भारत में आरक्षण एक समस्या – Issue or Problem Of Reservation (Aarakshan) in Hindi

Reservation Essay In Hindi – ‘आरक्षण ‘ शब्द अंग्रेंजी के शब्द Reservation का हिन्दी रूपान्तर है। संस्कृत की सूक्ति ‘आ समन्तात् रक्षित: इति आरक्षित:’ इस विग्रह से आरक्षण का अर्थ है चारों ओर से रक्षा प्रदान करना। पालना । चुकि हमारे देश में कुछ जातियों को उनकी जाति और कर्म के आधार पर समाज में वह सम्मान और पहचान नहीं मिली, जीतनी मिलनी चाहिए थी। अत: इस वर्ग को समाज की मुख्य धारा में लाने के लिए हमारे संविधान निर्माताओं ने दस वर्षों तक आरक्षण देने की बात कहीं और इसी के संदर्भ में आरक्षण नीति लागू की गई । किन्तु अनेक कारणों के चलते ये आरक्षण अगले और अगले दस सालों के लिए बढ़ता रहा । आजादी के सत्तर वर्षों बाद भी ये जातियाँ समाज की मुख्य धारा में नहीं आ पाए और देखादेखी समाज के अन्य वर्गों में भी आरक्षण की माँग उठने लगी ।
आज आरक्षण एक समस्या बनकर हमारे सामने खड़ा है। खासकर युवावर्ग में आरक्षण एक ज्वलंत मुद्दा बनकर उभरा है। यहाँ आरक्षण के ऐतिहासिक पहलू पर भी संक्षिप्त चर्चा अपेक्षित है । स्वतंत्रता से पूर्व इस शब्द का प्रयोग देश में सर्वप्रथम लार्ड मिन्टो ने 1909 ई. के भारत शासन अधिनियम के अन्तर्गत किया था, जिसके अनुसार भारत के कुछ वर्गों को निर्वाचन में पृथक प्रतिनिधित्व देने की बात कही गई थी। इसके बाद ‘आरक्षण ‘ शब्द का प्रचार और प्रसार बढ़ता ही गया।
स्वाधीनता के बाद हमारे संविधान निर्माताओं ने महात्मा गाँधी व अन्य समाज सुधारकों के प्रयत्नों से प्रभावित होकर अल्प समय के लिए स्वतन्त्र भारत के संविधान में अल्पसंख्यक, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, आंग्ल-भारतीय समुदाय और पिछड़े वर्गों के सम्बन्ध में अनेक प्रावधानों का समावेश किया। उल्लेखनीय है कि देश में व्याप्त सामाजिक और धार्मिक विषमताओं को ध्यान में रखते हुए यह उचित समझा गया ।
भारत के संविधान में अनुसूचित जातियों (दलितों) तथा जनजातियों (आदिवासियों) तथा अन्य पिछड़े वर्गों का शैक्षिक तथा आर्थिक दृष्टि से उत्थान करने और उनकी सामाजिक अयोग्यताओं को दूर करने के उद्देश्य से देश की जनसंख्या का एक विशेष वर्ग माना गया तथा इसे राष्ट्रीय स्तर तक लाने के लिए विवेक पूर्ण संरक्षण, सहायता तथा सुनिश्चित कार्य योजना बनाई गई।
इस कार्य योजना के लक्ष्य तक पहुंचने के लिए संविधान के अनुच्छेद 341 तथा 342 में प्रावधान लिपिबद्ध किया गया। इसके अनुसार इन जातियों को राजनीति, अर्थव्यवस्था, शिक्षा तथा संस्कृति के क्षेत्र में अनेक सुविधायें दी गईं।
इसी उपबन्ध को ध्यान में रखकर उच्चतम न्यायालय ने तमिलनाडु (मद्रास) सरकार के ‘मेडिकल व इंजीनियरिंग कॉलेज’ में जाति व धर्म के आधार पर सीट आरक्षित करने के लिये लिये गये निर्णय को अवैधानिक घोषित करके राज्य सरकार के इस तर्क को मानने से इन्कार कर दिया कि ऐसा हर वर्ग को सामाजिक न्याय दिलाने के उद्देश्य से किया गया है। संविधान और उच्चतम न्यायालय के निर्णय का सम्मान बनाये रखने के उद्देश्य से सरकार ने 1951 ई. में प्रथम संविधान संसोधन पारित करके यह प्रावधान कर दिया कि सरकार सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों के उत्थान के लिए भी विशेष कानून बना सकती हैं।
अनुच्छेद 15 (4) को जोड़कर सामाजिक तथा शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े हुए लोगों के संबंध में विशेष कानून निर्माण हेतु राज्य को अधिकार दिया गया । इसके अलावा अनुच्छेद 16 (4) में राज्य को यह अधिकार दिया गया है कि सरकारी सेवाओं तथा पदों में से ऐसे किसी भी पिछड़े वर्ग के लिए, जिसे इनमें पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिला, आरक्षण की व्यवस्था कर सकता है । सर्वविदित है कि आरक्षण की वकालत और व्यवस्था भले ही सकारात्मक सोच के कारण की हो, लेकिन संविधान का यही संशोधन अन्य पिछड़े वर्गों के आरक्षण की वर्तमान समस्या का जन्मदाता है।
संविधान के तथाकथित प्रावधान को कार्यान्वित करने के लिए सर्वप्रथम इस दिशा में राष्ट्रपति ने 29 जनवरी 1953 ई. को ‘काका साहब कालेलकर’ की अध्यक्षता में ‘प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग’ का गठन किया। इस आयोग ने समाज की 2399 जातियों को पिछड़ा वर्ग की श्रेणी में रखा और इनमें से 937 जातियों को सर्वाधिक पिछड़ी जातियां घोषित किया। लेकिन आयोग की दोषपूर्ण कार्य-प्रणाली एवं संस्तुतियों के विरोध में देश में बवंडर मच गया और आरोपों-प्रत्यारोपों का दौर चल पड़ा। फलस्वरूप सरकार ने इस आयोग की रिपोर्ट को स्वीकार नहीं किया और कुछ दिनों के बाद यह मामला शांत हो गया।
सन 1977 में केंद्र में सत्ता परिवर्तन के बाद आरक्षण की समस्या पुन: सामाजिक और राजनीतिक वाद-विवाद का केंद्र बन गई। अत: इस समस्या के समाधान के लिए जनता सरकार (मोरारजी देसाई) ने 1 जनवरी 1979 ई. को बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री ‘विंदेश्वरी प्रसाद मण्डल’ की अध्यक्षता में ‘द्वितीय पिछड़ा वर्ग आयोग’ का गठन किया। इस आयोग ने 31 दिसम्बर 1980 ई. में अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत कर दी। इस रिपोर्ट में 3, 743 जातियों को पिछड़े वर्ग की श्रेणी में रखा गया है। इस आयोग ने अपनी सूची में 1931 जनगणना को आधार वर्ष बनाया है।
दुर्भाग्य से जनता सरकार के पतन के बाद कांग्रेस सरकार ने मण्डल आयोग की रिपोर्ट को उपेक्षित कर दिया और यह तर्क दिया कि मण्डल आयोग की स्थापना का मंतव्य राजनीति से प्रेरित था। इस तर्क के परोक्ष में यह तथ्य था कि इस आयोग की स्थापना तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने उपप्रधानमंत्री व गृहमंत्री चौधरी चरण सिंह की पदच्युति से उत्पन्न राजनीतिक बवन्डर को रोकने के लिए किया था।
सन 1989 के सार्वजनिक निर्वाजन में राजनीतिक लाभ और जन समर्थन प्राप्त करने के लिए राष्ट्रीय मोर्चा दल ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में यह वायदा किया कि यदि केद्र में राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार सत्तारूढ़ हो जाती है, तो यह मण्डल आयोग की सिफारिशों को लागू करेगी।
सार्वजनिक निर्वाचन में विजयी होकर राष्ट्रीय मोर्चा दल की सरकार सत्ताररूढ हो गई। लेकिन परिस्थितियों की विडम्बना देखिये कि लगभग 10 वर्ष तक उपेक्षित पड़ी मण्डल आयोग की सिफारिशों को लागू करने का निर्णय पूर्व प्रधानमंत्री वी. पी. सिंह ने उसी आतुरता और शीघ्रता से लिया, जिस प्रकार मोरार जी देसाई ने लिया था।
सात अगस्त 1990 को लोकसभा का मानसून सत्र प्रारम्भ हुआ। संसद के दोनों सदनों में तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रतापसिंह ने पिछड़े वर्गों के लिए मण्डल आयोग की रिपोर्ट पर सरकारी फैसले की घोषणा की कि सामाजिक व शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग के लिए केंद्रीय और सार्वजनिक उपक्रमों में 27 प्रतिशत पद आरक्षित रहेंगे।
इस आरक्षण के विरोध और समर्थन में सहसा समस्त उत्तर भारत में विरोध और विद्रोह का ज्वालामुखी फूट पड़ा। तोड़ – फोड़ की घटनायें अपनी चरम सीमा पर चलतीं रहीं। पुलिस को जगह – जगह अश्रु गैस और लाठी चार्ज का प्रयोग करना पड़ा। छात्रों के आक्रोश को देखकर विद्यालय और महाविद्यालय बंद करने पड़े।
एक ओर मिठाईयां बंटी तो दूसरी ओर आत्मदाह हुए। एक ओर वी.पी. सिंह जिंदाबाद हुए तो दूसरी ओर मुर्दाबाद हुए। इस तरह सारे देश में एक जाति संघर्ष की स्थिति बन गई। राजनीतिक पार्टियों के शीर्षस्थ नेतागण भी अपने-अपने मतदाताओं के मनोनुकूल वक्तव्य देते रहे परन्तु किसीने सर्वमान्य समाधान ढूँढने का प्रयास नहीं किया।
सत्य यह भी है कि किसी सामान्य राजनेता ने मण्डल आयोग की रिपोर्ट को न देखा है और न पढ़ा है। कुछ प्रबुद्ध युवाओं ने उच्च न्यायालय एवं सर्वोच्च न्यायालय में अपनी-अपनी याचिकायें दायर की हैं।
आरक्षण के प्रतिक्रिया उर्दू अखबारों में भी हुई। ‘नई दुनियाँ’ नाम के उर्दू अखबार ने लिखा कि या तो आरक्षण पूरी तरह समाप्त कर दिया जाय या फिर उसका आधार आर्थिक हो और अगर ऐसा नहीं होता है तो मुसलमानों को 20 प्रतिशत आरक्षण की सुविधा उपलब्ध कराई जानी चाहिए। अखबार का कहना था कि आज मुसलमानों की हालत हरिजनों से कहीं बदतर है।
मुसलमानों में ऊँची-नीची जाति का सवाल नहीं है। लफ्जे-मुसलमान ही पिछड़ेपन, तालीम पसमांदगी (शैक्षिक तौर पर पिछड़े) इफ्तसादी बदहाली (आर्थिक तंगी) की अलामत बन गया है। “अखबारे-नौ” ने लिखा था कि प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह ने अपने चुनाव घोषणा-पत्र में दिये आश्वासन के मुताबिक यदि पिछड़े वर्गों के लिए मण्डल आयोग की सिफारिशों को लागू करने की घोषणा कर दी तो एक वर्ग विशेष ने हाय-तौबा बचाना शुरू कर दिया और अप रिजर्वेशन के नाम पर मुसलमानों को सड़कों पर लाने की एक साजिश रची जा रही है। “
अखिल भारतीय कॉग्रेस (इ) कमेटी ने 14 सितम्बर 1990 को संपन्न हुई कार्यकारिणी की मीटिंग में कहा कि राष्ट्रीय मोर्चा सरकार और प्रधानमंत्री वी. पी. सिंह ने अन्तर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय संकट की घड़ी में संकीर्ण राजनैतिक स्वार्थ के लिए देश की एकता, अखण्डता और सामाजिक सद्भाव को दाव पर लगाकर देश को विभाजन के कगार पर पहुँचा दिया है। कार्यकारिणी के राजनीतिक प्रस्ताव में कहा गया कि राष्ट्रीय मोर्चा सरकार के ‘नीति और निर्णय शून्य’ संपूर्ण दिग्भ्रम और बदहवासी के कारण पहल उग्रवादियों, अलगाववादियों और देश का अहित चाहने वाले लोगों के हाथ में चली गई है।
संविधान निर्माता भीमराव अम्बेडकर का यह कथन उल्लेखनीय है कि, “जाति के आधार पर आरक्षण राष्ट्र विरोधी है । केवल जाति के आधार पर शिक्षा संस्थानों, उच्च शिक्षा संस्थानों में प्रवेश गलत है । शिक्षा प्राप्त करने का सबको समान अधिकार प्राप्त है । सभी जातियों के बच्चें प्रवेश लें, पढाई – लिखाई में रूचि दिखाएँ, जागरूक बनें तथा स्वच्छता पर ध्यान दें । किन्तु विडम्बना यह रही कि शिक्षा, चिकित्सा, विज्ञान आदि क्षेत्रों में आरक्षण ने तहलका मचाया हुआ है । अयोग्य, अकुशल, अशिक्षित व्यक्ति ऐसे क्षेत्रों में आरक्षण के बल पर घुसकर देश के भविष्य के साथ खेल रहें हैं ।
स्वतंत्र भारत के राजनीतिज्ञों एवं राजनीतिक दलों द्वारा आरक्षण को राजनीति का मुद्दा बनाकर आरक्षण देने के पीछे की मूल भावना को तिरोहित किया जा रहा है। इस विषय पर गम्भीर चिन्तन – मनन की आवश्यकता है । अन्यथा ये ना हो सामाजिक न्याय करते – करते अन्य वर्गों के साथ अन्याय होता चला जाये । ऐसा नहीं है कि केवल आरक्षण ही सामाजिक न्याय दिला सकता है । अत: आरक्षण के अतिरिक्त और कोई अन्य विकल्प खोजा जाना चाहिए जो सभी वर्गों की उन्नति करे, न्याय प्रदान करे और भाईचारे से युक्त समाज की स्थापना करे ।
बहरहाल उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि किसी भी सरकारी ज्ञापन को लागू करते समय अन्य पिछड़े वर्गों में सामाजिक दृष्टि से आगे बढ़े हुए ‘अति समृद्धि तबके’ को आरक्षण से बाहर रखा जायेगा । अनुसूचित जातियों / जनजातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था उनकी जनसँख्या के अनुपात में किया जायेगा, वहीँ अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का प्रतिशत तय करते हुए यह ध्यान रखा गया है कि कुल आरक्षित पदों का प्रतिशत सम्पूर्ण रिक्तियों के आधे से अधिक न हो ।
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