संत कबीर दास के दोहे – Kabir ke Dohe Arth Sahit in Hindi

गुरु गोविन्द दोऊ एक हैं, दुजा सब आकार ।
आपा मैटैं हरि भजैं , तब पावैं दीदार ।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि गुरु और गोविंद दोनो एक ही हैं केवल नाम का अंतर है। गुरु का बाह्य (शारीरिक) रूप चाहे जैसा हो किन्तु अंदर से गुरु और गोविंद मे कोई अंतर नही है। मन से अहंकार कि भावना का त्याग करके सरल और सहज होकर आत्म ध्यान करने से सद्गुरू का दर्शन प्राप्त होगा। जिससे प्राणी का कल्याण होगा। जब तक मन मे मैलरूपी “मैं और तू” कि भावना रहेगी तब तक दर्शन नहीं प्राप्त हो सकता।
गुरु बिन ज्ञान न उपजै, गुरु बिन मिलै न मोष ।
गुरु बिन लखै न सत्य को गुरु बिन मैटैं न दोष ।।
कबीर दास जी कहते है – हे सांसारिक प्राणीयों ! बिना गुरु के ज्ञान का मिलना असंभव है। तब तक मनुष्य अज्ञान रुपी अंधकार मे भटकता हुआ मायारूपी सांसारिक बन्धनो मे जकडा रहता है जब तक कि गुरु कि कृपा नहीं प्राप्त होती। मोक्ष रुपी मार्ग दिखलाने वाले गुरु हैं। बिना गुरु के सत्य एवम् असत्य का ज्ञान नही होता। उचित और अनुचित के भेद का ज्ञान नहीं होता फिर मोक्ष कैसे प्राप्त होगा ? अतः गुरु की शरण मे जाओ। गुरु ही सच्ची राह दिखाएंगे।
गुरु समान दाता नहीं, याचक सीष समान ।
तीन लोक की सम्पदा, सो गुरु दिन्ही दान ।।
इस दोहे में कबीरदास कहते हैं कि संपूर्ण संसार में गुरु के समान कोई दानी नहीं है और शिष्य के समान कोई याचक नहीं है। ज्ञान रुपी अमृतमयी अनमोल संपती गुरु अपने शिष्य को प्रदान करके कृतार्थ करता है और गुरु द्वारा प्रदान कि जाने वाली अनमोल ज्ञान सुधा केवल याचना करके ही शिष्य पा लेता है।
गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढि गढि काढैं खोट ।
अंतर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट ।।
संसारी जीवों को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करते हुए भक्त शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं – गुरु कुम्हार है और शिष्य मिट्टी के कच्चे घडे के समान है। जिस तरह घडे को सुंदर बनाने के लिए अंदर हाथ डालकर बाहर से थाप मारता है ठीक उसी प्रकार शिष्य को कठोर अनुशासन में रखकर अंतर से प्रेम भावना रखते हुए शिष्य की बुराईयो कों दूर करके संसार में सम्माननीय बनाता है।
दया धर्म का मूल है, पाप मूल संताप ।
जहा क्षमा वहां धर्म है, जहा दया वहा आप ।।
परमज्ञानी कबीर दास जी अपनी वाणी से मानव जीवन को ज्ञान का उपदेश करते हुए कहते है। कि दया, धर्म की जड़ है और पाप युक्त जड़ दूसरों को दु:खी करने वाली हिंसा के समान है। जहा क्षमा है वहा धर्म का वास होता है तथा जहा दया है उस स्थान पर स्वयं परमात्मा का निवास होता है अतः प्रत्येक प्राणी को दया धर्म का पालन करना चाहिए।
माली आवत देखि के, कलियां करे पुकार ।
फूली फूली चुन लई, काल हमारी बार ।।
माली को आता हुआ देखकर कलियां पुकारने लगी, जो फूल खिल चुके थे उन्हें माली ने चुन लिया और जो खिलने वाली है उनकी कल बारी है। फूलों की तरह काल रूपी माली उन्हें ग्रस लेता है जो खिल चुके है अर्थात जिनकी आयु पूर्ण हो चुकी है, कली के रूप में हम है हमारी बारी कल की है। तात्पर्य यह कि एक एक करके सभी को काल का ग्रास बनना है।
प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय ।
राजा परजा जो रुचै, शीश देय ले जाय ।।
कबीर जी कहते है कि प्रेम की फसल खेतों में नहीं उपजती और न ही बाजारों में बिकती है अर्थात यह व्यापार करने वाली वस्तु नहीं है। प्रेम नामक अमृत राजा रैंक, अमीर – गरीब जिस किसी को रुचिकर लगे अपना शीश देकर बदले में ले।
Get FREE e – book “ पैसे का पेड़ कैसे लगाए ” [Click Here] |
तन को जोगी सब करै, मन को करै ल कोय ।
सहजै सब विधि पाइये, जो मन जोगी होय ।।
कबीर कहते हैं, ऊपरी आवरण धारण करके हर कोई योगी बन सकता है किन्तु मन की चंचलता को संयमित करके कोई योगी नहीं बनता। यदि मन को संयमित करके योगी बने तो सहजरूप में उसे समस्त सिद्धीयां प्राप्त हो जायेंगी।
काम क्रोध मद लोभ की, जब लग घट में खान ।
कबीर मूरख पंडिता, दोनो एक समान ।।
संत शिरोमणी कबीर जी मूर्ख और ज्ञानी के विषय में कहते हैं कि जब तक काम, क्रोध, मद एवम् लोभ आदि दुर्गुण मनुष्य के हृदय में भरा है तब तक मूर्ख और पंडित (ज्ञानी) दोनों एक समान है। उपरोक्त दुर्गुणों को अपने हृदय से निकालकर जो भक्ति ज्ञान का अवलम्बन करता है वही सच्चा ज्ञानी है।
कबीर संगतिसाधु की, जो करि जाने कोय ।
सकल विराछ चन्दन भये, बास न चन्दन होय ।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि साधु जनों की संगति करने वाला ही उनके गुण को जानता है ठीक उसी प्रकार जैसे चन्दन वृक्ष के निकट होने से सभी वृक्ष चन्दन के हो जाते है किन्तु वांस का पेड़ चन्दन नहीं होता क्यों कि वह अन्दर से खोखला और ऊपर से कठोर होता हैं अर्थात् जो अभिमानी होते हैं उन पर सत्संग का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत कि खान ।
सीस दिये जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान ।।
कबीर कहते है कि यह शरीर विष युक्त बेल के समान है। इसमें संसारिक विषयरुपी विष भरा हुआ है किन्तु गुरु तो अमृत की खान है अर्थात वे विषय विकार से रहित हैं। एसे सद्गुरू यदि शीश अर्पित करने पर भी मिल जाये तो समझो यह सौदा बहुत ही सस्ता है।
साँई इतना दीजिए, जामे कुटुम समाय ।
मैं भी भूखा ना रहॅू, साधु न भूखा जाय ।।
कबीर दास जी भगवान से अरदार करते हुए कहते हैं कि प्रभू! आप मुझे उतना ही दे जिसमें मैं अपना और अपने परिवार का पालन पोषण कर सकूँ तथा मेरे द्वार पर संत जन आये तो उनका सत्कार मैं भली प्रकार कर सकूँ।
जहां दया वहां धर्म है , जहां लोभ तहं पाप ।
जहां क्रोध वहां काल है, जहां क्षमा वहां आप ।।
आगे वे कहते हैं कि जहां दया है उस स्थान पर धर्म का वास होता है और जहां पर लोभ की अधिकता है वहां पाप बसता है। इतना ही नहीं जहां क्रोध है वहां काल है। कहने का तात्पर्य हैं कि जिस स्थान पर अर्थात जिस प्राणी के हृदय में क्षमा भाव है केवल वहीं स्वयं अन्तर्यामी परमात्मा निवास करते है।
सांच बराबर तप नहीं , झूठ बराबर पाप ।
जाके हिरदे सांच है, ताके हिरदे आप ।
कबीर दस जी कहते हैं की इस जगत में सत्य के मार्ग पर चलने से बड़ी कोई तपस्या नहीं है और ना ही झूठ बोलने से बड़ा कोई पाप है क्योंकि जिसके हृदय में सत्य का निवास होता है उसके हृदय में साक्षात् परमेश्वर का वास होता है ।
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।
ये उन लोगों के ऊपर कटाक्ष है जो धर्मभीरु होते हैं। कबीर की ऐसे लोगों के लिए सलाह है कि हाथ में लेकर मोती की माला फेरने से कुछ नहीं होता, उससे मन का भाव नहीं बदलता, मन की हलचल भी शांत नहीं होती। असल में व्यक्ति को मन का मैल साफ़ करना होगा। हाथ की इस माला को फेरना छोड़ कर, सबसे पहले मन का मैल साफ करो। अपने मन में शुद्ध विचार भरो। धर्मभीरुता छोड़ के अपने मन को बदल ।
क्काज्ल केरी कोठारी, मसि के कर्म कपाट।
पांहनि बोई पृथमीं,पंडित पाड़ी बात॥
कबीर जी ने कहा कि यह संसार काजल की कोठरी है, इसके कर्म रूपी कपाट कालिमा के ही बने हुए हैं। पंडितों ने पृथ्वी पर पत्थर की मूर्तियाँ स्थापित करके मार्ग का निर्माण किया है।
कस्तूरी कुंडली बसै, मृग ढूँढै बन माँहि।
ऐसैं घटि- घटि राँम है, दुनियां देखै नाँहिं।।
कबीरदास जी कहते हैं अज्ञानतावश एक हिरण कस्तूरी को पाने के लिए वन-वन भटकता रहता है पर कस्तूरी उसके नाभि में ही विद्यमान रहती है। उसी प्रकार ईश्वर भी मनुष्य के हृदय में विद्यमान हैं परंतु मनुष्य अज्ञानता के कारण उसे अलग-अलग स्थानों में ढूँढ़ता रहता है।
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नांहि।
सब अँधियारा मिटी गया, जब दीपक देख्या माँहि।।
कबीर जी कहते हैं कि जब तक मुझमें अहम् यानि अहंकार था तबतक मेरे हृदय में ईश्वर का निवास नहीं था । जब मैंने ज्योति रूपी दीपक अपने मन देखा तो अज्ञान रूपी अहंकार मिट गया। अब मेरे हृदय में ईश्वर निवास है। इसलिए अहंकार नहीं है।
यद्यपि कबीर दास जी का विश्वास तीर्थों इत्यादि में नहीं था परन्तु यह निश्चित है, वह जानते थे कि ईश्वर के वियोग में मनुष्य जीवित नहीं रह सकता और अगर रह भी जाता है तो वह पागल हो जाता है। यथा दोहे में वे कहते हैं –
जरुर पढ़े : रहीम दास के दोहे हिंदी अर्थ सहित
बिरह भुवंगम तन बसै , मंत्र न लागै कोइ।
राम बियोगी ना जिवै ,जिवै तो बौरा होइ।।
अर्थात जब मनुष्य के मन में अपनों के बिछड़ने का गम सांप बन कर लोटने लगता है तो उस पर न कोई मन्त्र असर करता है और न ही कोई दवा असर करती है। वस्तुतः राम अर्थात ईश्वर के वियोग में मनुष्य जीवित नहीं रह सकता और यदि वह जीवित रहता भी है तो उसकी स्थिति पागलों जैसी हो जाती है। इसीलिए वे अज्ञान रूपी अंधकार में सोये हुए मनुष्यों को देखकर और दुःखी हो रहें हैं और रो रहे हैं।
सुखिया सब संसार है , खायै अरु सोवै।
दुखिया दास कबीर है , जागै अरु रोवै।।
कबीर कहते हैं कि इस संसार में सही मायने में सुखी तो वो है जो दिन रात प्रभु की आराधना करता है। लेकिन यहाँ तो सब अपने अपने सुखों में मगन हैं। वे खाते हैं, पीते हैं, मौज मस्ती करते हैं और सो जाते हैं। इतना ही नहीं संसार के लोग विषय-
हम घर जाल्या आपणाँ , लिया मुराड़ा हाथि।
अब घर जालौं तास का, जे चलै हमारे साथि।।
कबीर जी कहते हैं कि उन्होंने अपने हाथों से अपना घर जला दिया है अर्थात उन्होंने मोह -माया रूपी घर को जला कर ज्ञान का प्रकाश प्राप्त कर लिया है। और अभी भी उनके हाथों में वह जलती हुई मशाल ( लकड़ी) है और जिससे वे अब उसका घर जलाएंगे जो उनके साथ चलना चाहता है अर्थात उसे भी मोह – माया से मुक्त होना होगा जो ज्ञान का प्रकाश प्राप्त करना चाहता है। इसमें भी कबीर जी पुस्तक ज्ञान को महत्त्व न देकर ईश्वर – प्रेम को महत्त्व देते हैं।

पोथी पढ़ि – पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोइ।
ऐकै अषिर पीव का, पढ़ै सु पंडित होइ।
बड़ी बड़ी पुस्तकें पढ़ कर संसार में कितने ही लोग मृत्यु के द्वार पहुँच गए, पर सभी विद्वान न हो सके. कबीर मानते हैं कि यदि कोई प्रेम या प्यार के केवल ढाई अक्षर ही अच्छी तरह पढ़ ले, अर्थात प्यार का वास्तविक रूप पहचान ले तो वही सच्चा ज्ञानी होगा.
निरमल गुरु के नाम सों, निरमल साधु भाय।
कोइला होय न ऊजला, सौ मन साबुन लाय॥
कबीर कहते हैं कि सत्गुरू के सत्य – ज्ञान से निर्मल मनवाले लोग भी सत्य – ज्ञानी हो जाते हैं, लेकिन कोयले की तरह काले मनवाले लोग मन भर साबुन मलने पर भी उजले नहीं हो सकते – अर्थात उन पर विवेक और बुद्धि की बातों का कोई असर नहीं पड़ता । वही एक और स्थान पर उन्होंने लिखा हैं कि –
ऊंचे कुल क्या जनमिया जे करनी ऊंच न होय।
सुबरन कलस सुरा भरा साधू निन्दै सोय ॥
ऊँचे कुल में जन्म तो ले लिया परन्तु अगर कर्म ऊँचे नहीं है तो ये तो ऐसे बात हुई जैसे सोने के लोटे में जहर भरा हो, ऐसे व्यक्तियों की चारों ओर निंदा ही होती है।
कबीर संगति साध की , कड़े न निर्फल होई ।
चन्दन होसी बावना , नीब न कहसी कोई ॥
कबीर कहते हैं कि साधु की संगति कभी निष्फल नहीं होती। चन्दन का वृक्ष यदि छोटा – (वामन – बौना ) भी होगा तो भी उसे कोई नीम का वृक्ष नहीं कहेगा। वह सुवासित ही रहेगा और अपने परिवेश को सुगंध ही देगा। अपने आस-पास को खुशबू से ही भरेगा अर्थात संसार में सबसे बड़ा लाभ है साधु की संगति का प्राप्त होना। जैसी संगति होती है वैसी ही मति होती है और जैसी मति होती है वैसी ही गति होती है। साधु की संगति हमारे क्लेश, कलह और इच्छाओं को समाप्त करती है।
कबीरदास के 115 दोहे एवं पद अर्थ सहित यहाँ पढ़े
गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागू पाय ।
बलिहारी गुरु आपनो, जिन गोविंद दियो बताय ।।
कबीरदास जी कहते हैं कि गुरू और गोबिंद (भगवान) एक साथ खड़े हों तो किसे प्रणाम करना चाहिए – गुरू को अथवा गोबिन्द को? ऐसी स्थिति में गुरू के श्रीचरणों में शीश झुकाना उत्तम है जिनके कृपा रूपी प्रसाद से गोविन्द का दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वही एक अन्य स्थान पर कवि कबीर कहते है –
यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान ।
शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान ॥
यह शारीर एक विष से व्याप्त पौधे के सामान है जिसे एक गुरु रूपी अमृत ही स्वच्छ कर सकता है, गुरु रूपी अमृत प्राप्त करने के लिए यदि अपने जीवन को भी त्यागना पड़े तो भी यह सौदा सस्ता ही है।
ध्यान दें! “गु मतलब अंधकार (अज्ञान) और रु मतलब निकलने वाला।” अतएव गुरु वो है जो आनंद देने वाला है और माया को समाप्त कर देने वाला है। अथवा अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला है। तो ऐसे किसी गुरु को क्या दूँ। वे कहते हैं –
राम नाम कै पटंतरे, देबे कौं कुछ नाहिं।
क्या लै गुरु संतोषिए, हौंस रही मन माँहि॥
गुरुजी ने राम नाम रूपी जो अनमोल रत्न कृपावश मुझ अज्ञानी को दान में दे दिया है इस अनमोल रत्न के समान दक्षिणा देने के लिये मेरे पास कुछ नही है, क्योंकि गुरु ने ज्ञानरूपी, ईश्वर रूपी जो दान मुझे किया है, वो इतना मूल्यवान है कि मुझ निर्धन के पास बदले में चुकाने के लिये उतना मूल्यवान कुछ भी नही है। कुल मिलाजुला कर देखें तो कबीर के गुरु के बारे में रचे गए दोहे इसकी साक्षी रही है कि गुरु राजा हो या रंक सभी के लिए सर्वोपरि होता है।
कबीर के दोहों और सिद्धांतों में सुधारात्मक तथा उपदेशात्मकता की भरमार तो थी ही साथ में सजगता, जागरूकता एवं नूतनता भी थी। तभी तो समय की अमूल्यता को इस कवि ने सदियों पहले ही समझ लिया था। उन्होंने अपने दोहे कल करे सो आज कर आज करे सो अब (Tomorrow’s Work do Today) में कोई भी काम समय से करने पर विशेष बल दिया है। यह हिंदी की अत्यंत प्रसिद्द सूक्ति है जिसका प्रयोग लोग प्राय: कहावत के रूप में करते हैं । यह दोहा कबीर के एक दोहे का पूर्वार्द्ध है। उनका पूरा दोहा इस प्रकार है –
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब ।
पल में प्रलय होएगी,बहुरि करेगा कब ॥
कबीर दास जी समय की महत्ता बताते हुए कहते हैं कि जो कल करना है उसे आज करो और जो आज करना है उसे अभी करो , कुछ ही समय में जीवन ख़त्म हो जायेगा फिर तुम क्या कर पाओगे !
“तलफै बिनु बालम मोर जीया,
दिन नहीं चैन, रात नहीं निंदिया,
तलफ – तलफ कैभोर किया।
तन – मन – मोर रहत अस डोलैं,
सून सेज पर जनम दिया।”
नैन थकित भये पथ न सूझै, साई बेदरदी सुध न लिया,
कहत कबीर सुनो भाई साधो, हरो पीर दुख जोर किया।”
कबीर अपनी रचानों में बार बार परम ब्रह्म के विरह में तड़पती हुई अपनी आत्मा का चित्रण करते है। इनकी आत्मा को बालम के विरह में न तो रात को चैन है और न दिन को। आँखे प्रतीक्षा में रुक गयी है। किन्तु उस बेदर्द बालम ने सुध तक नहीं ली।
हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना,
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना।
कबीर कहते हैं कि हिन्दू राम के भक्त हैं और तुर्क (मुस्लिम) को रहमान प्यारा है। इसी बात पर दोनों लड़-लड़ कर मौत के मुंह में जा पहुंचे, तब भी दोनों में से कोई सच को न जान पाया।
“हिन्दू तर्क की राह है, सतगुरु इहै बताय,
कहे कबीर सुनो हे संतो, राम न कहेउ खुदाय।
ऊँचे कुल का जन्मीया, करनी ऊँच न होय,
सुबरन कलश सुरा भरा, साधो निंदा सोय।।”
कबीर ने समता पर भी जोर दिया है। उनकी दृष्टि में न तो कोई ब्राह्मण, न कोई शुद्र, न कोई राम और न कोई रहीम, किसी के बीच में कोई अंतर नहीं। उनका मानना था –
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान,
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।
सज्जन की जाति न पूछ कर उसके ज्ञान को समझना चाहिए। तलवार का मूल्य होता है न कि उसकी मयान का – उसे ढकने वाले खोल का।
कबीर कहते है बड़ा वो है जिनका कर्म बड़ा है –
जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ,
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।
जो प्रयत्न करते हैं, वे कुछ न कुछ वैसे ही पा ही लेते हैं जैसे कोई मेहनत करने वाला गोताखोर गहरे पानी में जाता है और कुछ ले कर आता है। लेकिन कुछ बेचारे लोग ऐसे भी होते हैं जो डूबने के भय से किनारे पर ही बैठे रह जाते हैं और कुछ नहीं पाते।
वैसे तो कबीर के दोहे को किसी सीमा में बाँधा नहीं जा सकता है। उनके निर्गुणोपासक में न तो मुसलमानों के एकेश्वरवाद को स्थान प्राप्त था और न हिन्दुओं की सगुणोपासना को। वे जाति – पाति के बंधन को नहीं मानते थे, वास्तव में एक सच्चे मानव थे। वे कहते हैं –
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय,
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।
जब मैं पूरी दुनिया में खराब और बुरे लोगों को देखने निकला तो मुझे कोई बुरा नहीं मिला. और जो मैंने खुद के भीतर खोजने की कोशिश की तो मुझसे बुरा कोई नहीं मिला.
कबीर का विस्तृत जीवन परिचय और संदेश यहाँ पढ़े
निंदक नेड़ा राखिये , आँगणि कुटी बँधाइ।
बिन साबण पाँणीं बिना , निरमल करै सुभाइ।।
कबीर निंदा करने वाले व्यक्तियों को अपने पास रखने की सलाह देते हैं ताकि आपके स्वभाव में सकारात्मक परिवर्तन आ सके। वे कहते हैं कि हमें हमेशा निंदा करने वाले व्यक्तिओं को अपने निकट रखना चाहिए। हो सके तो अपने आँगन में ही उनके लिए घर बनवा लेना चाहिए अर्थात हमेशा अपने आस पास ही रखना चाहिए। ताकि हम उनके द्वारा बताई गई हमारी गलतिओं को सुधार सकें। इससे हमारा स्वभाव बिना साबुन और पानी की मदद के ही साफ़ हो जायेगा। लेकिन एक अन्य स्थान पर वे यह भी कहतें हैं कि –
तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय,
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।
कबीर कहते हैं कि एक छोटे से तिनके की भी कभी निंदा न करो जो तुम्हारे पांवों के नीचे दब जाता है। यदि कभी वह तिनका उड़कर आँख में आ गिरे तो कितनी गहरी पीड़ा होती है !
ऐसी बाँणी बोलिये, मन का आपा खोइ।
अपना तन सीतल करै, औरन कौ सुख होइ।।
कबीरदास जी इस साखी के माध्यम से वाणी के महत्व को बताना चाहते हैं। वे कहते हैं कि मनुष्य को ऐसी वाणी का प्रयोग करना चाहिए जिससे अपने मन का अहंकार मिट जाए और सुनने वाले को भी अच्छा लगे। मीठी वाणी से शत्रु भी मित्र बन जाते हैं। कटु वाणी से मित्र भी शत्रु बन जाते हैं। अत: हमें अच्छी वाणी का प्रयोग करना चाहिए।
यथा वे कहते हैं –
बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि,
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।
यदि कोई सही तरीके से बोलना जानता है तो उसे पता है कि वाणी एक अमूल्य रत्न है। इसलिए वह हृदय के तराजू में तोलकर ही उसे मुंह से बाहर आने देता है।
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप,
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।
न तो अधिक बोलना अच्छा है, न ही जरूरत से ज्यादा चुप रहना ही ठीक है। जैसे बहुत अधिक वर्षा भी अच्छी नहीं और बहुत अधिक धूप भी अच्छी नहीं है।
Friends जरूर पढ़े कबीर का विस्तृत जीवन परिचय और संदेश
दोस्तों ! कबीर के बारे में यह दृढ़तापूर्वक कहा जा सकता हैं कि ब्रह्म, जीव, प्रकृति, माया को लेकर और सामाजिक क्षेत्र में जाति-पांति, छुआछूत, ऊँच-नीच पर जैसा यथार्थ चित्रण उन्होंने अपने अनेकों दोहों और पदों में किया हैं वैसा अब तक किसी कवि द्वारा नहीं किया जा सका है। वास्तव में कबीर के दोहे से मिलने वाला ज्ञान और संदेश समाज में सकारात्मक सोच विकसित करने वाली है।
कबीर ने सदियों पूर्व अपने मौखिक दोहों के द्वारा जो शिक्षा, उपदेश और सन्देश दीए वे व्यर्थ नहीं गए। उनके पदचिन्हों पर चलकर अनेक साधारण लोग महान बने और यक़ीनन आप को भी इन दोहों से लाभ प्राप्त हुआ होगा । तो देर किस बार की Kabir Das Ke Dohe हिंदी में को शेयर करे और हाँ हमारे Facebook Page जरुर like करे तथा free email subscription जरुर ले ताकि मैं अपने future posts सीधे आपके inbox में भेज सकूं ।
Namaste Ji :: This is one of loving collections of Kabir Das ji Dohas. Congratulations and Best wishes for spreading the wisdom. इक इक बूँद ज्ञानकी, बाँटे कबीर दास * ई जानीके सब मे है, राम राम का वास. ~ If translation is available it can reach many many Ram.