Geeta श्लोक: Srimad Bhagavad Geeta Shlok In Hindi – गीता के श्लोक अर्थ सहित

Srimad Bhagavad Geeta Shlok Arth Sahit – दोस्तों! ये तो सर्वमान्य है कि पद्मनाभ भगवान के मुखकमल से निकली हुई श्रीमद्भगवद्गीता दुनिया का सबसे श्रेष्ठ ग्रंथ है। ये एकमात्र ऐसा ग्रंथ है, जिस पर आदि शंकराचार्य, रामानुज जैसे न जाने कितने आचार्यों, संत महात्माओं, विचारकों, विद्वानों एवं अध्येताओं ने भाष्य लिखे हैं। इसकी व्याख्याएं की है। और इसका तात्पर्य स्पष्ट करने का प्रयास किया है।
बड़ी बिलक्षण बात है कि आज जितनी भी टिकाएं गीता की की गई है संभवतः अन्य किसी ग्रंथ की नहीं की गई है। वैसे तो मूल रूप से गीता संस्कृत भाषा में लिखी हुई है लेकिन इस ग्रंथ का विश्व की लगभग सभी भाषाओं में अनुवाद हुआ है और हर भाषा में कई चिंतकों, विद्वानों और भक्तों ने मीमांसाएं की हैं और अभी भी हो रही है तथा आगे भी होती रहेंगी। क्योंकि इस ग्रंथ में सब देशों, जातियों, पंथों के तमाम मनुष्यों के कल्याण की अलौकिक सामग्री भरी हुई है।
विश्व में हर व्यक्ति इस बात को मानता है कि जीवन के सर्वांगीण विकास के लिए गीता ग्रंथ अद्भुत है। इस अद्भुत ग्रंथ के अट्ठारह छोटे-छोटेअध्यायों में इतना सारा सत्य, इतना सारा ज्ञान और इतने सारे गंभीर और सात्विक विचार भरे हुए हैं कि वे मनुष्य को निम्न से निम्न दशा में से उठाकर देवता के स्थान पर बिठाने की शक्ति रखते हैं।
आश्चर्यजनक है कि महाभारत का अंत होते हुए भी गीता अपने आप में एक ऐसा संपूर्ण ग्रंथ रत्न है, जिसको भारतीय संस्कृति व सनातन धर्म का प्रतिनिधि ग्रंथ माना जाता है। इतना ही नहीं कर्म ही पूजा है का उद्घोष करने वाला इस आध्यात्मिक ग्रंथ गीता के महत्व को समझने तथा उसके सिद्धांतों को अमल में लाने की प्रेरणा से प्रतिवर्ष 30 नवंबर को गीता जयंती समारोह भारत सहित पुरे विश्व में मनाया जाता है।
वाकई गीता का ज्ञान हर युग, हर काल में हर व्यक्ति के लिए मार्गदर्शन देता रहा है। गीतामृत का जो भी पान करता है वह कालजयी बन जाता है। जीवन की किसी भी समस्या का समाधान गीता के श्लोकों में कूट-कूट कर भरा पड़ा है। आवश्यकता उसका मर्म समझने एवं जीवन में उतारने की है। और इसीलिए हमने गीता की कल्याणकारी अवदान और उसकी विश्वमान्य महत्ता को दृष्टि-पथ में रखकर इनके आत्मोद्धारक अमर संदेश को जन जन तक पहुंचाने के उद्देश्य से यहां आपके लिए लाए हैं गीता के कुछ चुनिंदा श्लोक जिन्हें आपको जरूर जाना चाहिए –
गीता Shloka: Srimad Bhagavad Gita Shlok In Hindi – गीता के संस्कृत श्लोक हिंदी अर्थ सहित
महाभारत के युद्ध में जब अर्जुन कुरुक्षेत्र में अपने और पराये के भेद में उलझ जाते है। तब भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को यह उपदेश देते हैं।
“अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः॥2.11॥”
“तुम पंडित पूर्ण वचन कहते हुए उनके लिए शोक कर रहे हो जो शोक करने योग्य नहीं हैं। जो विद्वान होते हैं यह न तो जीवित के लिए न ही मृत के लिए शोक करते हैं।”
“अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः ।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ॥2.18॥”
“अविनाशी, अप्रमेय तथा सास्वत जीव के भौतिक शरीर का अंत अवश्यंभावी है। अतः हे भरतवंशी ! युद्ध करो।”
न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥2.20॥”
“जो सारे शरीर में व्याप्त है उसे ही तुम अविनाशी समझो। उस अव्यय आत्मा को नष्ट करने में कोई भी समर्थन नहीं है। शरीर में होने वाले समस्त विकारों से आत्मा परे है।”
जन्म, अस्तित्व, वृद्धि, विकार, क्षय और नाश ये छ प्रकार के परिर्वतन शरीर में होते हैं जिनके कारण जीव को कष्ट भोगना पड़ता है। एक र्मत्य शरीर के लिये इन समस्त दुख के कारणों का आत्मा के लिये निषेध किया गया है अर्थात् आत्मा इन विकारों से सर्वथा मुक्त है।
तो तुम “क्यों व्यर्थ की चिंता करते हो? किससे व्यर्थ डरते हो? कौन तुम्हें मार सक्ता है? आत्मा न पैदा होती है, न मरती है।”
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥2.23॥”
शरीर के समान आत्मा का जन्म नहीं होता क्योंकि वह तो सर्वदा ही विद्यमान है। तरंगों की उत्पत्ति होती है और उनका नाश होता है परन्तु उनके साथ न तो समुद्र की उत्पत्ति होती है और न ही नाश। जिसका आदि है उसी का अन्त भी होता है। उत्ताल तरंगे ही मृत्यु की अन्तिम श्वांस लेती हैं। सर्वदा विद्यमान आत्मा के जन्म और नाश का प्रश्न ही नहीं उठता।
“अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्यः सर्वगतः स्थानुरचलोऽयं सनातनः॥2.24॥”
क्योंकि “यह आत्मा अच्छेद्य है, यह आत्मा अदाह्या, अक्लेद्य और निःसंदेह अशोष्य है तथा यह आत्मा नित्य, सर्वव्यापि, अचल स्थिर रहने वाला और सनातन है।”
“अव्यक्तोऽयमचिन्तयोऽयमविकार्योऽयमुच्यते।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि॥2.25॥”
“यह आत्मा अव्यक्त है, यह आत्मा अचिन्त्य है और यह आत्मा विकाररहित कहा जाता है। इससे हे अर्जुन ! इस आत्मा को उपर्युक्त प्रकार से जानकर तू शोक करने के योग्य नहीं है अर्थात् तुझे शोक करना उचित नहीं है।”
“हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः॥2.37॥”
“युद्ध में मरकर तुम स्वर्ग प्राप्त करोगे या जीतकर पृथ्वी को भोगोगे; इसलिय, हे कौन्तेय ! युद्ध का निश्चय कर तुम खड़े हो जाओ।।”
“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥2.47॥”
“तेरा कर्म करने में अधिकार है इनके फलो में नही। तू कर्म के फल प्रति असक्त न हो या कर्म न करने के प्रति प्रेरित न हो।”
“कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्तवा धनंजय।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥2.48॥”
“हे धनंजय ! तू आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धिवाला होकर योग में स्थित हुआ कर्तव्यकर्मों को कर, समत्वभाव ही योग कहलाता है।”
“ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात् संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥2.62॥”
“विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उसमें आसक्ति हो जाती है? आसक्ति से इच्छा और इच्छा से क्रोध उत्पन्न होता है।”
“क्रोधाद्भवति संमोह: संमोहात्स्मृतिविभ्रम:।
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥2.63॥”
“क्रोध से मनुष्य की मति मारी जाती है यानी मूढ़ हो जाती है जिससे स्मृति भ्रमित हो जाती है। स्मृति-भ्रम हो जाने से मनुष्य की बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि का नाश हो जाने पर मनुष्य खुद अपना ही का नाश कर बैठता है।”
रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति॥2.64॥”
“परन्तु अपने अधीन किये हुए अन्तःकरणवाला साधक अपने वश में की हुई, राग-द्वेष से रहित इन्द्रियों द्वारा विषयों में विचरण करता हुआ अन्तःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है।”
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् |
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ॥4.6॥”
“यद्यपि मैं अजन्मा हूँ, सभी जीवित संस्थाओं का प्रभु और एक अभेद्य स्वभाव है, फिर भी मैं अपनी दिव्य शक्ति योगमाया के गुण से इस संसार में प्रकट होता हूं।” लेकिन जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं स्वयं को प्रकट करता हूँ।
“यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥4.7॥”
“मैं अवतार लेता हूं। मैं प्रकट होता हूं। जब जब धर्म की हानि होती है, तब तब मैं आता हूं। जब जब अधर्म बढ़ता है तब तब मैं साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूं, सज्जन लोगों की रक्षा के लिए मै आता हूं, दुष्टों के विनाश करने के लिए मैं आता हूं, धर्म की स्थापना के लिए में आता हूं और युग युग में जन्म लेता हूं।”
चीनी का धर्म जिसके कारण से वह चीनी है और जिसके बिना वह चीनी नहीं रहती, उसकी मिठास ही है। उष्णता अग्नि का धर्म है और प्रकाश सूर्य का धर्म है। इसी प्रकार मनुष्य का धर्म है उसके अंदर निहित दिव्यता, आत्मा की उत्कृष्टता। यही बाहर विभिन्न गुणों के रूप में अभिव्यक्त होती है।
प्रेम, ईमानदारी, क्षमा, प्रसन्नता, सज्जनता के रूप में अभिव्यक्त मूलभूत दिव्यता का जब ह्रास होने लगे तथा अत्याचार, झूठ, भ्रष्टाचार, अनैतिकता, छल, कपट, घृणा, जैसी पाशविक प्रवृतियां बढ़ने लगें तो पुनः धर्म की परिचायक सत्प्रवृत्तियों की स्थापना करने हेतु मैं स्वयं को प्रकट करता हूँ।
“परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥4.8॥”
“सज्जनों और साधु की रक्षा करने के लिए और पृथ्वी पर से पाप को नष्ट करने के लिए तथा दुर्जनों और पापियों के विनाश करने के लिए और धर्म की स्थापना के लिए मैं हर युग में बार-बार अवतार लेता हूं और समस्त पृथ्वी वासियों का कल्याण करता हूं।”
“अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः॥4.40॥
“विवेकहीन और श्रद्धारहित संशयात्मा मनुष्य का पतन हो जाता है। ऐसे संशयात्मा मनुष्य के लिये न यह लोक है न परलोक है और न सुख ही है।”
मयाऽध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्।
हेतुनाऽनेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते॥9.10॥”
परिवर्तन संसार का नियम है। जिसे तुम मृत्यु समझते हो, वही तो जीवन है। एक क्षण में तुम करोड़ों के स्वामी बन जाते हो, दूसरे ही क्षण में तुम दरिद्र हो जाते हो। मेरा-तेरा, छोटा-बड़ा, अपना-पराया, मन से मिटा दो, फिर सब तुम्हारा है, तुम सबके हो।
“सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥18.66॥”
“सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो।”
“समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः।
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः॥14.24॥”
“जो धीर मनुष्य सुख-दुःख में सम तथा अपने स्वरूप में स्थित रहता है; जो मिट्टी के ढेले, पत्थर और सोने में सम रहता है जो प्रिय-अप्रिय में तथा अपनी निन्दा-स्तुति में सम रहता है; जो मान-अपमान में तथा मित्र-शत्रु के पक्ष में सम रहता है जो सम्पूर्ण कर्मों के आरम्भ का त्यागी है, वह मनुष्य गुणातीत कहा जाता है।”
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