Story on Ghar Ka Bhedi Lanka Dhaye

घर का भेदी, लंका ढाए। यह एक जगत प्रसिद्ध लोकोक्ति है, जोकि हिन्दू धर्मग्रंथ “रामायण” के एक अहम् पात्र विभीषण के संदर्भ में उपयोग किया जाता है। लेकिन यहां पर रामायण की कहानी नहीं बता रही हूँ, बल्कि इस मुहावरे और लोकोक्तियाँ से बनी कहानी बताने जा रही हूँ..इसका उपयोग आप सीखने या उत्प्रेरित होने के लिए कर सकते है।
घर का भेदी, लंका ढाए (Ghar ka Bhedi; Lanka Dhaye in Hindi, Story)
एक घने जंगल के बीचोबीच बहुत सुन्दर नदी बहती थी। उस नदी के एक छोर पर हंसों का राज्य था और दूसरे छोर पर मोरों का। हंसों के राजा का नाम हिरण्यगर्भ और मोरों के राजा का नाम चित्रवर्ण था। दोनों राजाओं में चिरकाल से बड़ा मनमुटाव था। या यूं कहे कि जितनी अप्रसन्नता हिरण्यगर्भ को चित्रवर्ण के उस पार रहने से थी उतनी ही अप्रसन्नता चित्रवर्ण को हिरण्यगर्भ कि इस पार रहने से थी। और इतना ही नहीं दोनों एक दूसरे का राज्य हड़प कर अपना अपना वर्चश्व भी साबित करना चाहते थे। इसके लिए दोनों लड़ने मरने को तैयार थे, बस केवल लड़ाई का कोई बहाना खोज रहे थे।
उन्हें बहाना मिलने भी देर न लगी। हुआ यूं कि एक दिन हिरण्यगर्भ का मंत्री बगुला नदी में तैरते-तैरते पानी की धारा में बह कर उस पार जा लगा। फिर क्या ? चित्रवर्ण के सिपाहियों और पहरेदारों ने उसको घेर लिया।
तो बगुले ने बड़ी मिन्नत करके कहा- कृपया जाने दो मुझे। इस बार क्षमा कर दो। मैं यहां जानबूझकर नहीं आया हूं। बल्कि नदी के वेग से बहकर इस किनारे आ लगा हूं। अब मेरी जान बख्श दी जाए और मुझे अपने राज्य में लौटने दिया जाए।
तभी एक युवा सिपाही ने घुडककर कहा- चलता है कि नहीं सीधी तरह से हमारे राजा के पास, नहीं तो लातें मार- मारकर तेरी कमर तोड़ दूंगा |
बगुले ने गिडगिडाकर कहा – इस बार क्षमा कर दो संतरी साहब |
सिपाही – क्षमा करना हमारा काम नहीं। हमारा काम है, तुम्हे पकड़ कर महाराज चित्रवर्ण के सामने उपस्थित कर देना। यदि क्षमा मांगना हैं तो उन्हीं से मांगना।
बेचारा बगुला चित्रवर्ण के सिपाहियों – कौवों – मुर्गो से घिरा हुआ चल रहा था। सहसा उसके मन में विचार आया –
अद्भुत अवसर आया हाथ, सूझी मुझे अनोखी बात,
राह में जो भी आए स्थान, करता जाऊं मैं पहचान,
कहीं लड़ाई यदि छिड़ जाए, सेना सेना से टकराए,
तब आए यह काम हमारे, देखू सारे कूल किनारे।।
यह सोचकर बगुला एक-एक स्थान, एक एक वृक्ष और एक एक तालाब को ध्यान से देखता गया। जब वह राजा के सामने खड़ा किया गया तो उसका सब भय दूर हो चुका था और उसने सब कुछ सोच लिया था कि वह किस ढंग से और कौन सी बात करेगा।
चित्रवर्ण ने बड़े घमंड से उससे पूछा- बगुले ! तुम कहां से आए हो?
बगुले ने कहा- मैं नदी के पार महाराज हिरण्यगर्भ के पास से आया हूं।
चित्रवर्ण – तुम उसे महाराज कह कर मत पुकारो! हां तो तुम हिरण्यगर्भ के पास क्या करते हो?
बगुला- मैं अपने महाराज का मंत्री हूं।
चित्रवर्ण – फिर वही महाराज की रट लगाई तुमने। देखो, तुम्हें फिर स्मरण करवाता हूं कि मेरे सामने उस निगोड़े हंस को महाराज कर कर मत पुकारना। हां, मैं तुमसे पूछना चाहता हूं कि तुम्हें हमारा राज्य अच्छा लगता है या हिरण्यगर्भ का।
बगुला- मैं आपके राज्य को अच्छी प्रकार देखे बिना कैसे बता सकता हूं कि आपका राज्य अच्छा है या हमारे राजा का। आप पहले मुझे अपने राज्य का कोना-कोना दिखाइए, फिर मैं आपके इस प्रश्न का उत्तर दूंगा।
बगुले की चालाकी चित्रवर्ण की समझ में ना आई और उसने अपने सिपाही मुर्गे के साथ बगुले को सारा राज्य देखने की आज्ञा दे दी। बगुला इसी बहाने से चित्रवर्ण के राज्य में गुप्त से गुप्त स्थानों का पता लगाने के लिए चल पड़ा। वे लोग कहां रहते हैं, कहां सोते हैं, कहां धन-सामान रखते हैं इत्यादि सब बातें बगुले ने पता लगा लीं। जब वह राज्य देखकर लौट आया तो चित्रवर्ण ने पूछा – क्यों रे बगुले! क्या तुमने हमारा सारा राज्य देख लिया है?
बगुला – हाँ देख लिया है।
चित्रवर्ण – अब बताओ कि हमारा राज्य अच्छा है या तुम्हारे राजा का?
बगुला बोला-
राज्य हमारा ही अच्छा है, यह तो है बस जंगल बीहड़,
स्वर्ग सरीखा राज्य हमारा, नरक का देश तुम्हारा।
तो चित्रवर्ण ने कहा- हैं ! तेरा इतना साहस कि मेरे सामने ही तू मेरे राज्य की निंदा कर रहा है!
बगुला बोला – इसमें निंदा और प्रशंसा की बात ही क्या? हमारा राज्य सुंदर है इसीलिए मैंने सुंदर कह दिया, इसमें संदेह की कौन सी बात है।
चित्रवर्ण गुस्से में – इस बात का हमें निर्णय करना होगा कि दोनों राज्यों में कौन सा राज्य सुंदर है। तुम ही बताओ कि निर्णय कैसे लिया जाए?
बगुला- मैंने तो आपको ठीक ही कहा है कि हमारा राज्य सुंदर है, यदि आपको मुझ पर विश्वास ना हो तो स्वयं चल कर देख लीजिए।
चित्रवर्ण -(क्रोध से) वाह रे बगुले! तू जबान संभाल कर क्यों नहीं बोलता? तू मुझे उस नीच हिरण्यगर्भ के पास जाने को कहता है? मैं तो उसे अपने पांव की धूल के समान भी नहीं समझता!
बगुला बोला – हमारे महाराज तो मोती चुगने वाले हंस हैं! वह क्यों होने लगे पांव की धूल। यदि आपको उनके बड़प्पन में संदेह है तो उनसे एक युद्ध करके देख लीजिए।
चित्रवर्ण – तेरी इतनी मजाल कि मुझे युद्ध के लिए ललकारता है! सिपाहियों! नोच डालो! मार डालो! काट डालो! इस दुष्ट बगुले को! इसे मेरे सामने बोलने की भी सभ्यता नहीं।
सभी सिपाही बगुले को मारने दौड़े, किंतु कवि ने महाराज चित्रवर्ण को समझाया कि दूसरे राजा के मंत्री को मारना या दूत को मारना नियम विरुद्ध है। कवि की बात सुनकर चित्रवर्ण ने बगुले को अपने दरबार से निकाल दिया और गरजते हुए कहा – जाओ! अपने राजा को कह दो कि युद्ध के लिए तैयार रहें।
बगुला नदी तैरकर अपने राजा के पास चला गया और उसने चित्रवर्ण के राज्य का सारा हाल कह सुनाया। मंत्री के अपमान का बदला लेने के लिए हिरण्यगर्भ ने भी सेना को युद्ध के लिए तैयार रहने की आज्ञा दे दी। उन्होंने तालाब में से निकल कर एक वृक्ष पर लकड़ियों का किला भी बना लिया।
उधर चित्रवर्ण ने अपने सेवक से कहा- कौए, मुझे तुझ पर बहुत विश्वास है। मैं जानता हूं कि तू किसी भी कठिन काम को चतुराई से कर सकता है । अब तुम –
दुश्मन के घर जाओ, अता-पता सब लेकर आओ
भेद जानकर सभी, लड़ाई करने को हम करें चढ़ाई।
चित्रवर्ण की बात मानकर कौवा हिरण्यगर्भ के राज्य में आ गया और गिड़गिड़ा कर बोला- महाराज! मैं आपके शत्रु चित्रवर्ण के पास नौकर था और सदा आपकी प्रशंसा किया करता था। इसी दोष के कारण उसने मुझे मारपीट कर निकाल दिया है। अब यदि आप मुझे अपनी शरण में ले ले तो मेरे प्राण बच जाएंगे, नहीं तो मैं अकेला तड़प तड़प कर मर जाऊंगा। हिरण्यगर्भ ने कौवे को अपने यहां नौकर रख लिया।
कौवा वास्तव में चित्रवर्ण की ओर से वहां का भेद लेने आया था, इसीलिए बीच-बीच में इधर की खबर उधर पहुंचाया करता था। इस प्रकार चित्रवर्ण को भी हंसों के देश का सब हाल पता चल गया।
एक दिन अवसर देखकर चित्रवर्ण ने हिरण्यगर्भ पर चढ़ाई कर दी। हिरण्यगर्भ अपनी सेना को लेकर चित्रवर्ण से युद्ध करने गया तो पीछे से कौवे ने उनके लकड़ी के किले में आग लगा दी और भागकर चित्रवर्ण के पास पहुंच गया। हंसों का किला तो जल गया फिर भी वह लड़ते रहे। कई दिनों तक युद्ध के बाद चित्रवर्ण की जीत हो गई । किंतु उधर से बरसात आरंभ हो चुकी थी। बरसात मोरों के नाचने और आनंद मनाने का समय होता है, इसीलिए उसने हिरण्यगर्भ हंस को बुलाकर कहा –
देखो वर्षा ऋतु आई ! नभ में सघन बदरिया छाई
छोड़-छाड़ कर सभी लड़ाई, आओ मिल लें भाई भाई।
इस प्रकार बरसात की ठंडी-ठंडी फुहारों में दोनों पुराने शत्रुओं ने अपनी अपनी शत्रुता को धो दिया और वे सदा के लिए मित्र बन गए।
कहानी से सीख (Moral of The Story) – इस कहानी से हमें शिक्षा मिलती है कि दुश्मन मित्र या संबंधी किसी भी रूप में हो सकते है और ये बाहर के दुश्मन से ज्यादा ख़तरनाक होते है क्योंकि इन्हें घर के सारे राज पता होते हैं। हमारी सारी कमज़ोरियाँ पता होती है। और जिसे समय आने पर हमारे ख़िलाफ़ उपयोग करते है। इसका कोई भी कारण हो सकता है- कोई लोभ पाने के लिए, ईर्ष्याग्रस्त होकर, किसी बात का बदला लेने के लिए।
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आशा करती हूँ कि ये Short Moral and Inspirational कहानी छोटे और बड़े सभी के लिए उपयोगी सिद्ध होगी। गर आपको हमारा यह पोस्ट अच्छा लगा हो तो इसमें निरंतरता बनाये रखने में आप का सहयोग एवं उत्साहवर्धन अत्यंत आवश्यक है।
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