।

प्रसंगवश रवीन्द्रनाथ ठाकुर की एक उक्ति याद आती है, जो उन्होंने अपने देश के पूर्वजों की उपलब्धियों को रेखांकित करते हुए कही थी – “मैं भारत को नमन करता हूं, इसलिए नहीं कि मैं भूगोल की मूर्ति पूजा का पक्षधर हूं, इसलिए भी नहीं कि मुझे इस धरती पर जन्म लेने का अवसर मिला, बल्कि इसलिए कि इस धरती ने अपने महान पुत्रों की दिव्य चेतना से निकले प्राणवंत शब्दों को आंधियों के दौर में भी संभालकर रखा।’

वास्तव में यह भारत के तीन महत्वपूर्ण ऐतिहासिक क्षणों में से एक मूल्यवान समय है। देश के तमाम लोगों ने इसके लिए काफी मेहनत की है तभी हम दुनिया का सबसे बड़ा गणतंत्र बन पाए हैं। हमारा नाम इस भारतभूमि के साथ जुड़ा है। इसका सम्मान करना हर भारतीय नागरिक का फर्ज है।

ऐसे राष्ट्रीय पर्व सचमुच हमें याद दिलाते हैं कि अपने राष्ट्र के प्रति हमारे भी कुछ दायित्व है। हमें सिर्फ अपने निजी उद्देश्य पूर्ति हेतु कार्य नहीं करने चाहिए। उससे बढ़कर भी हमें कुछ करना होगा। कहावत सुनी होगी, अपने लिए जिए तो क्या जिए। अपना पेट तो हर जानवर पाल लेता है। फिर पशु और मानव में फर्क क्या? मानव वहीं है जो दूसरे का उपकार करे। दूसरों की सहायता करें। क्योंकि महान हस्तियों द्वारा दिया गया आज के दिन भारत को नया और अपना संविधान के उद्देश्यों को पूरा करना हमारा कर्तव्य है। जब हमारे जीवन ज्योति को चलाए रखने के लिए देश के बहादुर जवान स्वयं को बाती बनाकर साधना कर सकते हैं तो उस जीवन ज्योति में अपेक्षित तेल की कमी ना होने पाए-यह दायित्व देश के नागरिकों का है। जय हिन्द !

– सच है… स्वतंत्रता का दीपक जलाए रखने के लिए हमारे बहादुर जवान स्वयं को बाती बनाकर साधना कर रहें है। आजादी के इस दिए में अपेक्षित तेल की कमी न होने पाए यह दायित्व हम नागरिकों का है।

– मैं जानता हूं, इस समय आप सभी परम श्रद्धेय शिक्षा मंत्री जी के विचार सुनने को उत्सुक है। उन्होंने शिक्षा को जीवन, समाज और देश के भविष्य के साथ जोड़ने के लिए जो क्रांतिकारी कदम उठाए हैं उनसे हम आप भली-भांति परिचित हैं। आज गणतंत्र के पुनीत अवसर पर हमें उनके प्रेरणादायक विचारों से नई ऊर्जा मिलेगी। उन से विनम्र निवेदन है कि वे अपनी ओजस्वी वाणी से हमें कृतार्थ करें। मंत्री जी ! 

दोस्तों ! मानव संसाधन का विकास हमारी और हमारे देश की पहली जरूरत है और यह केवल शिक्षा और साक्षरता से ही संभव है। शिक्षा और साक्षरता को देश की मानव पूंजी के निर्माण में किए जाने वाले सर्वाधिक महत्वपूर्ण निवेशों में से एक माना जाता है। यह शिक्षा संसाधन यदि विकसित हो जाए तो अन्य संसाधनों का विकास आसानी से किया जा सकता है।

शिक्षा वह उपकरण है जो हमारे बीच के सभी मतभेदों को दूर करता है और हमें एकसाथ आगे बढ़ने में सक्षम बनाता है। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्त करना योग और ध्यान की तरह है क्योंकि इसके लिए एकाग्रता, धैर्य और समर्पण की आवश्यकता होती है। शिक्षा के बिना इंसान और जानवरों में कोई फर्क नहीं है। 

“सबको शिक्षा, अच्छी शिक्षा।” देश के हर नागरिक का सर्वप्रथम अधिकार है। और उन्हें यह अधिकार दिलाने के लिए हमारी सरकार नि:सन्देह अतुलनीय प्रयास कर रही हैं। धन्यवाद !  

– आदरणीय शिक्षा मंत्री महोदय का यह नारा “सबको शिक्षा, अच्छी शिक्षा।” लोकतंत्र की रक्षा और उन्नति के लिए हमें ऐसे ही उद्बोधन मिलते रहें तो हम क्यों न सदा जागरूक बने रहेंगे।

अब आदरणीय प्रधानाचार्य महोदय से निवेदन है कि वह शिक्षा मंत्री महोदय, मुख्य अतिथि तथा विशिष्ट महोदय के प्रति आभार व्यक्त करते हुए, विद्यालय की राष्ट्रीय गतिविधियों से भी अवगत कराएं। श्रीमान प्रधानाचार्य जी।

“सहृदय आभार” महामारी की पीड़ा और संघर्ष की इस घड़ी में भी 74वें गणतंत्र दिवस के अवसर पर आप सभी के अपनत्व, स्नेह, प्रेम भरी शुभकामनाएं, बधाई व आशीर्वाद रूपी संदेशों के लिए हृदयतल की गहराइयों से “आभार” व “धन्यवाद”…

समाज सुधारक और राजनीतिज्ञ बाबा साहेब डॉ भीम राव अम्बेडकर और उच्चतम आदर्शों एवं विचारों से परिपूर्ण डॉ. राजेंद्र प्रसाद उन महान हस्तियों में से एक हैं, जिन्होंने अपनी गतिविधियों के बल से समाज में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन लाया। अनेक जातियों, अनेक परम्पराओं और अनेक विश्वासोंवाले हमारे इस विशाल देश को एक सूत्र में पिरोया। आज का दिवस बाबा साहेब अंबेडकर, डॉ राजेंद्र प्रसाद जैसे दूरअंदेशी महानुभावों को नमन करने का है।

उनके इस प्रयास को तेज करने के उद्देश्य से यहाँ रैली में आधी रोटी खाएंगे-हम सब पढ़ने जाएंगे, हर बच्चे का नारा है-शिक्षा अधिकार हमारा है, शिक्षा ऐसी सीढ़ी है-जिससे चलती पीढ़ी है, पढेंगे और पढ़ाएंगे-उन्नत समाज बनाएंगे के अलावा और भी देशभक्ति गीत आंखों में वैभव के सपने, पग में तूफानों की गति हो, राष्ट्रभक्ति का ज्वार न रुकता, आये जिस-जिस की हिम्मत हो से लोगों को जागरूक करने का प्रयास निरंतर जारी हैं। हम सभी एक भारत एक परिवार ही तो है…! आप सभी का स्नेह, विश्वास एवं आशीर्वाद ऐसे ही बना रहे, कोटिशः धन्यवाद।

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Babita Singh
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