Jallianwala Bagh Hatyakand in Hindi
जलियांवाला बाग हत्याकांड पर निबंध

Jallianwala Bagh massacre Essay in Hindi – बैसाखी के दिन 13 अप्रैल, 1919 को अमृतसर के जलियांवाला बाग़ में एक सभा रखी गई थी, जिसमें ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर के नेतृत्व में अंग्रेजी फौज ने गोलियां चला के निहत्थे, शांत बूढ़ों, महिलाओं और बच्चों सहित सैकड़ों लोगों को मार डाला था। इस हत्याकांड में लगभग 1,650 गोलियां 303 नम्बर की चलीं जिसमें करीब 1000 लोग मारे गये एवं 3,000 लोग घायल हुए।
उपरोक्त उद्धरण उन टिप्पणियों में से लिये गये हैं जो “डेली हेरल्ड” नामक ब्रिटिश समाचारपत्र में जलियांवाला बाग़ के हत्याकांड को लेकर प्रकाशित की गयी थीं, और जिन्हें “अमृत बाज़ार पत्रिका” ने 12 जनवरी 1920 के अंक में पुनः प्रकाशित किया था। वैसे सरकारी रिपोर्ट का मानना है कि 379 व्यक्ति मारे गये एवं 1,200 लोग घायल हुए।
अमृतसर (पंजाब) में अप्रैल महीने में हुए गोलीकांड के बारे में प्राप्त विस्तृत आंकड़ो से इतना तो स्पष्ट है कि यह कांड आधुनिक इतिहास में हुए सबसे खूनी नरसंहारों में से एक है। साम्राज्य उत्पीड़न और उसके विरुद्ध होने वाले पराधीन जातियों के विद्रोह के बारे में जो जानकारी आज हम देने जा रहे हैं, उनमें, अपनी नग्न भयावहता के कारण सबसे अधिक शर्मनाक और स्तंभित कर देने वाली घटना अमृतसर हत्याकांड की ही है। आज तक इससे ज्यादा काला अथवा घिनौना ब्यौरा कभी पढ़ने को नहीं मिला था।
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देश भक्ति सुविचार और अनमोल वचन
जलियांवाला बाग हत्याकांड कैसे घटा और हमारे स्वतंत्रता आंदोलन में इसका महत्व
आंचलिक सरदार नगरी पंजाब के अमृतसर में जलियांवाला बाग़ स्थित है। किसी ज़माने में पंडित जल्ला नाम के व्यक्ति ने वहां एक बाग़ बनवाया था और जल्ला के नाम पर ही उसका नाम जलियांवाला बाग़ प्रचलित हो गया था। सन 1919 में वह एक वीरान सा ऊबड़ – खाबड़ ज़मीन का टुकड़ा भर रह गया था। धीरे – धीरे उसके चारों ओर मकान बन चुके थे और घरों की पीठ बाग़ की ओर थी। शहर की ओर से आने वाली चार-पांच गलियां, बाग़ में खुलती थीं। एक रास्ता बाज़ार की ओर से अंदर दाख़िल होता था, पर वह भी तंग रास्ता था। वहां पर एक ओर पांच फीट ऊँची दीवार भी थी।
असंतोष से उपजा जलियाँवाला बाग हत्याकांड
दोस्तों जैसा की आप सब जानते है भारत की आज़ादी के लिए 1857 से 1947 के बीच देश की एकता, अखंडता और स्वतंत्रता को बनाएं रखने के लिए अनेक विद्रोह किये गये। कुछ विद्रोहों का संचालन देश के बाहर से हुआ और कुछ तो भारत के अंदर।
देश के बाहर जिस विद्रोह की तैयारी की गयी, उसमें ग़दर आंदोलन का नाम प्रमुख है। और दूसरा खिलाफत आंदोलन है जिसकी शुरुआत तुर्की में हुई थी। देश के अंदर 1916 में होम रूल आंदोलन जोर पकड़ रहा था। विद्रोह के मूल में जबर्दस्ती देशवासियों के मनोबल को कुचलने से उपजा असंतोष था।
इसी कालचक्र में, भारत के राजनैतिक क्षितिज पर गांधीजी का उदय हुआ था। गांधीजी के स्वाधीनता संग्राम की सारी परिकल्पना ही नयी और अनूठी थी। यही कारण था कि महात्मा गाँधी के स्वतंत्रता संग्राम में उतरते ही देशवासियों की स्वतंत्रता की लालसा और जोर पकड़ने लगी थी।
देशवासियों के मन से महात्मा गांधीजी का प्रभाव कम करने तथा उनकी राष्ट्रीय भावना को कुचलने के लिए ब्रिटीश हुकूमत के द्वारा 8 मार्च 1919 ई. में रौलेट ऐक्ट या काला कानून लागू कर दिया गया। इस विधेयक में की गयी व्यवस्था के अनुसार मजिस्ट्रेटों के पास यह अधिकार था कि वह किसी भी संदेहास्पद स्थिति वाले व्यक्ति को गिरफ्तार कर उस पर मुकदमा चला सकता है।
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गांधीजी ने रौलेट एक्ट की आलोचना करते हुए इसके विरूद्ध सत्याग्रह करने के लिए देशव्यापी ऐलान कर दिया। गांधीजी तथा कुछ अन्य नेताओं के प्रभाव को देखते हुए पंजाब में उनके प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया गया जिससे वहां की जनता में बड़ा आक्रोश व्याप्त हो गया था। यह आक्रोश उस समय अधिक बढ़ गया जब पंजाब के दो लोकप्रिय नेता डॉ. सत्यपाल एवं डॉ. सैफुद्दीन किचलू को अमृतसर के डिप्टी कमिश्नर ने बिना किसी कारण के गिरफ्तार कर लिया।
गिरफ़्तारी के विरोध में जनता ने एक शांतिपूर्ण जुलूस निकाला, पुलिस ने जुलूस को आगे बढ़ने से रोका तो जुलूस ने उग्र रूप धारण कर लिया। सरकारी इमारतों को आग लगा दिया और इसके साथ ही 5 श्वेतों को जान से मार दिया। अमृतसर की इस स्थिति से बौखला कर सरकार ने 10 अप्रैल, 1919 को शहर का प्रशासन सनकी सैन्य अधिकारी बिग्रेडियर जनरल आर. डायर को सौप दिया।
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स्वतंत्रता सेनानी नारे और सुविचार

Jallianwala Bagh massacre
(13 अप्रैल, 1919)
(जलियाँवाला बाग हत्याकांड)
वह वर्ष 1919 का 12 अप्रैल का दिन था, जब अगले दिन यानि बैशाखी के दिन शाम को करीब साढ़े 4 बजे अमृतसर के जलियांवाला बाग़ में एक सार्वजनिक सभा के आयोजन का ऐलान किया गया। जबकि दूसरी ओर डायर ने उस दिन साढ़े नौ बजे सभा को अवैधानिक घोषित कर दिया। लेकिन फिर भी वर्ष 1919 का 13 अप्रैल के दिन 2 बजे के बाद ही जलियांवाला बाग़ में लोग इकट्ठा होने लगे थे। और देखतें ही देखतें बाग़ में अच्छी-खासी भीड़ जमा हो गई थी। अनुमान लगाया गया कि उस दिन लगभग बीस हजार लोग वहां मौजूद हुए थे।
लोगों की बढ़ती भीड़ को देखतें हुए सभा तय समय से पूर्व ही आरंभ हो गई। सभा में डॉ. किचलू एवं सत्यपाल की रिहाई एवं रौलेट एक्ट के विरोध में भाषणबाजी की जा रही थी। सभा की कार्यवाही बड़े शांतिपूर्ण ढंग से चल रही थी। उसी समय डायर अपने फौजी दस्ते के साथ बाज़ार की ओर से बाग़ में दाख़िल हुआ। वहां उसने पल भर का भी इन्तजार नहीं किया। उसने 25 बंदूकधारी अपने दायें हाथ और 25 बंदूकधारी बायें हाथ तैनात किये और भीड़ को बिना कोई चेतावनी दिये गोली चलाने का हुक्म दे दिया।
अचानक हुए इस हमले से जलसे में बैठे लोग घबरा गये। भाग निकलने की कोशिश में, दोनों ओर के रास्तों पर लोग भाग-भागकर पहुंच रहे थे। गिरते – पड़ते, एक दूसरे को धकेलते, खींचते, पैरों तले रौंदते…। कुछ को बार-बार गोलियां लगीं। किसी – किसी जगह पर तो लाशों के ढेर लग गये। अगर गोली लगने पर कोई गिर जाता तो उसके ऊपर दसियों ज़ख्मी और गिर जाते।
गोली लगातार चलायी जा रही थी। सैकड़ों लोग थे जो बाहर निकल पाने की उम्मीद न रह जाने पर, दीवार की ओर भागे कि उसे जैसे-तैसे फांद लें, पर दीवार भी किसी जगह पर पांच फुट उंची थी तो किसी जगह पर इससे भी ज्यादा उंची, सात या दस फुट उंची। वे भागते हुए दीवार के पास आते, लेकिन दीवार में कोई ऐसी जगह न थी जिसे वे पकड़ पाते।
कुछ खुशनसीब ऐसे भी थे जो दीवार पर चढ़ने में कामयाब हो गये, पर दूसरे क्षण, पीछे आने वालों ने उन्हें नीचे खींच लिया। गिने-चुने लोग ही दीवार फांद पाये। गोलियों की बौछार में बीस हज़ार लोग फंस गये थे। जहां कुछ मिनट पहले बड़े शांतिपूर्ण ढंग से जलसा चल रहा था, वहां अब चीख-पुकार मची हुई थी। दस से पंद्रह मिनट तक गोलिया चलती रही। उस वक्त तक जब तक कि कारतूस ख़त्म नहीं हो गये। लगभग साढ़े 5 बजे नरक का जलता कुंड पीछे छोड़कर डायर अपने सैनिकों के साथ जलियांवाला बाग़ से निकल गया।
इस भयावह घटना के उपरान्त दीनबंधु एफ. एंड्रूज का बयान आया जिसमें उन्होनें इस घटना को ‘जानबूझकर कर की गई क्रूर हत्या’ कहा। अमृतसर के इस नरसंहार को मांटेग्यू तक ने निवारक हत्या कह तीव्र निंदा की। भारतीय सदस्य शंकर नायर ने इस हत्याकांड के विरोध में वायसराय की कार्यकारिणी परिषद् से इस्तीफ़ा दे दिया। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने क्षुब्द होकर अपनी ‘सर’ की उपाधि वापस कर दी। साथ ही रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा ‘समय आ गया है जब सम्मान के तमगे अपमान के बेतुके संदर्भ में हमारे कलंक को सुस्पष्ट कर देते हैं और जहां तक मेरा प्रश्न है, मैं सभी विशेष उपाधियों से रहित होकर अपने देशवासियों के साथ खड़ा होना चाहता हूं।’
कुछ अर्से बाद जब तथ्य और आंकड़े इकट्ठा किये जाने लगे तो जनरल डायर ने 25 अगस्त 1919 को जनरल स्टाफ़ डिविजन के नाम अपने बयान में कहा:
“गोली चलाये बिना भी भीड़ शांतिपूर्ण ढंग से विसर्जित हो सकती थी, केवल मेरे मन में यह शक बना हुआ था कि उस हालत में भीड़ लौट जायेगी तो उसकी खिल्ली उड़ायेगी, जिससे वह बेवकूफ साबित होगा। इसलिए मैंने गोली चलायी, और भीड़ के तितर-बितर हो जाने तक गोली जलाता रहा। और मैं समझता हूं कि जो व्यापक प्रभाव मैं लोगों के दिलों में पैदा करना चाहता था, उसे ध्यान में रखते हुए मैंने ज्यादा गोली नहीं चलायी। अगर मेरे पास सैनिक अधिक संख्या में होते तो हताहत होने वालों की संख्या भी अधिक होती। मैं वहां भीड़ को मात्र तितर-बितर करने नहीं गया था, मैं तो लोगों के दिल में दहशत पैदा करने गया था। न केवल उन लोगों के दिल में, जो वहां पर मौजूद थे, बल्कि समूचे पंजाब में दहशत पैदा करने के अभिप्राय से गोली चलाता रहा था। मैंने जरूरत से ज्यादा सख्ती की हो, इसका तो सवाल ही नहीं उठता। मैं तो अपना व्यापक प्रभाव लोगों के दिलों में पैदा करना चाहता था।”
बरहाल जलियांवाला बाग़ हत्याकांड निर्मम और दोषपूर्ण तो था पर इसने हमारे स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में मुख्यतः भारत और देश-विदेश की जनता का ध्यान आकृष्ट किया। एक ओर उच्च नैतिकता का दावा करने वाले अंग्रेज़ शासकों की असली मानसिकता बेनकाब हो चली। दूसरी ओर, शहर में पाबंदियां और कर्फ्यू होने के बावजूद हज़ारों लोगों का इस तरह इकट्ठा होना स्वतंत्रता की चाह व्यक्त करते शहीद हो जाना आगे के संग्राम में प्रेरणा का स्रोत बन गया। करीब तीन दशकों बाद जब भारत आज़ाद हुआ तो उस आजादी के पीछे उन लोगों का भी महत्वपूर्ण योगदान था जो 13 अप्रैल 1919 की शाम जलियांवाला बाग़ में हताहत हुए थे।
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जलियांवाला वाला बाग़ हत्याकांड अंग्रेजों द्वारा एक घृणित कृत्य था । आपने बहुत विस्तार से हमे अवगत कराया। उन सभी शहीदों को हमारी ओर से श्रद्धांजलि अर्पित ।