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मौलिक अधिकारों पर निबन्ध : भारतीय नागरिक के मूल अधिकार { Fundamental Rights in Hindi}

नागरिको के अधिकार | भारतीय नागरिकों के मूल अधिकार | Fundamental Rights (मौलिक अधिकार) in Hindi

Fundamental Rights in hindi
Fundamental Rights in hindi

Fundamental Rights Essay in Hindi : मौलिक अधिकार (मूल अधिकार) पर निबन्ध

Fundamental Rights in Hindi – हर देश के नागरिक के कुछ अधिकार होते है जिनकी मदद से वह अपनी इच्छानुसार जीता है। भारत के संविधान में भी कुछ मूल्यवान मौलिक अधिकार निर्धारित है।

मौलिक अधिकार किसे कहते हैं, मौलिक अधिकार का अर्थ – What is fundamental right?

मौलिक अधिकारों को उन मूल मानवाधिकार के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जो व्यक्ति के बुनियादी जीवन के लिए आवश्यक होने के कारण संविधान द्वारा नागरिकों को प्रदान किये जाते हैं और जिनमें राज्य के द्वारा हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता। ये बहुत ही बुनियादी अधिकार हैं जिन्हें सार्वभौमिक रूप से मानवीय अस्तित्व के लिए मौलिक माना जाता है और मानव विकास के लिए अनिवार्य है।

मौलिक अधिकारों की उपरोक्त परिभाषा से यह बात तो स्पष्ट हैं कि बिना मूल अधिकारों के नागरिक जीवन का कोई महत्व नहीं। ये अधिकार व्यक्ति के बौद्धिक, नैतिक और अध्यात्मिक विकास के लिए अत्यधिक आवश्यक हैं।

मौलिक अधिकारों (फंडामेंटल राइट्स) की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

मूल अधिकारों का सर्वप्रथम विकास ब्रिटेन में तब हुआ, जब 1215 में सम्राट जान को ब्रिटिश की जनता ने प्राचीन स्वतंत्रताओं को मान्यता प्रदान करने हेतु “मैग्रा कार्टा” पर हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य कर दिया। इसके बाद ब्रिटिश जनता ने 1689 में सम्राट को उन अधिकारों के विधेयक पर हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य कर दिया, जो उनके सम्राट द्वारा समय – समय पर जनता को दिये गये थे।

अमेरिका के मूल संविधान में मौलिक अधिकारों का उल्लेख नहीं किया गया था लेकिन 1791 में दसवें संविधान संशोधन द्वारा “अधिकार पत्र” (Bill of Rights) को जोड़ा गया। अमेरिका के पूर्व फ़्रांसीसी नेशनल असेम्बली द्वारा 1789 में “दी डिक्लेरेशन ऑफ राइट्स ऑफ मैन” को अपनाया गया था। फ्रांस की जनता मानव अधिकारों के प्रति इतनी सजग थी कि वहाँ लुई सोलहवें को इसलिए फाँसी पर चढ़ा दिया गया था क्योंकि उसने जनता के मूल अधिकारों का उल्लंघन किया था। भारत के संविधान में भी कुछ मूल्यवान अधिकार निर्धारित है |

भारत में मूल-अधिकार (Fundamental Rights) की माँग तथा संविधान में शामिल किया जाना

भारत में मौलिक अधिकार की सर्वप्रथम माँग संविधान विधेयक, 1895 के माध्यम से की गयी। इसके पश्चात् 1917 – 1919 के दौरान कांग्रेस द्वारा अनेक संकल्प पारित करके माँग की गयी कि भारतीयों को अंग्रेजों के समान सिविल अधिकार तथा समता का अधिकार प्रदान किया जाय।

क्रमशः 1925, 1928, 1930 कराँची अधिवेशन, 1931 गोलमेज सम्मलेन और 1934 संयुक्त संसदीय समिति में विभिन्न नेताओं द्वारा यह माँग की गयी कि भारतियों को मूल अधिकार प्रदान किये जायं, लेकिन इस माँग को अस्वीकार कर दिया गया, और जिस कारण 1935 के भारत सरकार अधिनियम में मूल अधिकारों को शामिल नहीं किया गया।

इसके बाद 1945 में भारत के संविधान के सम्बन्ध में सर तेज बहादुर सप्रू द्वारा पेश की गई रिपोर्ट में कहा गया था कि भारतीय संविधान में मूल अधिकारों को शामिल किया जाना चाहिए। जब जे. बी. कृपलानी की अध्यक्षता में मूल अधिकारों तथा अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर सिफारिश करने के लिए एक उपसमिति गठित की गयी, तो परामर्श समिति तथा उपसमिति की सिफारिशों के आधार पर संविधान में मूल अधिकारों को शामिल किया गया।

जब संविधान का प्रवर्तन किया गया, उस समय मूलाधिकारों की संख्या 7 थी लेकिन 44वें संविधान संशोधन द्वारा संपत्ति के मूल अधिकार को समाप्त करके इस अधिकार को विधिक अधिकार बना दिया गया है।

साधारण विधिक अधिकारों व मौलिक अधिकारों में अंतर

साधारण विधिक अधिकार अधिनियमों द्वारा प्रदान किये जाते हैं तथा उनकी रक्षा की जाती है, जबकि मौलिक अधिकार देश के संविधान द्वारा प्रदान किये गये हैं, तथा संविधान द्वारा ही सुरक्षित किया जाता हैं।

साधारण विधिक अधिकार समाप्त या कम किये जा सकते हैं, परन्तु मौलिक अधिकार समाप्त या कम नहीं किये जा सकते हैं।

साधारण कानूनी अधिकारों में सामान्य न्यायालयों द्वारा परिवर्तन किये जा सकते हैं, परन्तु मौलिक अधिकारों में परिवर्तन करने के लिए संविधान में परिवर्तन आवश्यक हैं।

साधारण विधिक अधिकारों का उल्लंघन सामान्य व्यक्तियों, जिसमें विधिक व्यक्ति भी शामिल है, द्वारा किया जा सकता है, जबकि मौलिक अधिकारों का उल्लंघन कुछ अपवादों को छोड़कर केवल राज्य द्वारा ही किया जा सकता हैं।

विधिक अधिकारों से, मौलिक अधिकार सर्वोच्च होता हैं।

संविधान में शामिल नागरिकों के मूल-अधिकार (Fundamental Rights)

मौलिक अधिकार भारती संविधान का अभिन्न अंग हैं। भारत के नवीन संविधान के तीसरे भाग में वर्णित अनुच्छेद 12 से 30 तक तथा 32 और 35 (कुल 23 अनुच्छेदों) में सभी नागरिकों को कुछ मौलिक अधिकार प्रदान किये हैं। संविधान में नागरिकों के मौलिक अधिकारों के सम्बन्ध में यह वर्णन इतना व्यापक है, जितना विश्व के किसी भी लिखित संविधान में नहीं किया गया है।

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संविधान के भाग 3 में यह स्पष्ट कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति के धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान की स्थिति के आधार पर विभेद का प्रतिषेध करके उन्हें ये अधिकार दिये जाते हैं | ये अधिकार सार्वभौमिक रूप से सभी नागरिकों पर लागू होते हैं, परन्तु पागल, कोढ़ी, दिवालिये तथा साधु – संन्यासी, आदि को इन अधिकारों से वंचित कर दिया गया है।

मूल अथवा मौलिक अधिकार एवं उनकी संख्या

संविधान के भाग 3 में सन्निहित अनुच्छेद 12 से 35 मौलिक अधिकारों को 6 भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है, जिसका विवेचन निम्न प्रकार है –

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भाग 3 (Part iii) मूल अधिकार (Fundamental Rights)

साधारण (General)

अनुच्छेद 12. परिभाषा (राज्य शब्द की)

अनुच्छेद 13. मूल अधिकारों से असंगत या उनका अल्पीकरण करने वाली विधियां

1- समानता का अधिकार Right to equality

अनुच्छेद 14 – 18 के तहत संविधान प्रत्येक नागरिक को सामाजिक तथा राजनैतिक समता का अधिकार प्रदान करता है।  शासन की ओर से प्रत्येक नागरिक को इस प्रकार की सुविधा प्राप्त हैं, जिसमें सभी व्यक्तियों को विधि के समक्ष समता, राज्य के अधीन सेवाओं में समान अवसर और सामाजिक समता प्रदान करने की व्यवस्था हैं। संविधान में समानता को स्थापित करने के लिए नागरिकों तथा गैर नागरिकों को निम्नलिखित अधिकार प्रदान किये गये हैं –

अनुच्छेद 14. विधि के समक्ष समता तथा विधियों के समान संरक्षण का अधिकार।

अनुच्छेद 15. धर्म, मूलवंश, जाति लिंग या जन्मस्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध।

अनुच्छेद 16. लोक नियोजन के विषय में अवसर की समता।

अनुच्छेद 17. अस्पृश्यता का अन्त।

अनुच्छेद 18. उपाधियों का अन्त।

2- स्वतंत्रता का अधिकार Right to freedom

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 – 22 के अंतर्गत स्वतंत्रता के अधिकार प्राप्त हैं।  स्वतंत्र देशों में विचार स्वातन्त्रय तथा उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बहुत बड़ा अधिकार समझी जाती है। भारतीय संविधान अपने प्रत्येक नागरिक को विचार और भाषा की स्वतंत्रता प्रदान करता है क्योंकि मनुष्य की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है कि वह केवल दूसरों की ही बात सुनना नहीं चाहता, अपितु अपनी भी दूसरों को सुनाना चाहता है। परन्तु इस भाषण स्वातन्त्रय पर इतना प्रतिबन्ध अवश्य होता है कि कोई व्यक्ति ऐसे विचार प्रकट न करे, जो दूसरों की भावनाओं को ठेस पहुँचाते हों, या उस भाषण से समाज में साम्प्रदायिक द्वेष फैलता हो।

स्वतंत्रता के अधिकारों के तहत व्यक्तिगत स्वतंत्रता के सम्बन्ध में निम्नलिखित अधिकार प्रदान किये गये हैं –

अनुच्छेद 19. वाक्-स्वातंत्र्य आदि विषयक कुछ अधिकारों का संरक्षण।

अनुच्छेद 20.अपराधों के लिए दोषसिद्धि के सम्बन्ध में संरक्षण।

अनुच्छेद 21. प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण।

अनुच्छेद 21 क १. बालको (6 से 14 वर्ष) को शिक्षा का अधिकार

अनुच्छेद 22. कुछ दशाओं में गिरफ्तारी और निरोध से सरक्षण।

3- शोषण के विरुद्ध अधिकार  Rights against exploitation

भारतीय संविधान में व्यक्ति की दैहिक स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने तथा उनके बीच विभेद को रोकने के लिए और दुराचारी व्यक्तियों तथा राज्य द्वारा समाज के दुर्बल वर्गों के शोषण को रोकने के लिए अनुच्छेद 23 तथा 24 में प्रावधान किया गया है।  अंग्रेजों के आगमन के बाद अंग्रेज शासकों द्वारा जमींदारी प्रथा का सृजन किया गया था।  राष्ट्रद्रोही जमींदार, जिनमें गाँवों के मुखिया भी शामिल थे, समाज के निर्बल वर्गो का शोषण करते थे। इसी शोषण अर्थात् मानव दुर्व्यापार (जिसे दासता शब्द के स्थान पर संविधान में प्रयुक्त किया गया है) तथा बलात् श्रम (बेगारी शब्द के स्थान पर प्रयुक्त) को रोकने के लिए शोषण के विरुद्ध अधिकार को मूल अधिकार के रूप में संविधान में शामिल किया गया है। ये अधिकार निम्नलिखित हैं –

अनुच्छेद 23. मानव के दुर्व्यापार और बलात् श्रम का प्रतिषेध। 

अनुच्छेद 24. कारखानों आदि में बालकों के नियोजन का प्रतिषेध। 

4- धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार Right to freedom of religion

चौथा धर्म सम्बन्धी अधिकार है। धर्म – पालन में हर किसी को पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त है। ये अधिकार तीन प्रकार के हैं –

अनुच्छेद 25. अन्त:करण  की और धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता।

अनुच्छेद 26. धार्मिक कार्यों के प्रबन्ध की स्वतंत्रता।  

अनुच्छेद 27. किसी विशिष्ट धर्म की अभिवृद्धि के लिए करों के संदाय के बारे में स्वतंत्रता।

अनुच्छेद 28. कुछ शिक्षा संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा या धार्मिक उपासना में उपस्थित होने के बारे में स्वतंत्रता।

5- संस्कृति और शिक्षा सम्बन्धी अधिकार Right to Culture and Education

नागरिकों के संस्कृति और शिक्षा सम्बन्धी अधिकारों में, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, उसे अपनी रूचि के अनुसार भाषा, लिपि, संस्कृति को बनाए रखने तथा शिक्षा संस्थान को स्थापित करने और उनका प्रशासन करने का अधिकार है।

अनुच्छेद 29. अल्पसंख्यक-वर्गों के हितों का संरक्षण। 

अनुच्छेद 30. शिक्षा संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन करने का अल्पसंख्यक-वर्गों का अधिकार।

अनुच्छेद 31. संपत्ति का अनिवार्य अर्जन (निरसित) 

कुछ विधियों की व्यावृत्ति (Saving of Certain Laws)

अनुच्छेद 31 में कुछ विधियों के व्यावृत्ति का प्रावधान किया गया है-

अनुच्छेद 31- क. संपदाओं आदि के अर्जन के लिए उपबंध करने वाली विधियों की व्यावृत्ति।

अनुच्छेद 31. ख. कुछ अधिनियमों और विनियमों का विधिमान्यकरण।

अनुच्छेद 31. ग . कुछ निदेशक तत्वों को प्रभावी करने वाली विधियों की व्यावृत्ति। 

अनुच्छेद 31. घ. (निरसित)

6- सांविधानिक उपचारों का अधिकार Right to constitutional remedies

संवैधानिक उपचारों संबंधी मूलाधिकार का प्रावधान अनुच्छेद 32 – 35 में किया गया है।  संविधान के भाग तीन में प्रत्याभूत मूल अधिकारों का यदि राज्य द्वारा उल्लंघन किया जाय तो राज्य के विरुद्ध उपचार प्राप्त करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 32 के अधीन उच्चतम न्यायालय में तथा अनुच्छेद 226 के अधीन उच्च न्यायालय में रिट याचिका दाखिल करने के अधिकार नागरिकों को प्रदान किये गये हैं। 

अनुच्छेद 32. इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों को प्रवर्तित कराने के लिए उपचार।

अनुच्छेद 32- क. (निरसित)

अनुच्छेद 33. इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों का बलों आदि को लागू होने में उपांतरण करने की संसद की शक्ति।

अनुच्छेद 34. जब किसी क्षेत्र में सेना विधि प्रवृत्त है तब इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों पर निर्बन्धन।

अनुच्छेद 35. इस भाग के उपबंधो को प्रभावी करने के लिए विधान।

मूलतः संविधान में नागरिकों के मौलिक अधिकार का उल्लेख हैं लेकिन मूल अधिकारों के उपान्तरण की शक्ति संसद में निहित की गयी है, कि वह संशोधन करके अधिकारों को निलंबित कर यह तय कर सकती है कि किस सीमा तक व्यक्तियों को मूल अधिकार प्राप्त होंगे।

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