Sanskrit Shlok With Hindi Meaning – प्रेरणादायक संस्कृत श्लोक एवं दोहे अर्थ सहित

प्रेरणादायक संस्कृत श्लोक अर्थ सहित (Inspirational Sanskrit Quotes with Meaning)
सत्यमेव जयते॥
भावार्थ :
सत्य की सदैव ही विजय होती है।
***
सत्य -सत्यमेवेश्वरो लोके सत्ये धर्मः सदाश्रितः ।
सत्यमूलनि सर्वाणि सत्यान्नास्ति परं पदम् ॥
भावार्थ :
सत्य ही संसार में ईश्वर है; धर्म भी सत्य के ही आश्रित है; सत्य ही समस्त भव – विभव का मूल है; सत्य से बढ़कर और कुछ नहीं है ।
***
यद् भविष्यो विनश्यति ॥
भावार्थ :
‘जो होगा देखा जाएगा’ कहने वाले नष्ट हो जाते हैं ।
***
बहूनामप्यसाराणां समवायो हि दुर्जयः ॥
भावार्थ :
छोटे और निर्बल भी संख्या में बहुत होकर दुर्जेय हो जाते हैं ।
***
उपदेशो हि मूर्खणां प्रकोपाय न शान्तये ॥
भावार्थ :
उपदेश से मूर्खो का क्रोध और भी भड़क उठता है, शान्त नहीं होता ।
***
उपदेशो न दातव्यो यादृशे तादृशे जने ॥
भावार्थ :
जिस-तिसको उपदेश देना उचित नहीं ।
***
किं करोत्येव पाण्डित्यमस्थाने विनियोजितम् ॥
भावार्थ :
अयोग्य को मिले ज्ञान का फल विपरीत ही होता है ।
***
अयोग्यः पुरुषः नास्ति
योजकस्तत्र दुर्लभः।।
कोई भी पुरुष अयोग्य नहीं होता, पर उसे योग्य काम में जोड़ने वाले पुरुष ही दुर्लभ हैं।
***
नास्ति बुद्धिमतां शत्रुः ॥
बुद्धिमानो का कोई शत्रु नहीं होता।
***
शब्दमात्रात् न भीतव्यम् ॥
भावार्थ :
शब्द – मात्र से डरना उचित नहीं ।
***
उपायेन हि यच्छक्यं न तच्छक्यं पराक्रमैः ॥
भावार्थ :
उपाय द्वारा जो काम हो जाता है वह पराक्रम से नहीं हो पाता ।
***
उपायेन जयो यदृग्रिपोस्तादृड्डं न हेतिभिः ॥
भावार्थ :
उपाय से शत्रु को जीतो, हथियार से नहीं ।
***
यस्य बुद्धिर्बलं तस्य निर्बुद्धेस्तु कुतो बलम् ॥
भावार्थ :
बली वही है, जिसके पास बुद्धि-बल है ।
***
न ह्राविज्ञातशीलस्य प्रदातव्यः प्रतिश्रयः ॥
भावार्थ :
अज्ञात या विरोधी प्रवृत्ति के व्यक्ति को आश्रय नहीं देना चाहिए ।
***
बलवन्तं रिपु दृष्ट् वा न वामान प्रकोपयेत् ॥
भावार्थ :
शत्रु अधिक बलशाली हो तो क्रोध प्रकट न करे, शान्त हो जाए ।
***
सक्ष्मात् सर्वेषों कार्यसिद्धिभर्वति
क्षमा करने से सभी कार्ये में सफलता मिलती है।
***
दुर्बलाश्रयो दुःखमावहति ॥
भावार्थ :
दुर्बल का आश्रय दुःख देता है ।
***
न संसार भयं ज्ञानवताम् ॥
ज्ञानियों को संसार का भय नहीं होता ।
***
वृद्धसेवया विज्ञानत् ॥
वृद्ध – सेवा से सत्य ज्ञान प्राप्त होता है ।
***
उपायपूर्वं न दुष्करं स्यात्॥
उपाय से कार्य कठिन नहीं होता ।
***
विज्ञान दीपेन संसार भयं निवर्तते ॥
भावार्थ :
विज्ञानं के दीप से संसार का भय भाग जाता है ।
***
सेवाधर्मः परमगहनो ॥
भावार्थ :
सेवाधर्म बड़ा कठिन धर्म है ।
***
सुखस्य मूलं धर्मः ॥
भावार्थ :
धर्म ही सुख देने वाला है ।
***
धर्मस्य मूलमर्थः ॥
भावार्थ :
धन से ही धर्म संभव है ।
***
विनयस्य मूलं विनयः ॥
भावार्थ :
वृद्धों की सेवा से ही विनय भाव जाग्रत होता है ।
***
धर्म-धर्मादर्थः प्रभवति धर्मात्प्रभवते सुखम् ।
धर्मण लभते सर्वं धर्मप्रसारमिदं जगत् ॥
भावार्थ :
धर्म से ही धन, सुख तथा सब कुछ प्राप्त होता है । इस संसार में धर्म ही सार वस्तु है ।
***
नव्यसनपरस्य कार्यावाप्तिः ॥
भावार्थ :
बुरी आदतों में लगे हुए मनुष्य को कार्य की प्राप्ति नहीं होती ।
***
अर्थेषणा न व्यसनेषु गण्यते ॥
भावार्थ :
घन की अभिलाषा रखना कोई बुराई नहीं मानी जाती ।
***
अग्निदाहादपि विशिष्टं वाक्पारुष्यम् ॥
भावार्थ :
वाणी की कठोरता अग्निदाह से भी बढ़कर है ।
***
आत्मायत्तौ वृद्धिविनाशौ ॥
भावार्थ :
वृद्धि और विनाश अपने हाथ में है ।
***
अर्थमूलं धरकामौ ॥
भावार्थ :
धन ही सभी कार्याे का मूल है ।
***
कार्यार्थिनामुपाय एव सहायः ॥
भावार्थ :
उद्यमियों के लिए उपाय ही सहायक है ।
***
कार्य पुरुषकारेण लक्ष्यं सम्पद्यते ॥
भावार्थ :
निश्चय कर लेने पर कार्य पूर्ण हो जाता है ।
***
असमाहितस्य वृतिनर विद्यते ॥
भावार्थ :
भाग्य के भरोसे बैठे रहने पर कुछ भी प्राप्त नहीं होता ।
***
पूर्वं निश्चित्य पश्चात् कार्यभारभेत् ॥
भावार्थ :
पहले निश्चय करें, फिर कार्य आरंभ करें ।
***
कार्यान्तरे दीघर्सूत्रता न कर्तव्या ॥
भावार्थ :
कार्य के बीच में आलस्य न करें ।
***
दुरनुबध्नं कार्य साधयेत् ॥
भावार्थ :
जो कार्य हो न सके उस कार्य को प्रांरभ ही न करें ।
***
कालवित् कार्यं साधयेत् ॥
भावार्थ :
समय के महत्व को समझने वाला निश्चय ही अपना कार्य सिद्धि कर पाता है ।
***
भाग्यवन्तमपरीक्ष्यकारिणं श्रीः परित्यजति ॥
भावार्थ :
बिना विचार कार्य करने वाले भाग्शाली को भी लक्ष्मी त्याग देती है ।
***
यो यस्मिन् कर्माणि कुशलस्तं तस्मित्रैव योजयेत् ॥
भावार्थ :
जो मनुष्य जिस कार्य में निपुण हो, उसे वही कार्य सौंपना चाहिए ।
***
दुःसाध्यमपि सुसाध्यं करोत्युपायज्ञः ॥
भावार्थ :
उपायों का ज्ञाता कठिन को भी आसान बना देता है ।
***
अप्रयत्नात् कार्यविपत्तिभर्वती ॥
भावार्थ :
प्रयास न करने से कार्य का नाश होता है ।
***
शोकः शौर्यपकर्षणः ॥
भावार्थ :
शोक मनुष्य के शौर्य को नष्ट कर देता है ।
***
न सुखाल्लभ्यते सुखम् ॥
भावार्थ :
सुख से सुख की वृद्धि नहीं होती ।
***
स्वभावो दुरतिक्रमः ॥
भावार्थ :
स्वभाव का अतिक्रमण कठिन है ।
***
ये शोकमनुवर्त्तन्ते न तेषां विद्यते सुखम् ॥
भावार्थ :
शोकग्रस्त मनुष्य को कभी सुख नहीं मिलता ।
***
सुख-दुर्लभं हि सदा सुखम् ॥
भावार्थ :
सुख सदा नहीं बना रहता है ।
***
सर्वे चण्डस्य विभ्यति ॥
भावार्थ :
क्रोधी पुरुष से सभी डरते हैं ।
***
मृदुर्हि परिभूयते ॥
भावार्थ :
मृदु पुरुष का अनादर होता है ।
***
सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम्।
वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः।।
भावार्थ :
किसी भी कार्य को आवेश में आ कर या बिना सोचे समझे नहीं करना चाहिए, क्योंकि विवेक का शून्य होना विपत्तियों को बुलावा देना है। जबकि जो व्यक्ति सोंच-समझकर कार्य करता है, ऐसे व्यक्तियों को माँ लक्ष्मी स्वयं ही उसका चुनाव कर लेती है।
***
अनेकसंशयोच्छेदि परोक्षार्थस्य दर्शकम् ।
सर्वस्य लोचनं शास्त्रं यस्य नास्त्यन्ध एव सः ।।
भावार्थ :
अनेक संशयो को मिटाने वाला, भूत एवं भविष्य को तथा अप्रत्यक्ष को प्रत्यक्ष के समान दिखानेवाला, शास्त्ररूपी दिव्यचक्षु जिसके पास नहीं है, वह वास्तव में अन्धा है।
***
स्वभावो नोपदेशेन शक्यते कर्तुमन्यथा ।
सुतप्तमपि पानीयं पुनर्गच्छति शीतताम् ॥
भावार्थ :
किसी भी व्यक्ति का जो मूल स्वभाव होता है, वह कभी नही बदलता है, चाहे आप उसे कितना भी समझाएं और किनती भी सलाह दे। यह ठीक उसी प्रकार से होता है जैसे पानी को आग में उबालनें पर वह गर्म हो जाता है और खौलनें लगता है परन्तु कुछ समय पश्चात वह अपनी पुरानी अवस्था में आ जाता है।
***
यस्तु सञ्चरते देशान् सेवते यस्तु पण्डितान् ।
तस्य विस्तारिता बुद्धिस्तैलबिन्दुरिवाम्भसि ॥
भावार्थ :
ऐसे व्यक्ति जो विभिन्न देशो में यात्रा करते है और विद्वान लोगो की सेवा करते है, उनकी बौद्धिक क्षमता का विस्तार ठीक उसी तरह से होता है, जिस प्रकार तेल का एक बून्द पानी में गिरने के बाद फैल जाता है।
***
माता मित्रं पिता चेति स्वभावात् त्रितयं हितम्।
कार्यकारणतश्चान्ये भवन्ति हितबुद्धयः॥
भावार्थ :
माता, पिता और मित्र तीनों ही स्वभावतः हमारे हित के लिए सोचते हैं, वे हमारे हित करने के बदले में किसी प्रकार की अपेक्षा नहीं रखते। इन तीनों के सिवाय अन्य लोग यदि हमारे हित की सोचते हैं तो वे उसके बदले में हमसे कुछ न कुछ अपेक्षा भी रखते हैं।
***
वदनं प्रसादसदनं सदयं हृदयं सुधामुचो वाचः।
करणं परोपकरणं येषां केषां न ते वन्द्याः।।
भावार्थ :
सदैव प्रसन्न-वदन (हँसमुख), हृदय में दया की भावना रखने वाले, अमृत के समान मीठे वचन बोलने वाले तथा परोपकार में लिप्त रहने वाले व्यक्ति भला किसके लिए वन्दनीय नहीं होगा।
***
यस्य कस्य प्रसूतोऽपि गुणवान्पूज्यते नरः ।
धनुर्वशविशुद्धोऽपि निर्गुणः किं करिष्यति ।।
भावार्थ :
किसी भी वंश में उत्पन्न मनुष्य यदि गुणी है, तो समाज में उसका सम्मान होता है। जैसे श्रेष्ठ बांस से बने हुए भी गुण रहित धनुष से क्या उपयोग लिया जा सकता है, अर्थात कोई नहीं ।
***
काको कृष्णः पिको कृष्णः को भेदो पिककाकयो।
वसन्तकाले संप्राप्ते काको काकः पिको पिकः॥
भावार्थ :
कोयल भी काले रंग की होती है और कौवा भी काले रंग का ही होता है फिर दोनों में क्या भेद (अन्तर) है? वसन्त ऋतु के आगमन होते ही पता चल जाता है कि कोयल कोयल होती है और कौवा कौवा होता है।
***
सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम् ।
वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः ।।
भावार्थ :
अचानक (आवेश में आ कर बिना सोचे समझे ) कोई कार्य नहीं करना चाहिए कयोंकि विवेकशून्यता सबसे बड़ी विपत्तियों का घर होती है | ( इसके विपरीत ) जो व्यक्ति सोच –समझकर कार्य करता है; गुणों से आकृष्ट होने वाली माँ लक्ष्मी स्वयं ही उसका चुनाव कर लेती है।
***
यौवनं धन सम्पत्तिः प्रभुत्वमअविवेकिता ।
एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्टयम् ।।
भावार्थ :
जवानी, द्रव्यविभव, स्वामित्व और विचार शून्यता इन चारों में स्वतन्त्र एक-एक भी अनर्थ का कारण हो जाता है, जहां चारों एक साथ हो वहां की बात ही क्या है, अर्थात वहां तो अनर्थ होगा ही ।
***
समाश्वासनवागेका न दैवं परमार्थतः ।
मूर्खाणां सम्प्रदायेऽस्य परिपूजनम् ।।
भावार्थ:
यह तो केवल आश्वासन देने के लिए कथन मात्र है, कि भाग्य ही सब कुछ है, वस्तुतः भाग्य नाम की कोई वस्तु नहीं है। मूर्खों के समाज में ही केवल एक मात्र भाग्य की पूजा होती है ।
***
उद्यमेन हि सिद्धयन्ति कार्याणि मनोरथैः।
नहि सुप्तस्य सिंह प्रविशन्ति मुखै मृगाः ।।
भावार्थ:
केवल मनोरथ से कार्य सफल नहीं होते है, प्रत्युत उद्योग से ही सिद्ध होते है, जैसे सोये हुए सिंह के मुंह में मृग स्वयं नहीं चले जाते उसको भी अन्वेषण करना ही पड़ता है।
***
न गणस्याग्रतो गच्छेत्सिद्धे कार्ये समं फलम ।
यदि कार्यविपत्तिः स्यान्मुखरस्तत्र हन्यते ।।
भावार्थ:
किसी भी समूह का अग्रणी नहीं बनना चाहिए, क्योंकि कार्य सफल हो जाने पर सभी को बराबर लाभ होता है, और यदि कार्य बिगडता है तो अग्रणी ही मारा जाता है।
***
रोग-शोक-परीताप-बन्धन-व्यसनानि च ।
आत्मापराधवृक्षाणां फलान्येतानि देहिनाम ।।
भावार्थ:
रोग, शोक, बन्धन और अन्य प्रकार की विपत्तियां ये प्राणियों द्वारा किये गये पापापराधरूपी वृक्षों के फल है।
***
न संशयमनारूह्य नरो भद्राणि पश्यति ।
संशयं पुनरारूह्य यदि जीवति पश्यति ।।
भावार्थ:
मनुष्य अपने को खतरे में डाले बिना विशिष्ट लाभ नहीं प्राप्त कर सकता, यदि खतरे से बच गया तो उस लाभ का सुख वह भोगता ही है ।
***
ईर्ष्या घृणी त्वसंतुष्टः क्रोधनो नित्यशंकितः ।
परभाग्योपजीवी च षडेते दुःखभागिनः ।।
अर्थात- ईर्ष्या करने वाला, घृणा करने वाला, असन्तोषी, क्रोधी, प्रत्येक विषय में शंकित रहने वाला और दूसरे के भाग्य के सहारे जीने वाला अर्थात पराधीन ये छः प्रकार के मनुष्य सर्वदा दुखी रहते है।
मित्रता पर संस्कृत में श्लोक (Sanskrit Quotes on Friendship)
सहायः समसुखदुःखः ॥
भावार्थ :
जो सुख और दुःख में बराबर साथ देने वाला होता है सच्चा सहायक होता है ।
***
आपत्सु स्नेहसंयुक्तं मित्रम् ॥
भावार्थ :
विपत्ति के समय भी स्नेह रखने वाला ही मित्र है।
***
मित्रसंग्रहेण बलं सम्पद्यते॥
भावार्थ :
अच्छे और योग्य मित्रों की अधिकता से बल प्राप्त होता है।
***
मित्रता-उपकारफलं मित्रमपकारोऽरिलक्षणम् ॥
भावार्थ :
उपकार करना मित्रता का लक्षण है और अपकार करना शत्रुता का ।
***
सर्वथा सुकरं मित्रं दुष्करं प्रतिपालनम् ॥
भावार्थ :
मित्रता करना सहज है लेकिन उसको निभाना कठिन है ।
***
यानि कानी च मित्राणि कर्तव्यानि शतानि च ।
पश्य मूषिकमित्रेण कपोताः मुक्तबन्धनाः ।।
भावार्थ :
छोटे हो या बडे, निर्बल हो या सबल, अधिक से अधिक संख्या में मित्र बना लेना चाहिए। क्योंकि न जाने किसके द्वारा किस समय कैसा काम निकल जाये।
***
हेतुतः शत्रुमित्रे भविष्यतः ॥
भावार्थ :
किसी कारण से ही शत्रु या मित्र बनते हैं ।
***
लोभात्क्रोधः प्रभवति लोभात्कामः प्रजायते ।
लोभान्मोहश्च नाशश्च लोभः पापस्य कारणम् ।।
भावार्थ :
लोभ से क्रोध उत्पन्न होता है, लोभ से विषय भोग आदि कामों में प्रवृति होती है। लोभ से ही मोह और कर्तव्याकर्तव्यरूप बुद्धि का नाश होता है, इसलिए लोभ ही सब पापों का कारण है।
***
तावद भयस्य भेतव्यं यावद् भयमागतम् ।
आगतं तु भयं वीक्ष्य नरः कुर्याद्यथोचितम् ।।
भावार्थ :
भय का कारण जब तक उपस्थितशनहीं होता तभी तक उससे डरना चाहिए किन्तु भय को उपस्थित हुआ देखकर मनुष्य जैसा उचितशहो वैसा उसके प्रतिकार का उपायशकरना चाहिए।
***
अरावप्युचितं कार्यमातिथ्यं गृहमागते ।
छेत्तुः पार्श्वगतां छायां नोप संहरते द्रुमः ।।
भावार्थ :
घर में आये हुए शत्रु का भी उचित सत्कार करना चाहिए। देखो- वृक्ष भी काटने वाले के ऊपर की छाया नहीं हटाता अर्थात उसे काटते समय भी छाया देता है।
***
सर्वहिंसानिवृत्ता ये नराः सर्वसहाश्च ये ।
सर्वस्याश्रयभूताश्च ते नराः स्वर्गगामिनः ।।
भावार्थ :
जो मनुष्य सब प्रकार की हिंसा से निवृत है,जो सब सहन करते है, सभी के आश्रयभूत हैं,वे मनुष्य स्वर्ग में वास करता है।
***
उपायेन हि यच्छक्यं न तच्छक्यं पराक्रमैः ।
श्रृगालेन हतो हस्ती गच्छता पंक्ङवर्त्मना ।।
भावार्थ :
जो कार्य उपायों द्वारा हो सकता है । वह कार्य शक्ति द्वारा नहीं हो सकता ।जैसे- सियार कीचड़ के मार्ग से चलते हुए एक हाथी को मार डाला ।
***
एकस्य दुखस्य न यावदन्तं गच्छाम्यहं पारमिवार्णवस्य ।
तावद् द्वितीयं समुपस्थितं मे छिद्रेष्वनर्था बहुलीभन्ति ।।
भावार्थ :
समुद्र के पार खी तरह जब तक एक दुख का अन्त होने नहीं पाया कि दूसरा बीच में ही उपस्थित हो जाता है। ठीक ही कहा है कि विपत्ति आने पर उसके साथ-साथ अनेकों विपत्तियां आ पढती है।
***
यो ध्रुवाणि परित्यज्य अध्रुवाणि निषेवते ।
ध्रुवाणि तस्य नश्यन्ति अध्रुवं नष्टमेव हि ।।
भावार्थ :
जो मनुष्य निश्चित वस्तु को त्यागकर अनिश्चित वस्तु के पीछे दौडता है,उसकी निश्चित वस्तु नष्ट हो जाती है और अनिश्चित वस्तु तो पहले ही नष्ट है।
***
अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ।
नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि ।।
भावार्थ :
किया हुआ शुभ अथवा अशुभ कर्म अवश्य ही भोगना पढता है, करोड कल्प बीत जाने पर भी बिना भोगे कर्म का क्षय नहीं होता है।
***
अवसश्यम्भाविभावानां प्रतीकारो भवेद्यदि ।
प्रतिकुर्युर्नं किं नूनं नलरामयुधिष्ठिराः ।।
भावार्थ :
और भी अवश्य होने वाले सुखदुखादि को रोकने का यदि कोई उपाय होता तो नल,राम और युधिष्ठिर जैसे चक्रवर्ती राजा लोग उस उपाय को क्यों न करते ।
***
अस्ति चेदिश्वरः कश्चित फलरूप्यन्यकर्मणाम् ।
कर्तारं भजते सोऽपि न ह्यकर्तुः प्रभर्हि सः ।।
भावार्थ :
प्राणियो को उनके लिए काम का शुभ अथवा अशुभ फल देने वाला कर्मातिरिक्त यदि कोई ईश्वर मान भी लिया जाए तो वह भी फल देने के समय कर्म करने वाले व्यक्ति की ही अपेक्षा रखता है, जो कर्म नहीं करता उसको फल नहीं देता इसलिए कर्म करना परमावश्यक है।
विद्या पर संस्कृत श्लोक (Sanskrit Quotes on Vidya)
विद्या परमं बलम
अर्थात विद्या सबसे महत्वपूर्ण ताकत है।
***
माता शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः।
न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा ।।
भावार्थ :
ऐसे माता-पिता या अभिभावक जो अपन बच्चों को नहीं पढ़ाते है अर्थात शिक्षा अध्ययन के लिए नहीं भेजते है वह अपनें बच्चों के लिए एक शत्रु के समान है। जिस प्रकार विद्वान व्यक्तियों की सभा में एक निरक्षर व्यक्ति को कभी सम्मान नहीं मिल सकता वह हंसो के बीच एक बगुले की तरह होता है।
***
कोऽर्थः पुत्रेण जातेन यो न विद्वान न धार्मिकः ।
कथञचित्स्वोदरभराः किन्न शूकर शावकाः ।।
भावार्थ :
उस पुत्र का कोई प्रयोजन नहीं है, जो ज्ञानी न हो, या जिसे विद्या का ज्ञान न हो, और ना ही वह धार्मिक प्रवृत्ति हो। सूवर को बहुत तुच्छ माना जाता है तो क्या उसके बच्चे किसी तरह अपना पेट नही भरते है।
***
अजराऽमरवत्प्राज्ञो विद्यामर्थञ्च चिन्तयेत् ।
गृहीत इव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत् ।।
भावार्थ :
बुद्धिमान मनुष्य अपने को बुढापा और मृत्यु से रहित समझकर विद्या और धन का उपार्जन करे और मृत्यु मानों सिर पर सवार है ऐसा समझकर धर्म का पालन करता रहे।
***
अजातमृतमूर्खाणां वरमाद्यौ न चान्तिमः ।
सकृद् दुखकरावाद्यावन्तिमस्तु पदे पदे ।।
भावार्थ :
या तो बालक उत्पन्न ही न हुआ हो , या उत्पन्न होकर उसी समय मर गया हो,और मूर्ख क्योंकि इनके मरने पर उतना दुख नही होता है। लेकिन अगर मरा भी नही और मूर्ख पैदा हो गया हो तो वह जीवन भर बार-बार दुख देता है।
***
विद्या ददाति विनयं विनयाद्याति पात्रताम् ।
पात्रात्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्मम् ततः सुखम् ।।
भावार्थ :
विद्या से विनय, विनय से योग्यता, योग्यता से धन, धन से धर्म और धर्म से सुख की प्राप्ति होती है।
***
न चोरहार्य न राजहार्य न भ्रतृभाज्यं न च भारकारि ।
व्यये कृते वर्धति एव नित्यं विद्याधनं सर्वधनप्रधानम् ॥
भावार्थ :
न तो इसे चोर चुरा सकता है, न ही राजा इसे ले सकता है, न ही भाई इसका बँटवारा कर सकता है और न ही इसका कंधे पर बोझ होता है; इसे खर्च करने पर सदा इसकी वृद्धि होती है, ऐसा विद्याधन सभी धनों में प्रधान है।
***
आहारनिद्राभयसन्ततित्वं सामान्यमेतत्पशुभीर्नराणाम् ।
ज्ञानं हि तेषामधिकं विशिष्टं ज्ञानेन हीनाः पशुभिः समानाः ।।
भावार्थ :
मनुष्य में और पशुओं में आहार निद्रा ,भय और सन्ततित्व ये चारों गुण समान होते है, किन्तु एक ज्ञान ही ऐसा गुण है जो मनुष्य में विशेष रूप से होता है, इसलिए ज्ञान से रहित मनुष्य पशु के समान हुआ करते।
***
विद्या मित्रं प्रवासेषु,भार्या मित्रं गृहेषु च ।
व्याधितस्यौषधं मित्रं, धर्मो मित्रं मृतस्य च ।।
भावार्थ :
ज्ञान यात्रा में, पत्नी घर में, औषध रोगी का तथा धर्म मृतक का ( सबसे बड़ा ) मित्र होता है।
***
दाने तपसि शौर्ये च यस्य न प्रथितं वशः ।
विद्यायामर्थलाभे च मातुरूच्चार एव सः ।।
भावार्थ :
जिस पुरष की कीर्ति दान देने में, तपस्या में, वीरता में, विद्योपार्जन में नहीँ फैली वह पुरूष अपनी माता की केवल विष्ठा के समान होता है।
***
सुदुखं शयितः पूर्वं प्राप्येदं सुखमुत्तमम् ।
प्राप्तकालं न जानीते विश्वामित्रो यथा मुनिः ॥
भावार्थ :
किसी को जब बहुत दिनों तक अत्यधिक दुःख भोगने के बाद महान सुख मिलता है तो उसे विश्वामित्र मुनि की भांति समय का ज्ञान नहीं रहता – सुख का अधिक समय भी थोड़ा ही जान पड़ता है ।
***
निरुत्साहस्य दीनस्य शोकपर्याकुलात्मनः ।
सर्वार्था व्यवसीदन्ति व्यसनं चाधिगच्छति ॥
भावार्थ :
उत्साह हीन, दीन और शोकाकुल मनुष्य के सभी काम बिगड़ जाते हैं , वह घोर विपत्ति में फंस जाता है ।
***
अपना-पराया-गुणगान् व परजनः स्वजनो निर्गुणोऽपि वा ।
निर्गणः स्वजनः श्रेयान् यः परः पर एव सः ॥
भावार्थ :
पराया मनुष्य भले ही गुणवान् हो तथा स्वजन सर्वथा गुणहीन ही क्यों न हो, लेकिन गुणी परजन से गुणहीन स्वजन ही भला होता है । अपना तो अपना है और पराया पराया ही रहता है ।
***
उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगा:।।
भावार्थ :
कोई भी कार्य परिश्रम करनें से ही पूरा होता है, उस कार्य को सिर्फ सोचनें या इच्छा करनें से वह कार्य पूरा नही होता है, जिस प्रकार एक सोते हुए सिंह के मुख में हिरण स्वयं नहीं आता, उसके लिए सिंह को परिश्रम करना पड़ता है।
***
अलब्धलाभो नालसस्य ॥
भावार्थ :
आलसी को कुछ भी प्राप्त नहीं होता ।
***
आलसस्य लब्धमपि रक्षितुं न शक्यते ॥
भावार्थ :
आलसी प्राप्त वस्तु की भी रक्षा नहीं कर सकता ।
***
अग्नि: शेषम् ऋण: शेषम् , व्याधि: शेषम् तथैवच।
पुनः पुनः प्रवर्धेत, तस्मात् शेषम् न कारयेत।|
भावार्थ :
हल्के में लेकर छोड़ दी गयी आग, कर्ज़ और बीमारी, मौक़ा पाते ही दोबारा बढ़कर ख़तरनाक हो जाती हैं। इसलिए इनका पूरी तरह उपचार बहुत आवश्यक होता है।
***
उत्साह-उत्साहो बलवानार्य नास्त्युत्साहात्परं बलम् ।
सोत्साहस्य हि लोकेषु न किञ्चदपि दुर्लभम् ॥
भावार्थ :
उत्साह बड़ा बलवान होता है; उत्साह से बढ़कर कोई बल नहीं है । उत्साही पुरुष के लिए संसार में कुछ भी दुर्लभ नहीं है ।
***
क्रोध – वाच्यावाच्यं प्रकुपितो न विजानाति कर्हिचित्।
नाकार्यमस्ति क्रुद्धस्य नवाच्यं विद्यते क्वचित् ॥
भावार्थ :
क्रोध की दशा में मनुष्य को कहने और न कहने योग्य बातों का विवेक नहीं रहता । क्रुद्ध मनुष्य कुछ भी कह सकता है और कुछ भी बक सकता है । उसके लिए कुछ भी अकार्य और अवाच्य नहीं है ।
***
कर्मफल-यदाचरित कल्याणि ! शुभं वा यदि वाऽशुभम् ।
तदेव लभते भद्रे! कर्त्ता कर्मजमात्मनः ॥
भावार्थ :
मनुष्य जैसा भी अच्छा या बुरा कर्म करता है, उसे वैसा ही फल मिलता है । कर्त्ता को अपने कर्म का फल अवश्य भोगना पड़ता है ।
***
आस्ते भग आसीनस्योर्ध्वस्तिष्ठति तिष्ठतः ।
शेते निपद्यमानस्य चराति चरतो भगश्चरैवेति ॥
जो मनुष्य बैठा रहता है, उसका सौभाग्य (भग) भी रुका रहता है । जो उठ खड़ा होता है उसका सौभाग्य भी उसी प्रकार उठता है । जो पड़ा या लेटा रहता है उसका सौभाग्य भी सो जाता है । और जो विचरण में लगता है उसका सौभाग्य भी चलने लगता है । इसलिए तुम विचरण ही करते रहो ।
***
न दैवमपि सञ्चित्य त्यजेदुद्योगमात्मनः ।
अनुद्योगेन कस्तैलं तिलेभ्यः प्राप्तुमर्हति ॥
दैव यानी भाग्य का विचार करके व्यक्ति को कार्य-संपादन का अपना प्रयास त्याग नहीं देना चाहिए । भला समुचित प्रयास के बिना कौन तिलों से तेल प्राप्त कर सकता है ?
***
वाक्सायका वदनान्निष्पतन्ति यैराहतः शोचन्ति रात्र्यहानि ।
परस्य नामर्मसु ते पतन्ति तान् पण्डितो नावसृजेत परेषु ॥
कठोर वचन रूपी बाण दुर्जन लोगों के मुख से निकलते ही हैं, और उनसे आहत होकर अन्य जन रातदिन शोक एवं चिंता के घिर जाते हैं । स्मरण रहे कि ये वाग्वाण दूसरे के अमर्म यानी संवेदनाशून्य अंग पर नहीं गिरते, अतः समझदार व्यक्ति ऐसे वचन दूसरों के प्रति न बोले ।
***
नारुन्तुदः स्यान्न नृशंसवादी न हीनतः परमभ्याददीत ।
ययास्य वाचा पर उद्विजेत न तां वदेदुषतीं पापलोक्याम् ॥
दूसरे के मर्म को चोट न पहुंचाए, चुभने वाली बातें न बोले, घटिया तरीके से दूसरे को वश में न करे, दूसरे को उद्विग्न करने एवं ताप पहुंचाने वाली, पापी जनों के आचरण वाली बोली न बोले ।
***
अबुद्धिमाश्रितानां तु क्षन्तव्यमपराधिनाम् ।
न हि सर्वत्र पाण्डित्यं सुलभं पुरुषेण वै ॥
अनजाने में जिन्होंने अपराध किया हो उनका अपराध क्षमा किया जाना चाहिए, क्योंकि हर मौके या स्थान पर समझदारी मनुष्य का साथ दे जाए ऐसा हो नहीं पाता है । भूल हो जाना असामान्य नहीं, अतः भूलवश हो गये अनुचित कार्य को क्षम्य माना जाना चाहिए ।
***
सद्भिः पुरस्तादभिपूजितः स्यात् सद्भिस्तथा पृष्ठतो रक्षितः स्यात् ।
सदासतामतिवादांस्तितिक्षेत् सतां वृत्तं चाददीतार्यवृत्तः ॥
व्यक्ति के कर्म ऐसे हों कि सज्जन लोग उसके समक्ष सम्मान व्यक्त करें ही, परोक्ष में भी उनकी धारणाएं सुरक्षित रहें । दुष्ट प्रकृति के लोगों की ऊलजलूल बातें सह ले, और सदैव श्रेष्ठ लोगों के सदाचारण में स्वयं संलग्न रहे ।
***
दन्तकाष्ठस्य खेटस्य विसर्जनमपावृतम् ।
नेष्टं जले स्थले भोग्ये मूत्रादेश्चापि गर्हितम् ॥
दातौन एवं कफ थूकने के पश्चात् उसे ढक देना चाहिए । इतना ही नहीं पानी, सार्वजनिक भूमि एवं आवासीय स्थल पर मूत्र आदि का त्याग निंदनीय कर्म है, अतः ऐसा नहीं करना चाहिए ।
***
मुखपूरं न भुञ्जीत सशब्दं प्रसृताननम् ।
प्रलम्बपादं नासीत न बाहू मर्दयेत् समम् ॥
मुंह में ठूंसकर, चप-चप जैसी आवाज के साथ एवं मुख पूरा फैलाकर भोजन नहीं करना चाहिए । पैर फैलाकर बैठने से भी बचे और दोनों बांहों को साथ-साथ न मरोड़े ।
***
नाङ्गुल्या कारयेत् किञ्चिद् दक्षिणेन तु सादरम् ।
समस्तेनैव हस्तेन मार्गमप्येवमादिशेत् ॥
रास्ते के बारे में पूछने वाले पथिक को उंगली के इशारे से संकेत नहीं देना चाहिए, बल्कि समूचे दाहिने हाथ को धीरे-से समुचित दिशा की ओर उठाते हुए आदर के साथ रास्ता दिखाना चाहिए ।
***
अथ चेद् बुद्धिजं कृत्वा ब्रूयुस्ते तदबुद्धिजम् ।
पापान् स्वल्पेऽपि तान् हन्यादपराधे तथानृजून् ॥
अब यदि बुद्धि प्रयोग से यानी सोच-समझकर अपराध करने के बाद वे तुमसे कहें कि अनजाने में ऐसा हो गया है, तो ऐसे मृथ्याचारियों को थोड़े-से अपराध के लिए भी दण्डित किया जाना चाहिए ।
***
सद्भिः पुरस्तादभिपूजितः स्यात् सद्भिस्तथा पृष्ठतो रक्षितः स्यात् ।
सदासतामतिवादांस्तितिक्षेत् सतां वृत्तं चाददीतार्यवृत्तः ॥
व्यक्ति के कर्म ऐसे हों कि सज्जन लोग उसके समक्ष सम्मान व्यक्त करें ही, परोक्ष में भी उनकी धारणाएं सुरक्षित रहें । दुष्ट प्रकृति के लोगों की ऊलजलूल बातें सह ले, और सदैव श्रेष्ठ लोगों के सदाचारण में स्वयं संलग्न रहे ।
***
दन्तकाष्ठस्य खेटस्य विसर्जनमपावृतम् ।
नेष्टं जले स्थले भोग्ये मूत्रादेश्चापि गर्हितम् ॥
दातौन एवं कफ थूकने के पश्चात् उसे ढक देना चाहिए । इतना ही नहीं पानी, सार्वजनिक भूमि एवं आवासीय स्थल पर मूत्र आदि का त्याग निंदनीय कर्म है, अतः ऐसा नहीं करना चाहिए ।
***
मुखपूरं न भुञ्जीत सशब्दं प्रसृताननम् ।
प्रलम्बपादं नासीत न बाहू मर्दयेत् समम् ॥
मुंह में ठूंसकर, चप-चप जैसी आवाज के साथ एवं मुख पूरा फैलाकर भोजन नहीं करना चाहिए । पैर फैलाकर बैठने से भी बचे और दोनों बांहों को साथ-साथ न मरोड़े ।
***
नाङ्गुल्या कारयेत् किञ्चिद् दक्षिणेन तु सादरम् ।
समस्तेनैव हस्तेन मार्गमप्येवमादिशेत् ॥
रास्ते के बारे में पूछने वाले पथिक को उंगली के इशारे से संकेत नहीं देना चाहिए, बल्कि समूचे दाहिने हाथ को धीरे-से समुचित दिशा की ओर उठाते हुए आदर के साथ रास्ता दिखाना चाहिए ।
***
अथ चेद् बुद्धिजं कृत्वा ब्रूयुस्ते तदबुद्धिजम् ।
पापान् स्वल्पेऽपि तान् हन्यादपराधे तथानृजून् ॥
अब यदि बुद्धि प्रयोग से यानी सोच-समझकर अपराध करने के बाद वे तुमसे कहें कि अनजाने में ऐसा हो गया है, तो ऐसे मृथ्याचारियों को थोड़े-से अपराध के लिए भी दण्डित किया जाना चाहिए ।
***
गुरु शिष्य की कहानियाँ : Click Here
गुरू शिष्य संबंध पर कविता : Click Here
गुरू शिष्य पर श्लोक : Click Here
दोस्तों ! उम्मीद है संस्कृत में श्लोक और सुविचार (Sanskrit Shlok With Hindi Meaning) आपके लिए जरुर प्रेरणास्रोत साबित हुए होगें । और गर आपको इन शायरी में कोई त्रुटी नजर आयी हो या इससे संबंधित कोई सुझाव हो तो वो भी आमंत्रित हैं। आप अपने सुझाव को इस लिंक Facebook Page Facebook Page के जरिये भी हमसे साझा कर सकते है। और हाँ हमारा free email subscription जरुर ले ताकि मैं अपने future posts सीधे आपके inbox में भेज सकूं। धन्यवाद!
|