हमारा राष्ट्रगीत वंदेमातरम् – National Song of India Vande Mataram Lyrics In Hindi

वंदेमातरम् गीत (संक्षिप्त परिचय)
राष्ट्रीय गीत का नाम | वंदेमातरम् |
लेखक | बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय |
धुन निर्माता | यदुनाथ भट्टाचार्य |
पहली बार किसने गाया | भावानंद सन्यासी |
समय अवधि | 65 सेकेंड (1 मिनट और 5 सेकेंड) |
विशेषता | भारत का राष्ट्रगीत |
पहली बार कब गाया गया | 28 दिसंबर 1896 ( भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन में) |
राष्ट्रगीत की उपाधि कब मिली | 15 अगस्त 1947 |
सर्वविदित है कि 7 नवम्बर, सन 1876 ई. में बंगाल के कांतल पाड़ा नाम के गाँव में सुप्रसिद्ध वंदे मातरम् गीत की रचना हुई थी। इस अभूतपूर्व मंत्र के रचयिता सुविख्यात साहित्यकार श्री बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय थे। वे हमारी ऋषि परंपरा की एक तेजस्वी विभूति थे। उन्होंने अनेक ऐतिहासिक और सामाजिक उपन्यासों की रचना की, पर उनका लिखा “आनंदमठ” उपन्यास और उसमें सन्यासियों द्वारा गाए जाने वाला गीत ‘वंदे मातरम्’ भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का प्रमुख जयघोष ही बन गया।
वंदे मातरम् गीत सर्वप्रथम 1882 में आनंदमठ उपन्यास के माध्यम से संस्कृत और बांग्ला मिश्रित भाषा में प्रकाशित हुआ था। तब से इस महामंत्र के प्रभाव से, सारे देश में महाक्रांति का सूत्रपात हुआ तथा यह गीत भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का जयघोष बन गया। देश की बलिवेदी पर अपने प्राणों की आहूति देने वाले अमर शहीदों को तो इस गीत ने अग्निपथ का राही बना दिया। खुदीराम बोस, प्रफुल्ल, कन्हाई, पटेल, मदन लाल धींगरा आदि हजारों क्रांतिकारी इस गीत को गाते गाते फांसी के फंदे पर झूल गए। ऐसी अद्भुत महिमा है, इस राष्ट्रगीत ‘वंदेमातरम्’ की। पूरा राष्ट्रीय गीत कुछ इस प्रकार है।
“वंदे मातरम्, वंदे मातरम्!
सुजलाम्, सुफलाम्, मलयज शीतलाम्,
शस्यश्यामलाम्, मातरम्!
वंदे मातरम्!
शुभ्रज्योत्सनाम् पुलकितयामिनीम्,
फुल्लकुसुमित द्रुमदल शोभिनीम्,
सुहासिनीम् सुमधुर भाषिणीम्,
सुखदाम् वरदाम्, मातरम्!
वंदे मातरम्, वंदे मातरम्॥”
इस गीत को भारत के राष्ट्रगान ‘जन-गण-मन’ के बराबर का ही दर्जा प्राप्त है। और इसके गाने की अवधि लगभग 65 सेकेंड (1 मिनट और 5 सेकेंड) है। इसे पहली बार साल 1896 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सत्र में गाया गया था। 1885 में कांग्रेस की स्थापना हुई थी। 1896 में इसका प्रथम अधिवेशन हुबली में हुआ था। उसमें महाकवि रविंद्र नाथ टैगोर ने इस गीत को अपनी वाणी से स्वर और संगीत दिया था। 1904 में काशी में आयोजित कांग्रेस के अधिवेशन में तत्कालीन कांग्रेस नेता श्री गोपाल कृष्ण गोखले ने इसमें किंचित् परिवर्तन किया। इसमें सप्त कोटि के स्थान पर ‘त्रिंशकोटि’ किया। तब सरला देवी ने इसे गाया था।
देशव्यापी प्रसार
16 अक्टूबर 1904 को बंगाल की शक्ति को कम करने के उद्देश्य से अंग्रेज शासन ने बंग-भंग को अंतिम रूप दिया। उस समय सारे भारत में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध विद्रोह की लहर फैल गई। तब प्रत्येक भारतीय के मुख से ‘वंदेमातरम्’ का जयघोष निकलने लगा। अंग्रेज सरकार ने घबराकर इस जयघोष पर प्रतिबंध लगा दिया, पर जितना प्रतिबंध होता गया, उतना ही इस मंत्र के जयघोष की आवाज ऊँची उठती रही। ‘वंदे मातरम’ का क्रियात्मक रूप ही स्वदेशी और बहिष्कार के प्रतिरोध का अस्त्र बना। श्री सुरेंद्र नाथ बनर्जी ने भारतीयों को आवाहन करते हुए कहा-
“आपकी अंतरतम की भावनाएं पूरी तौर पर, ‘वंदे मातरम्’ के स्पर्श से आलोकित होनी चाहिए।”
बहुव्यापी वंदे मातरम्
श्री विपिन चंद्र पाल ने इस गीत को दक्षिण भारत में पहुंचाया। तमिलनाडु के सुविख्यात कवि सुब्रह्मण्यम् भारती तो इस गीत को सुनकर भाव विभोर हो उठे। उन्होंने भगिनी निवेदिता की प्रेरणा से तीन और राष्ट्रीय गीतों की रचना की- वंदे मातरम्, नयो भारत और भारत हमारा देश।
पंजाबकेशरी लाला लाजपत राय ने उर्दू भाषा में वंदेमातरम् पत्रिका का संपादन किया। मराठी में इसका अनुवाद होकर प्रकाशित हुआ। उत्तरांचल में पंडित हीराराम त्रिपाठी ने कूर्मांचली बोली में इसका अनुवाद कर इसे लोकप्रिय बनाया। स्वतंत्र्य वीर सावरकर ने 1907 में इंग्लैंड की धरती पर स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयंती आयोजित की तथा छात्रों के सीने पर वंदे मातरम का बैज लगाया। यूरोप की धरती पर भारत मां के वीर सपूतों ने वंदे मातरम् को ही सिद्ध मंत्र मानकर स्वतंत्रता की अलख जगाई। इस गीत के प्रभाव का उल्लेख करते हुए महर्षि अरविंद ने उस समय लिखा था-
इस गीत के प्रभाव से संपूर्ण देश, देशभक्ति के धर्म में धर्मान्तरित हो गया था। यह मंत्र भारत में ही नहीं, अपितु सारे विश्व में भी फैल गया था।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
“आनंदमठ” उपन्यास और “वंदेमातरम्” राष्ट्रगीत की एक महान ऐतिहासिक पृष्ठभूमि रही है। वस्तुतः सन 1963 ईसवी से 1800 की अवधि सारे भारत में उथल-पुथल की अवधि थी। मुगल शासन समाप्तप्राय हो गया था। अंग्रेजों की अत्याचार पूर्ण नीति के कारण, बंगाल का किसान दुःखी, शोषित और पीड़ित था। अन्याय की जब पराकाष्ठा हो गई तब पूर्वी भारत में, कृषकों और संन्यासियों ने तत्कालीन ब्रिटिश शासन के विरुद्ध विद्रोह का बिगुल बजा दिया था। कृषक विद्रोह का कारण मूलतः आर्थिक था, पर सन्यासी विद्रोह का कारण भावनात्मक अधिक था।
इसी सन्यासी विद्रोह पर बंकिमचंद्र ने अपने ऐतिहासिक उपन्यास ‘आनंदमठ’ की रचना की है। यह सन्यासी विद्रोह काल्पनिक न होकर एक वास्तविक थी। यह विद्रोह उत्तरी बंगाल में सिलीगुड़ी-जलपाईगुड़ी के निकट एक सन्यासी मठ में प्रारंभ हुआ था। ब्रिटिश सैनिकों के साथ संघर्ष करते समय सन्यासी ‘ऊॅं वंदेमातरम्’ का उदघोष करते थे। अंग्रेज सैनिक और अधिकारी, इस घोष को सुनकर ही घबरा उठते। लाजिमी तौर पर उनका घबराना जायज था क्योंकि बंकिम चन्द्र ने इस गीत के माध्यम से भारत माता की शक्ति को साकार रूप प्रदान किया था। प्रथम चरण की ये दो पत्तियां देखें –
सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम् शस्यश्यामलां मातरम्।
इन पंक्तियों में 4 विशेषणों का प्रयोग किया गया है। पहला विशेषण ‘सुजला’ यहां की गंगा यमुना जैसी पावन नदियों और सरोवरों के निर्मल तथा स्वास्थ्यवर्धक पावन जल की ओर इंगित करता है। ‘सुफला’ से अभिप्राय इस देश की धरती में उत्पन्न होने वाले सुंदर, मधुर तथा पौष्टिक फलों से है। इसके साथ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूपी चार आध्यात्मिक फलों से भी है जिनको प्राप्त करने का विशेषाधिकार भारत भूमि की संन्ततियों को ही है। इसी प्रकार ‘मलयज शीतलाम्’ से कवि का तात्पर्य यहां प्रवाहित होने वाली चंदन गंध से युक्त सुवासित तथा शीतल मंद पवन से है।
मां का भव्य स्वरूप
अगली पंक्तियों में वो कहते हैं कि हमारी यह प्यारी मातृभूमि इसे नाना प्रकार के सुखद वरदान प्रदान करती है। यहां चॉंदनी से चर्चित रात्रियॉं तन-मन में पुलक का संचार करती है। हरित दुर्वा दल से युक्त, हरे-भरे मैदान नाना प्रकार की सुगंधित फूलों से भरपूर, प्राकृतिक सौंदर्य की शोभा बढ़ाने वाले हैं। हमारी इस पावन माता के मुख मंडल पर सदैव मंद हास्य विराजमान रहता है तथा इसकी वाणी से सदैव ही मधुर वचन झड़ते हैं। इन पंक्तियों में कवि ने शब्दों के संयोजन द्वारा अपनी अद्भुत काव्यात्मक प्रतिभा का परिचय दिया है-
शुभ्र ज्योत्सना पुलकित यामिनीम्,
फुल्ल कुसुमित द्रुम दल शोभिनीम्,
सुहासिनीं सुमधुरभाषिणीम्,
सुखदां वरदाम् मातरम्
वंदे मातरम्।
बंकिम जिस कालखंड में रहे, वह घोर निराशा तथा हताशा का था। 1000 वर्ष की निरंतर दासता के कारण सारा देश जर्जर हो गया था। सामान्य जन में स्वाभिमान और आत्मसम्मान की भावना के स्थान पर आत्महीनता की भावना घर करने लगी थी। ऐसे समय में यह आवश्यक था कि देशवासियों में शौर्य और पराक्रम की भावनाएं जागृत की जायॅं। भारत माता को आश्वासन देते हुए कवि उन्हें स्मरण दिला रहे हैं कि- मां, तुम अबला अर्थात निस:हाय नहीं हो। हम तुम्हारी संतान करोड़ों में हैं-
कोटि-कोटि कण्ठ कल-कल निनाद कराले,
सप्त कोटि भुजै: धृत खर कराले, अबला कैनो मां ऐत बले,
बाहुबल धारिणीं, नमामि तारिणीं,
रिपुदलवारिणीं मातरम्।
इन पंक्तियों का भावार्थ यह है कि हे मां, तुम अपने वास्तविक स्वरूप का स्मरण करो। तुम हम करोड़ों भारतवासियों की माता हो। हम निरंतर तुम्हारा जयघोष कर रहे हैं। अस्त्र शस्त्रों से सज्जित करोड़ों भुजाएं निरंतर तुम्हारी रक्षा के लिए सन्नद्ध हैं। तुम अतुलित बल धारण करने वाली हो। क्षणभर में ही शत्रुओं का संहार कर, उन्हें नष्ट करने की अतुल सामर्थ्य तुममें है। फिर भी तुम्हें अबला कहने का दु:स्साहस कौन कर सकता है?
सर्वस्वरूपा माता
इसके बाद की पंक्तियों में कवि ने भारत माता के प्रति उसकी संतानों के हृदय में निहित मनोभावों का वर्णन किया है। यह भारतमाता को संबोधित करते हुए लिखते हैं-
तुमि विद्या, तुमि धर्म
तुमि हृदि, तुमि मर्म
त्वं ही प्राणा: शरीरे
बाहु थे तुमि मां शक्ति
हृदये तुमि मां भक्ति
तोमारई प्रतिमा गड़ि मंदिरे मंदिरे
वंदे मातरम्।
इन पंक्तियों में कवि ने भारत माता को अपना सर्वस्व बताते हुए कहा है- हे मां, तुम ही हमारा ज्ञान-विज्ञान, हमारा हृदय अर्थात हमारी भावना हो। हमारे देश में स्थित प्राणतत्व भी तुम्हीं हो और हमारा शरीर भी तुम ही हो। हमारी कामना है कि हमारा हृदय तुम्हारी ही भक्ति से परिपूर्ण रहे। हमारे देश में जितने भी मंदिर हैं, वहां तुम्हारी ही प्रतिमा, शक्ति के विभिन्न रूपों में विराजमान हैं। ऐसी सर्वव्यापक, सर्वकालीन और सर्वशक्तिमान माता को हम सब बारंबार प्रणाम करते हैं।
सर्वशक्तिस्वरूपा मां
गीत की अगली पंक्तियों में भारत माता को आदिशक्ति महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती का स्वरूप बतलाते हुए कवि लिखते हैं-
त्वं ही दुर्गा दश प्रहरण धारिणी,
कमला कमल दल विहारिणी,
वाणी विद्यादायिनी नमामि त्वां
नमामि कमलां, अमलां, अतुलाम्
सुजलां सुफलां मातरम्।
हे माँ तुम महासरस्वती के रूप में सुकोमल, सुंदर तथा मृदुभाषिणी हो, हमें निरंतर विद्या प्रदान करती रहती हो, महालक्ष्मी के रूप में तुम हमें वैभव और ऐश्वर्य प्रदान कर, हमारा पालन-पोषण करती हो, पर जब-जब भी हम पर विपत्ति आती है तब-तब तुम दशभुजाधारी दुर्गा के रूप में अवतरित होकर उनका संघार करती हो। अभिप्राय है कि सृजन, पालन एवं संहार, इन तीनों शक्तियों से युक्त हमारी यह मातृभूमि हमें संरक्षण प्रदान करती है। इसकी महिमा अतुलनीय और अनुपम है।
मां के रूप का ध्यान
इस राष्ट्रीय गीत के अंत की पत्तियों में पुन: कवि ने श्यामलां, सरलां, सुस्मितां, भूषितां, आती विशेषणों के माध्यम से मातृभूमि की वंदना की –
श्यामलां, सरलां, सुस्मितां, भूषितां, धरिणीं, भरणीं मातरम्।
अर्थात हे मां, धान के हरे-भरे खेतों की प्रचुरता के कारण तुम्हारा वर्ण श्यामल सा प्रतीत होता है। तुम्हारा स्वभाव अत्यंत सरल है, तुम्हारे अधरों पर सदैव अपनी संतानों को अभय प्रदान करने वाली मुस्कराहट विराजमान रहती है। तुम नाना गुण तथा अलंकारों से विभूषित हो। तुम इस धरती के माध्यम से हमें अन्न, जल, वस्त्र प्रदान कर हमारा भरण पोषण करती हो। हम सब अत्यंत श्रद्धा और भक्ति के साथ तुम्हारी वंदना करते हैं।
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प्रिय पाठकों ये आर्टिकल एक छोटी सी कोशिश है आपको राष्ट्रीय गीत से जुड़ीं सटीक जानकारी प्रदान करने की। वास्तव में यह जानकारी बहुत सरल और मीठी भाषा में इसलिए प्रस्तुत की गई ताकि छोटे और बड़े सभी लोगों के लिए उपयोगी सिद्ध हो। गर आपको हमारा यह पोस्ट अच्छा लगा हो तो इसमें निरंतरता बनाये रखने में आप का सहयोग एवं उत्साहवर्धन अत्यंत आवश्यक है।
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Vandemataram