जनमानस की अमूल्य निधि पंडित जवाहरलाल लाल नेहरू का जीवन परिचय

Pandit Jawaharlal Nehru Biography In Hindi – देश में 76 करोड़ नर नारीयों की आंखें आज भी डबडबआई हुई हैं, जब चाहती हैं, तब बरस पड़ती हैं, शोकाकुलहृदय की वेदना जब चाहती है, कराह उठती है। हाथ, पैर, मन और मस्तिष्क शक्तिहीन से प्रतीत होते हैं। हृदय शून्य है और शून्य हृदय की आह अपने हृदय सम्राट के स्मरण में आज भी उत्तरोत्तर भयानकता उत्पन्न करती जा रही है। महलों से लेकर फूंस की झोपड़ियों तक में वही सिसकियां, वही कराहट और वही आह। साधारण व्यक्ति से लेकर महान विचारक तक, वही देश की एक चिंता, अपने हृदय मंदिर के देवता का नाम, उसी जनमानस की अमूल्य निधि के असंख्य गुणों का संकीर्तन और उसके अनंत अभाव के विचार से रुदन और चिख-चित्कार। शत-शत जातियों और उप जातियों में, धर्म और उपधर्मों में विभक्त इस विशाल देश का अब क्या होगा? किसकी भुजाओं में शक्ति है, जो प्रबल झंझावातों और भयानक थपेड़ों से बचाते हुए भारत की नौका की पतवार अपने हाथ में लेकर उसे सुरक्षित तत्पर पहुंचा दे।
असहाय और अनाथ बालक की भांति वह आज परमुखापेक्षी है। उसका दिव्यता प्रकाश पुंज, उसकी अद्वितीय कलानिधि, उसका समर्थ प्रहरी, उसका अमूल्य रत्न जटित मुकुट, विधाता के क्रूर करों ने सदा सदा के लिए छीन लिया। अपने रक्त और श्वेद से अब तक और अनवरत सिंचन में व्यस्त, भारत के हरे भरे, हंसते और मुस्कुराते उद्यान का वह कर्मठ और तपस्वी, माली आज अनंत निद्रा में शयन कर चुका है। वह हिमालय जिसने उत्तर में ही नहीं, पूर्व पश्चिम उत्तर और दक्षिण चारों दिशाओं में भारत के लिए ललकारा, वह कैसे गतिशील हो गया, भारत की जनता को विश्वास नहीं आता । जिसके संकेतों पर असंख्य भारतीयों ने अपनी आत्माहुति दी, क्या उसने भी स्वयं अपनी पूर्णाहुति दे दी? अब क्या होगा?
4 दिन के विश्राम के लिए 23 मई 1964 को भारत के हृदय सम्राट नेहरू, इंदिरा जी के साथ देहरादून गये थे। बड़े आनंद के साथ वे वहां सर्किट हाउस में रहे । अपने पुराने साथी, महाराष्ट्र के भूतपूर्व राज्यपाल श्री प्रकाश जी को अपने यहां बुलाया और स्वयं उनको पहुंचाने उनके घर तक गये, उनके नये बनते हुए कुटीर को देखा, प्रशंसा की और बहुत से प्रश्नों में एक प्रश्न यह भी पूछा कि “आजकल कौन-कौन सी किताबें पढ़ रहे हो?”
26 मई तक छुट्टियां समाप्त हो रही थीं, उस महान कर्मयोगी को अपने कार्य पर आना था, फौजी पोलो ग्राउंण्ड पर उमड़ी हुई जनता ने अपने प्रिय नेता को विदाई दी। नेहरू पहले जब कभी देहरादून सर्किट हाउस में ठहरते थे, चलते समय वहां की विजिटर्स बुक में देहरादून की जनता की खुशहाली और उन्नति के लिए कुछ न कुछ सम्मति लिख आते थे; परंतु अब की बार उन्होंने कोई सम्मति नहीं लिखी… केवल इतना लिखा कि “मैं उन लोगों के प्रति आभार प्रकट करता हूं जिन्होंने मुझे हर प्रकार से आराम पहुंचाने की कोशिश की।” शाम को प्रधानमंत्री दिल्ली आ गये। रात्रि का भोजन किया फिर काम पर जुट गये। रात्रि का तत्कालीन स्वराष्ट्र मंत्री श्री नंदा से भेंट के समय कहा कि “मैंने अपनी समस्त फाइलें और कागज निपटा दिये हैं।”
प्रातः काल प्रधानमंत्री प्रसन्न मुद्रा में उठे, हजामत बनाई और स्नान किया। 6:20 पर उन्हें हमसे छीन कर दूर ले जाने वाला दिल का दौरा पड़ा। इससे पूर्व उन्होंने पीठ में दर्द की शिकायत की थी। तुरंत डॉक्टर बुलाए गये। दिल के दौरे ने प्रधानमंत्री को मूर्छित कर दिया था। जीवन – रक्षा के सभी संभव उपाय किए गए, ऑक्सीजन की व्यवस्था की गई, पर कुछ लाभ न हुआ।
उनकी एकमात्र पुत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपने पिता की प्राण रक्षा के लिए एक बोतल खून भी दिया, उन्होंने कहा- पापा के लिए मुझ से अच्छा खून किसी का नहीं हो सकता, इसलिए मेरा ही खून लिया जाए परंतु राष्ट्र नायक पर विधाता की क्रूर दृष्टि थी, वह तो उसी दिन व्यंग से मुस्कुरा दिया था, जब देहरादून जाने से 5 दिन पूर्व प्रेस कॉन्फ्रेंस में अपने उत्तराधिकारी के संबंध में प्रश्न का उत्तर देते हुए नेहरू ने कहा था “मेरे जीवन का अंत इतनी जल्दी नहीं होगा।”
मूर्छा के तुरंत बाद राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति को सूचना दी गई, केंद्रीय मंत्रियों को सूचना मिली। संसद सदस्य हृदय थामे हुए अपने प्रिय प्रधानमंत्री को देखने के लिए आने लगे। 11:45 बजे उनकी हालत तेजी से बिगड़ने लगी, 1:30 बजे डॉक्टरों ने उनके जीवन की आशा छोड़ दी। 2:00 बजे इस बिखरे हुए देश को एकता के सूत्र में बांधने वाला सूत्रधार, जिसने कहा था – “अगर मेरे बाद कुछ लोग मेरे बारे में सोचें तो मैं चाहूंगा कि यह कहें – वह एक ऐसा आदमी था, जो अपने पूरे दिल और दिमाग से हिंदुस्तानियों से मोहब्बत करता था और हिंदुस्तानी भी उसकी कमियों को भुलाकर उसको बेहद, अजहद मोहब्बत करते थे।”
भारतीयों को असहाय एवं अनाथ बना कर पूर्ण ब्रह्म में विलीन हो गया। कुछ ही क्षण में आकाशवाणी द्वारा यह दुखद समाचार समस्त विश्व में फैल गया। भारत में जिसने भी सुना वह आह भरकर रो पड़ा, टप-टप आंसू टपकने लगे, लोग एक हाथ से अपने सीने दबाते और दूसरे हाथ से आंसू पोंछते हुए आपस में कहते-विश्वास नहीं होता इस खबर पर, क्या आपने भी सुना है? अब क्या होगा इस देश का।
किसान, मजदूर, व्यापारी, नौकर, अध्यापक, वकील, राजे-रईस यहां तक की द्वार-द्वार मांगने वाले भिखारी भी दहाड़ मार कर रो उठे, आंख पोंछते हुए वृद्ध लोग आपस में चर्चा करते – क्या आज वास्तव में सबका प्यारा जवाहर चल बसा और उसकी सांसे जोर से चलने लगतीं। तीव्र वायु की भांति भारत की झोंपड़ी-झोंपड़ी में यह समाचार कुछ ही समय में फैल गया। असीम दुख के कारण जनता विह्वल हो उठी, कारोबार एकदम बिना किसी घोषणा के बंद कर दिए।
भारत का प्रत्येक नगर, प्रत्येक कस्बा और प्रत्येक गांव शोकाकुल था। समस्त भारत पर काल की कालिमापूर्ण छाया छायी हुई थी। सूर्य लज्जा, ग्लानि और दुख से आकाश में छिपा हुआ था। भूकंप आया, धरती हिली और भयानक तूफान, मनो प्रकृति भी अपनी असहाय वेदना प्रकट कर रही हो।
वह दिल्ली, जिसमें जवाहर एक दिन दूल्हा बनकर आए थे, आज अपने प्यारे जवाहर के अंतिम दर्शनों के लिए तीनमूर्ति स्थित प्रधानमंत्री निवास की ओर उमड़ चली। सड़कें भरी हुई चल रही थीं पर शोकाकुल, मौन और आंखों में आंसू संजोये। घरों में स्त्रियां, बच्चे, वृद्धि सभी शोकग्रस्त थे। भारत के लाखों घरों में शाम को चूल्हे तक न जले, लोगों ने भोजन छोड़ दिया।
प्रधानमंत्री भवन के बाहर लाखों लोग इस प्रतीक्षा में खड़े थे कि राष्ट्र के देवता के अंतिम दर्शन हो जायें। चढ़ाने के लिए किसी के हाथ में फूल थे, तू किसी के हाथ में सूत की माला, किसी के हाथों में चंदन था तो कोई केवल हाथ जोड़े आह भर रहा था।
हजारों लोग महात्मा गांधी का प्रिय भजन ‘रघुपति राघव राजा राम’ गा रहे थे। भवन के भीतर गीता, रामायण आदि धार्मिक ग्रंथों का पाठ हो रहा था। वेदपाठी ऋचाओं का उच्चारण कर रहे थे । समस्त देश और समस्त विश्व के राष्ट्रीय ध्वज झुका दिए गए थे।
संध्या का अंधकार बढ़ता जा रहा था, उसी के साथ साथ शोक की गहनता भी बढ़ती जा रही थी, पेड़ों के पत्ते गिर रहे थे और आकाश से तारे। आंसू और आंधी ने जन-जन की नेत्र गति अवरुद्ध कर दी थी। एक अजीब भयानक वातावरण देश पर छाया हुआ था। क्यों ना छाता, आज एक महान दिव्य आत्मा जो यहां से चल बसी थी।
27 मई 1964 की संध्या के 8:00 बजे से लेकर 28 मई के मध्यान 1:00 बजे तक भारत के करोड़ों व्यक्तियों ने दूर-दूर से दिल्ली आकर अपने प्रिय नेता के दर्शन किए, उन्हें अंतिम श्रद्धांजलि अर्पित की। प्यारे जवाहर का देहावसान यद्यपि उनके निवास की प्रथम मंजिल के उनके शयनकक्ष में हुआ था, परंतु उमड़ी हुई जनता की आकांक्षा पूर्ति के लिए उनका शव तिरंगे राष्ट्रीय ध्वज में लपेटकर उनकी कोठी के दरवाजे पर विराजमान किया गया था। उनके शव पर संसार भर के राष्ट्राध्यक्षों की ओर से फूल चढ़ाए गये।
शव यात्रा में सम्मिलित होने के लिए ब्रिटेन के प्रधानमंत्री सर एलिक डगलस ह्यूम, श्रीलंका की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमति भंडारनायके, रूस के प्रथम उप प्रधानमंत्री श्री अलेक्सी कोसीगिन, ईरान के स्वराष्ट्र मंत्री, नेपाल के मंत्री परिषद के अध्यक्ष डॉक्टर तुलसी गिरी, फ्रांस की राज्य वित्त मंत्री श्री लुई, यूगोस्लाविया के प्रधानमंत्री श्री सम्बोलिख , ब्रिटिश महारानी के प्रतिनिधि लॉर्ड माउंटबेटन, पाकिस्तान के पर-राष्ट्र मंत्री श्री भुट्टो, अमेरिका के विदेशमंत्री श्री डीन रस्क आदि अनेक राष्ट्रों के प्रतिनिधि आए हुए थे।
त्रिमूर्ति के प्रधानमंत्री निवास स्थान से शव-यात्रा सवा बजे प्रारंभ हुई। लाखों व्याकुल नर नारियों की भीड़ से होता हुआ शव-यात्रा की जुलूस 6 मील लंबे मार्ग को तय करके दाह-संस्कार के लिए नियत स्थान पर ठीक 4:15 बजे पहुंचा। श्री नेहरू का तिरंगे झंडे से ढका हुआ शरीर गेंदा, गुलाब और मोतिया के रंग बिरंगे फूलों से लदी तोप गाड़ी पर था। तोपगाड़ी को तीनों सेनाओं के 8 सैनिक खींच रहे थे। अर्थी के पीछे राष्ट्रपति के अंगरक्षक, तीनों सेनाओं के अध्यक्ष, इसके बाद नेहरू परिवार के शोक संतप्त सदस्य तथा नेतागण थे।
जुलूस का नेतृत्व दिल्ली और राजस्थान के क्षेत्रीय सेनापति श्री भगवती सिंह ने किया। श्री नेहरू का मुख अंतिम दर्शनों के लिए खुला हुआ था। ठीक 4:15 बजे अंतिम यात्रा शांति घाट पहुंची। यह स्थान यमुना तट पर राजघाट से 300 गज उत्तर में है। राजघाट पर महात्मा गांधी की समाधि है।
शांति घाट पर दश मन चंदन की लकड़ी से चिता बनाई गई थी, 35 सेर शुद्ध घी तथा सामग्री का प्रबंध था। 4:35 पर प्रधानमंत्री का शव चिता पर रख दिया गया, असंख्य जनता चित्कार कर उठी, सैकड़ों मूर्छित हुए और कई मर गए। 4:37 पर तीनों सेनाध्यक्षों ने पूरे सम्मान के साथ राष्ट्रध्वज हटा लिया, मंत्रोच्चारण के साथ शव पर गंगा-जल छिड़का गया और श्री नेहरू के दूसरे दौहित्र श्री संजय ने पुरोहितों के मंत्र उच्चारण के साथ कपूर जलाकर चिता प्रज्ज्वलित कर दी। अग्नि धान्य धांय कर जलने लगी और लोग जवाहरलाल नेहरू अमर हो; चाचा नेहरू जिंदाबाद के नारे लगाकर फूट-फूटकर रोते रहे।
श्री नेहरू की अस्थियां, भारत के समस्त प्रांतों को अपने यहां की नदियों में प्रवाहित करने के लिए जिससे कि समस्त देश की जनता अपने प्रिय नेता को अपनी अंतिम श्रद्धांजलि समर्पित कर सकें, प्रदान की गई। समस्त मुख्यमंत्रियों ने अपने-अपने प्रांतों में पूर्ण सैनिक सम्मान के साथ, भाव और आंसू भरे लाखों जनसमूह के बीच, अपने पंडित नेहरू की अस्थियों और पवित्र भस्म को विसर्जित किया।
अस्थि- विसर्जन कार्यक्रम से पूर्व, प्रधानमंत्री की अस्थियों का एक कलश उनके निवास स्थान पर अशोक वृक्ष के नीचे 30 मई से 7 जून तक उनके प्रिय सोफे पर रखा रहा। प्रातः से संध्या तक श्रद्धालु जनता का तांता लगा रहता, लोग आते और पंडित जी को श्रद्धा सहित अंतिम प्रणाम करते और मौन हो चले जाते।
यह वही वृक्ष और पंडित जी का प्रिय सोफा था, जिसके नीचे बैठकर विश्व का यह महान राजनीतिज्ञ दार्शनिक देश-विदेश की गहनतम समस्याओं पर एकांत में विचार किया करता था। अस्थि-विसर्जन का मुख्य संस्कार पंडित नेहरू की इच्छानुसार इलाहाबाद में गंगा- यमुना और सरस्वती के पवित्र संगम पर हुआ।
7 जून को नई दिल्ली से एक स्पेशल ट्रेन द्वारा यह अस्थियां प्रयाग ले जायी गई। यह ट्रेन विशेष रुप से फूलों से सजाई गईं थी, अस्थि कलश को रखने का विशेष प्रबंध था जिससे प्रत्येक स्टेशन पर दर्शनों के लिए उत्सुक जनता सरलता से अपनी श्रद्धांजलि भेंट कर सके।
प्रातः 6:25 पर अस्थि कलश लेकर तोपगाड़ी प्रधानमंत्री के निवास से नई दिल्ली स्टेशन के लिए रवाना हुई। मार्ग के दोनों ओर खड़े व्यक्तियों ने पंडित नेहरू का जय – जयकार किया जुलूस का नेतृत्व सेना के तीनों अंगों की प्रधान कर रहे थे। तोपगाड़ी तीन मूर्ति, विजय चौक, राजपथ, जनपद और कनॉट प्लेस होती हुई नई दिल्ली स्टेशन पर पहुंची।
हजारों व्यक्तियों ने स्टेशन पर अपने प्रिय नेता के अंतिम दर्शन किए। नई दिल्ली से प्रयाग तक के बीच के सभी स्टेशनों पर गाड़ी आधा-आधा घंटा रुकी, कानपुर में 2 घंटे रुकी। गाड़ी जहां भी रुकी अपार जनसमूह वही खड़ा मिला, अपने प्रिय नेता की अस्थियों के ही दर्शन करने के लिए। प्रत्येक स्टेशन पर दर्शनार्थियों ने आवेश में रेलवे की समस्त सीमाओं का उल्लंघन कर दिया।
8 जून को प्रातः 5:00 बजे अस्थि कलश लेकर जब विशेष रेल प्रयाग पहुंची तो शोक-विह्वल जनता अपने प्यारे नेता को इस रूप में देखकर बरबस रो पड़ी। कलश को रास्ते में आनंद भवन ले जाया गया, यह अत्यंत करुणा जनक दृश्य था। आनंद भवन ने, जो श्री नेहरू के परिवार की राजनीतिक जीवन का महत्वपूर्ण साथी रहा है, आज अपने स्वामी का इस रूप में स्वागत किया। कलश को वहां भवन के बरामदे में परिक्रमा करके एक गुलमोहर वृक्ष की छाया में रखा गया, जहां समस्त परिवार के व्यक्तियों ने प्रार्थना की।
इसके पश्चात जुलूस संगम के पवित्र तट पर पहुंचा। श्री नेहरू के दोहित्र राजीव और संजय ने जैसे ही पुण्यसलिला गंगा में अपने नाना की भस्मी प्रवाहित की, वैसे ही इलाहाबाद के ऐतिहासिक किले की प्राचीर से दिवंगत प्रिय नेता के सम्मान में दागी गई तोप का घोष दिशाओं में गूंज उठा। साथ ही मान, श्रद्धानत खड़े 10 लाख शोकार्त नर-नारियों के कंठ से “जवाहर अमर रहे” की ध्वनि गूंज उठी।
श्री नेहरू ने अपनी वसीयत में गंगा को भारत की सभ्यता और संस्कृति का प्रतीक बताया है। एक भाव और पत्नीनिष्ठ की भांति श्री नेहरू ने अपनी धर्मपत्नी श्रीमती कमला नेहरू की भस्म जिन का देहावसान 1936 में हुआ था, एक मंजूषा में युगों से संजो कर रखी थी और दूसरी में मातृ भक्त पुत्र ने अपनी मां स्वरूप रानी की। उनकी अंतिम स्मृति पंडित जी के साथ-साथ गंगा में विसर्जित की गई, प्रयागराज के संगम पर यह भी अपूर्व संगम था।
स्वर्गीय नेहरू को भारत कितना प्रिय था और वे भारतवासियों से कितना स्नेह करते थे, यह उनकी लिखी हुई अद्वितीय एवं आदर्श वसीयत से स्पष्ट हो जाता है। वे जब तक जीवित रहे, उन्होंने प्रत्येक क्षण भारत की सेवा और उन्नति के अथक प्रयासों में ही व्यतीत किया। मृत्यु के बाद भी वे इस मिट्टी के कण कण में मिल जाना चाहते थे। उनकी इच्छा थी कि उनके शरीर की राख भी व्यर्थ ना जाये, उसका भी भारत के खेतों में खाद रूप में उपयोग हो और उसी का अंग बन जाये।
12 जून 64 को पंडित नेहरू की भस्म उनकी अंतिम इच्छानुसार उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक खेतों, खलिहानों, पहाड़ियों और घाटियों पर बिखेर दी गई और वह भारत के कण-कण का अभिन्न अंग बन गई। यह कार्य भारतीय वायु सेना को सौंपा गया था। भस्म बिखेरने के लिए 20 स्थान निश्चित किए गए थे। इन स्थानों पर विमानों और हेलीकॉप्टरों द्वारा प्रधानमंत्री का पवित्र भस्म बिखेर दिया गया । उनकी भस्म को कश्मीर से पहलगांव ले जाने वाले वायुयान में श्रीमती इंदिरा गांधी थीं और अहमदनगर के किले के पास बिखेरने वाले विमान में श्रीमती विजयलक्ष्मी पंडित।
पंडित नेहरू के निधन से भारत को कितना दुख हुआ यह अवर्णनातीत है। कोई समाज, कोई संध्या, कोई संघ, कोई सभा, कोई अधिष्ठान, कोई पंथी, कोई नेता और यहां तक की 45 करोड़ व्यक्तियों में कोई ऐसा नहीं था, जिसका हृदय फुटकर शतश: विदर्ण न हुआ हो, जिसने सिसकियां न भरी हों और जिसकी आंखों में आंसू ना बहा ए हों। बड़ी से बड़ी राजनीतिक, महान से महान आलोचक, गंभीर से गंभीर विचारक दहाड़ मार कर रो उठे अपने प्यारे नेहरू के निधन को सुनकर। भारत का गांव गांव नि:शब्द चित्कार कर उठा। 12 दिन का राजकीय शोक तो नियमानुकूल मनाया ही गया, परंतु वास्तव में देखा जाए तो वह शोक अनंत था, आज भी है और युगो तक रहेगा।
प्रत्येक व्यक्ति चाहे गरीब हो या अमीर, आज भी यही अनुभव कर रहा है, जैसे उसके घर का ही कोई परम प्रिय चल बसा हो। आज भी वह मुंह छिपाकर अपने देश के कर्णधार की याद करके रो लेता है। महात्मा गांधी के निधन पर जनता इतनी हताश संतप्त नहीं हुई थी वह अपने प्रिय जवाहर को देखकर गांधी को भी भूल गई, पर आज उसे गांधी और जवाहर जैसे कर्णधार कोसों दूर तक दिखाई नहीं देते।
पंडित नेहरू का जन्म प्रयाग में 14 नवंबर 1889 में हुआ था। इनके पिता पंडित मोतीलाल नेहरू इलाहाबाद के उच्च कोटि के वकीलों में से थे। यद्यपि वे ब्राह्मण कुल में पैदा हुए थे, फिर भी उनके कठोर कार्यों से क्षत्रियता प्रकट होती थी। वे पाश्चात्य और पौर्वात्य सभ्यता के अद्भुत सम्मिश्रण थे। वे बुद्धिवादी विधि-विशेषज्ञ थे। भावुकता और कल्पना उनसे बहुत दूर थी। वे एक अदम्य, स्वाभिमानी और सनम्र बुद्धिवादी थे। वे अपने साहस और बुद्धि बल के अडिक विश्वासी थे।
भारतवर्ष के प्रमुख कानून विशेषज्ञों में उनकी गणना थी। पंडित मोतीलाल नेहरु को मानसिक और भौतिक समृद्धि के समस्त साधन उपलब्ध थे। पिता और परिवार की इस उन्नतम पृष्ठभूमि में जवाहरलाल के व्यक्तित्व का निर्माण हुआ था। पंडित जवाहरलाल जी ने अपने पिता के विषय में स्वयं लिखा है कि वह किसी ऐसे आंदोलन में भाग नहीं लेना चाहते थे, जिसमें उन्हें किसी दूसरे के इशारे पर नाचना पड़ता हो। मैं उनसे डरता भी बहुत था, नौकर चाकरों पर और दूसरों पर बिगड़ते हुए उन्हें मैंने देखा था, उस समय वे बहुत भयंकर मालूम होते थे और मैं मारे डर के कांपने लगता था।
जवाहरलाल की देखरेख का सारा प्रबंध एक शिक्षित अंग्रेजी महिला पर था। इनकी प्रारंभिक शिक्षा एक अंग्रेज मास्टर द्वारा घर पर ही हुई। जब जवाहरलाल 14 वर्ष के हुए, तब पंडित मोतीलाल का झुकाव अपने योग्य पुत्र की ओर हुआ। सन उन्नीस सौ पांच में यह जवाहरलाल को इंग्लैंड में ले गए और वहां हैरों के विख्यात विश्वविद्यालय में इनका नाम लिखा दिया गया। राजा महाराजाओं के बच्चों के साथ जवाहरलाल की प्रारंभिक शिक्षा हुई, इसके पश्चात यह कैंब्रिज विश्वविद्यालय में प्रविष्ट हो गए। 7 वर्ष तक विलायत में शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात 1912 में बैरिस्ट्री पास करके जवाहरलाल भारत लौटे।
देश की राजनीति में उस समय गोपाल कृष्ण गोखले तथा लोकमान्य तिलक का नाम विशेष आदर से लिया जाता था। विलायत से लौटकर जवाहरलाल भी देश की राजनीति में भाग लेने लगे । प्रारंभ में जवाहरलाल जी के विचार अत्यंत उग्र थे। प्रथम महायुद्ध समाप्त होते ही भारतीय राजनीति में एक नवीन दिशा बदली। 1919 के रौलट एक्ट और पंजाब के जलियांवाला बाग काण्ड ने जवाहरलाल जी को राजनीति में प्रवेश करने का आमंत्रण दिया। उस समय से अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक पंडित नेहरू ने अनेक बार जेल यात्राएं कीं, असह्य यातनाएं सहीं। परंतु वे निर्भीकतापूर्वक अपने स्थान पर अडिग रहें। देश के भाग्य पर अनेक बार भयंकर आपत्तियां आयीं, परंतु उन्होंने सबका बड़े साहस और धैर्य से तथा शांतिपूर्ण प्रयत्नों से सामना किया।
लाहौर में पवित्र सलिला रावि के पुनीत तट पर 1926 में अखिल भारतीय कांग्रेस के अधिवेशन में पंडित नेहरू को सर्वसम्मति से प्रथम बार अध्यक्ष बनाया गया था। उन्हीं की अध्यक्षता में भारतवर्ष की स्वतंत्रता का प्रस्ताव पास हुआ। इसके पश्चात नेहरू जी की लोकप्रियता और मान मर्यादा उत्तरोत्तर बढ़ती गई और उन्होंने समस्त भारतीयों के हृदय राज्य पर अधिकार कर लिया चाहे वह किसी धर्म और किसी संप्रदाय का क्यों ना हो।
जब 1920 में देश में असहयोग आंदोलन प्रारंभ हुआ, पंडित नेहरू बड़े प्रसन्न हो उठे, उन्होंने इसमें भाग लिया। इस आंदोलन में अवध के किसानों ने बड़ा भाग लिया। तभी से यह जनता के निकट संपर्क में आए। जनता की संगठन शक्ति से परिचित हुए, इसी आंदोलन में इन्हें सर्वप्रथम जेल जाना पड़ा।
पंडित नेहरू के ही आग्रह से सन 1928 में कलकत्ते वाले कांग्रेस अधिवेशन में अंग्रेजों को 1 वर्ष के भीतर औपनिवेशिक स्वराज्य देने की चुनौती दी गई। परंतु अंग्रेजी सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया। अगले वर्ष 1926 में लाहौर में पंडित नेहरू कांग्रेस के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव पास किया गया। संपूर्ण देश में स्वाधीनता दिवस मनाया गया।
1930 में नमक सत्याग्रह में भाग लेने के कारण उन्हें फिर जेल में बंद कर दिया गया। देश में आंदोलन उग्र रूप धारण कर चुका था। जब ये जेल से मुक्त हुए, उसकी आठवें दिन इन्हें 18 महीने के कारावास की आज्ञा हुई। गांधी इरविन समझौता होने पर इन्हें छोड़ दिया गया। पंडित नेहरू शांत होने वाले नहीं थे जेल से आते ही उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन का नेतृत्व आरंभ कर दिया। परिणामस्वरूप जेल जाना पड़ा।
इस बार 6 महीने की सजा मिली। इसके पश्चात कलकत्ते में राजद्रोहात्मक भाषण देने के अपराध में इन्हें 2 वर्ष की जेल यात्रा फिर मिल गई। अब की बार जब जेल से बाहर आए, तो इनकी पत्नी श्रीमती कमला नेहरू का दीर्घकालीन अस्वस्थता के उपरांत स्वर्गवास हो चुका था।
1936 और 37 में क्रमश; लखनऊ और फैजपुर कांग्रेस अधिवेशनों में उन्होंने अध्यक्ष पद सुशोभित किया। सन 1936 में द्वितीय विश्वयुद्ध प्रारंभ हुआ। भारतीयों की सलाह के बिना ही अंग्रेजों ने भारत वर्ष को युद्ध के लिए सम्मिलित राष्ट्र घोषित कर दिया। सरकार की इस नीति की पंडित नेहरू ने बड़ी कटु आलोचना की और समस्त देश में इसके विरुद्ध आंदोलन प्रारंभ हो गया।
जनता ने जवाहर के स्वर में स्वर मिलाया। फलस्वरुप अंग्रेजों ने इन्हें पुनः राजद्रोह के अपराध में 4 वर्ष के लिए कारावास का दंड दे दिया। सारा देश क्षुब्ध हो उठा, चारों ओर विद्रोह, लूट, आग लगने की घटनायें होने लगीं। रेल की पटरियां उखाड़ कर फेंक दी गईं, थाने और डाकखाने जलाकर भस्म कर दिए गए, तार टेलीफोन का कोई पता नहीं रहा। लाल बगड़ियां आसमान में उछने लगीं।
अंग्रेजों ने भी बड़ी कठोरता से सन 42 के आंदोलन का दमन करना प्रारंभ किया, परंतु यह दमन, अग्नि में आहुति का काम करने लगा। भीषण हाहाकार के पश्चात 15 जून सन 45 को पंडित नेहरू को छोड़ दिया गया। वह इनकी नवीं जेल यात्रा थी। आते ही उन्होंने आजाद हिंद फौज के सिपाहियों को छुड़ाने का महान प्रयत्न किया, सरकार को उन्हें छोड़ना पड़ा क्योंकि नेहरू और भारतीय जनता में कोई भेद नहीं था। अंग्रेजों ने घबराकर 2 सितंबर 1946 को भारत में एक अंतरिम सरकार की स्थापना की, जिसके पंडित नेहरू प्रधानमंत्री नियुक्त हुए।
इसके पश्चात देश में अंग्रेजों ने सांप्रदायिक उपद्रव प्रारंभ कर दिए। चारों ओर भयानक अराजकता छा गई, मनुष्य मनुष्य के प्राणों से खेलने लगा। देश का विभाजन हुआ। पंडित नेहरू ने बड़ी से बड़ी कठिनाई और समस्याओं को अपने मजबूत कंधों पर सहा। नेहरू जी गणतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री हुए, गहन से गहन समस्याओं को बड़ी बुद्धिमानी से समझाते हुए भारत को पूर्ण समृद्धशाली बनाने में लगे रहे। सन 1947 में ही उन्होंने अंतर एशियाई सम्मेलन किया, जिसका सभापतित्व आपको ही दिया गया।
पंडित नेहरू अद्वितीय राजनीतिज्ञ होने के साथ-साथ एक उच्च कोटि के लेखक भी थे। विश्व का साहित्य आपकी रचनाओं से अपने को गौरवान्वित समझता है। आपके कई ग्रंथ, जैसे डिस्कवरी ऑफ इंडिया या पंडित जी की स्वयं की जीवनी, संसार के सभी भागों में बड़ी रूचि और श्रद्धा के साथ पढ़ी जाती है। बड़े-बड़े विद्वान उनकी लिखी हुई पंक्तियों पर मनन करते हैं। वे मौलिक शैली के लेखक होने के अतिरिक्त करोड़ों जनता को मंत्रमुग्ध कर देने वाले वक्ता भी थे। सिद्धांत भेद रखने वाले व्यक्ति भी आपके भाषण के बाद आपकी हां में हां बिना मिलाएं नहीं रह सकते थे।
पंडित नेहरू एक अंतरराष्ट्रीय महापुरुष थे। विश्व राजनीति के रंगमंच पर उन्होंने जहां एशिया के 10 देशों के मुक्तिदाता का कार्य किया, वहां अपनी तटस्थता की नीति, मानवता और विश्व शांति के स्वर से उन देशों को भी विनाश के गर्त से बचा लिया, जो पारस्परिक संदेह और भय के वशीभूत होकर युद्ध के कगार तक पहुंच गए थे। विश्वभर में वे शांति दूत के नाम से विख्यात थे। पुर्तगाल को छोड़कर विश्व का शायद ही कोई ऐसा देश हो, जहां इस महामानव के निधन पर शोक प्रकट न किया गया हो। संसार के समस्त राष्ट्राध्यक्षों ने श्रीमती गांधी तथा राष्ट्रपति को संवेदना संदेश भेजें। विश्व के राष्ट्रों के प्रतिनिधियों ने उनकी शव यात्रा में भाग लिया, उनके अंतिम दर्शन करके पुष्पांजलि समर्पित की।
नेहरू जी एशिया के प्रेरणा स्रोत थे। उन्होंने एशिया को नई दिशा दी, नई रोशनी में नया संदेश दिया। एशियाई देशों की संस्कृति, सभ्यता और परंपराओं की रक्षा करने के लिए नेहरू जी उतने ही चिंतित रहते थे, जितने भारत के लिए। उन्होंने समस्त एशिया के लिए एक ऐसा अस्तित्व प्रदान किया, जिसे यह महाद्वीप, यूरोप की प्रभुसत्ता के कारण भूल गया था।
आज नेहरू के अभाव में समस्त एशिया शोक से चींख उठा, मानो उसका शक्ति स्रोत सूख गया हो। नेहरू-गांधी के चले जाने से एशिया के लोगों ने एक ऐसा नेता खो दिया, जिसने उनके दुख दर्द को समझा और समय पड़ने पर सही सम्मति दी। समस्त एशिया और यूरोप के देशों ने मिलकर एक स्वर से यही कहा कि अब शांति का विश्व दूत दासता का मुक्तिदाता संसार में नहीं रहा।
श्री नेहरू के निधन से राष्ट्र को जो क्षति हुई है, उसकी पूर्ति युगो तक ना हो सकेगी। ऐसे युगपुरुष संसार में मानव कल्याण के लिए यदा-कदा ही उत्पन्न होते हैं। श्री नेहरू आधी शताब्दी से भी अधिक भारतीय जन-जीवन, समाज और राष्ट्रो पर छाए रहे, उनका कुछ भी अपने लिए न था। सब कुछ समाज और राष्ट्र के लिए अर्पित था। श्री नेहरू ने अनेक रूपों में जनता की सेवा की। वे सफल साहित्यकार थे, दूरदर्शी कूटनीतिज्ञ थे, तत्वदर्शी साधक थे, मर्मज्ञ राष्ट्रचिंतक थे, युगपुरुष दासता के मुक्तिदाता थे और थे युग निर्माता, युग सृष्टा। उनके जीवन के प्रमुख साथी थे अभय और साहस।
वे चाहते तो सफल बैरिस्टर बनकर सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश बन सकते थे, वे चाहते तो संसार के महान प्रसिद्ध लेखक हो सकते थे। वे चाहते तो धनी पिता के उत्तराधिकारी के रूप में आनंद भवन में विलास और विनोद कर सकते थे, वे चाहते तो तत्कालीन ब्रिटिश सरकार से समझौता करके उच्च पद प्राप्त कर सकते थे, परंतु उन्होंने सभी सुख एवं सुविधाओं को लात मार दी। तन, मन, धन से जनता जनार्दन की सेवा को ही अपना जीवन धर्म बनाया। निरंतर 30 वर्षों तक में ब्रिटिश शासन से जूझते रहे भारत को मुक्ति प्रदान कराने के लिए। जेलों में अनंत यातनाएं और ताड़ना सहीं, अपनी आंखों के आगे अपने घर और वैभव को बर्बाद होते देखा, परंतु अपने पुनीत पद का परित्याग नहीं किया, तभी तो देश का बच्चा-बच्चा भी जवाहर लाल की जय बोलने लगा था। यह था दासता के मुक्तिदाता नेहरू का प्रथम स्वरूप।
उनका द्वितीय महान स्वरूप इस भारत की डगमगाती नौका को मजबूती से साधे हुए, तूफानों से बचाते हुए किनारे पर लाने का था, जिसे आधुनिक भारत का निर्माता कहा जाता है। नेहरू ने अपने 17 वर्ष के प्रधानमंत्रित्व काल में अपनी शक्ति और सामर्थ्य से भी अधिक भारत की सर्वांगीण उन्नति के लिए कार्य किया। इतिहास इसे कभी नहीं भुला सकता। नेहरू कहा करते थे-
“मुझे इसकी कतई चिंता नहीं है कि मेरे बाद दूसरे लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे। मेरे लिए तो बस इतना ही काफी है कि मैंने अपने को, अपनी ताकत और क्षमता को भारत की सेवा में खपा दिया।”
कुछ दिनों से संभवत: उन्हें अपने जीवन के अंत का कुछ अनुभव होने लगा था, इसी कारण से उन्होंने और भी अधिक कार्य करना प्रारंभ कर दिया था। पिछले 1 वर्ष से उन्होंने अपनी मेज पर, अपने हाथ से, पैड पर अमेरिकी कवि रॉबर्ट फ्रास्ट की निम्नलिखित कविता लिख रखी थी। यह पैड 1 साल से उनकी मेज पर रखा रहता था जिस पर वे काम करते थे। इन पंक्तियों से उन्हें प्रेरणा मिलती थी। पत्तियों का अनुवाद इस प्रकार है –
“जंगल प्यारे हैं घनेरे और अंधेरे!
लेकिन मैंने वायदे किए थे, जो पूरे करने हैं।
और अभी मिलो दूर का, सफर करना है।
दूर जाना है, सोने से पहले, दूर, मिलो दूर ।।”
उनका तीसरा महान स्वरूप “एशिया का प्रेरणा स्रोत एवं जागरण का महान उद्घोष था।” आज समस्त एशिया के राष्ट्र अपने को असहाय सा पा रहे हैं, ऐसा अनुभव करते हैं, मानो उनकी वाणी ही समाप्त हो गई हो। चौथा श्री नेहरू का महानतम स्वरूप विश्व नेता का था। व समस्त विश्व में शांति दूत कहे जाते थे, विश्व की समस्त जनता उनके सामने झुकती थी, विश्व के बड़े से बड़े राष्ट्राध्यक्ष नेहरू के मुख से निकले एक-एक वाक्य पर घंटों विचार करते थे और कान लगाकर सुनते थे कि अब क्या कहेगा वह महामानव, वह युगपुरुष, जिसमें शांति, सह अस्तित्व, मानवता, स्वतंत्रता, न्यायप्रियता, तटस्थता, सत्यता, प्रेम और अहिंसा वादी सिद्धांत केंद्रीय भूत थे। उस विराट व्यक्तित्व के प्रति विश्व एक कोने से दूसरे कोने तक श्रद्धा युक्त नमन कर रहा है।
विश्व से किसी का मित्र गया, किसी का साथ गया और किसी का सलाहकार गया, परंतु भारत से क्या गया? उसका सब कुछ चला गया, आज उसकी कमर टूट चुकी है। श्री नेहरू का अनोखा आकर्षक व्यक्तित्व था। उसके सामने किस का साहस था, जो सिर उठा सके, चाहे वह देश का हो या विदेश का।
45 करोड़ नर नारी, अपने जवाहर के हाथों अपनी बागडोंर सौंप कर आराम से सोते थे और कह देते थे जो करेंगे ठीक है। उन्होंने इस राष्ट्र को अपने राष्ट्रों की श्रेणी में स्पृहणीय स्थान प्रदान करने के लिए राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र में नवीन मापदंड स्थापित किए। अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भारत का सर्व सम्माननीय तटस्थ रूप और राष्ट्रीय क्षेत्र में लोकतंत्र, सामाजिक न्याय और समृद्धि की ओर बढ़ते चरण उन्हीं के अथक प्रयासों का परिणाम है।
उनकी सहिष्णुता और विवेक ने देश की अनेक बार संकट से रक्षा की। उन्होंने व्यवहार के ऐसे मापदंड स्थापित किए, जो चिरकाल तक इस देश के लिए आदर्श बने रहेंगे। आज नेहरू युग समाप्त हो चुका है, देश के नागरिकों ने और नए नेताओं ने नेहरू के पद चिन्हों पर चलने की शपथ ली है। यदि देश के कर्णधार उसी पर चलते रहे, तो देश सदैव आगे बढ़ता रहेगा,अन्यथा देश की सुरक्षा और स्वतंत्रता संकट में पड़ जाएगी क्योंकि गांधीजी का उत्तराधिकारी अब नहीं रहा-
“जवाहरलाल मेरा उत्तराधिकारी होगा । उसका कहना है कि मेरी जुबान नहीं समझता और वह एक ऐसी भाषा बोलता है, जो मेरे लिए विदेशी है। यह बात ठीक भी हो सकती है। लेकिन दो दिलों के मिलाप में भाषा बाधा नहीं बन सकती। मैं इतना जानता हूं कि जब मैं नहीं रहूंगा, तो वह मेरी भाषा बोलेगा ।” – महात्मा गांधी
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