परिश्रम (मेहनत) के महत्व पर निबंध – Importance of Hard Work in Hindi

Essay on Importance of Hard Work in Hindi
“भूरे बालों की-सी कतरन, छिपा नहीं जिसका छोटापन।
वह समस्त पृथ्वी पर निर्भय, विचरण करती श्रम में तन्मय।
वह जीवन की चिनगी अक्षय, दिन भर में यह मीलों चलती।
अथक कार्य से नहीं कभी डरती।।”
– सुमित्रानंदन पन्त
परिश्रम का महत्व (Importance of Hard Work in Hindi)
Hard Work मतलब कठोर परिश्रम जो की पन्त जी ने चींटी का उदाहरण देकर मानव को लज्जावनत होने के लिए बाध्य कर दिया। चींटी का लघुतम जीवन परिश्रम से भरा हुआ जीवन है। वह बड़े से बड़े पर्वत को सरलता से लाँघ जाती है। शायद ही किसी ने चींटी को सोते हुए या आराम से बैठे हुए देखा हो। वह अनवरत श्रम करती है, इसलिए उसे अपना छोटापन अखरता नहीं। वह जीवन की समस्याओं को अपने श्रम से बड़ी सरलता से सुलझा लेती है। तो क्या मनुष्य संसार की कठिन-से-कठिन समस्याओं को, विभीषिकाओं को अपने श्रम से सरल नहीं बना सकता। यदि वह चाहे तो पर्वतों को काटकर सड़क निकाल सकता है, उन्मादिनी नदियों को बाँध कर पुल बना सकता है, कंटकाकीर्ण मार्गों को सुगम बना सकता है। ऐसा कौन सा कार्य है, जो परिश्रम साध्य नहीं हो।
नेपोलियन की डायरी में असम्भव जैसा कोई शब्द नहीं था। कर्मवीर, दृढ़-प्रतिज्ञा, महापुरुषों के लिए संसार का कोई भी प्राप्तव्य कठिन नहीं होता। परिश्रमी व्यक्ति अपने लक्ष्य की ओर निरन्तर अग्रसर होता है, प्राकृतिक कारण भी विघ्न बनकर उसके मार्ग में खड़े नहीं हो सकते। सफलता उसी मनुष्य का वरण करती है, जिसने उसकी प्राप्ति के लिए श्रम किया हो। प्रथम श्रेणी उन्हीं विद्यार्थियों को अपने गले लगाती है, जो उसकी प्राप्ति के लिए पूरे वर्ष परिश्रम करते हैं। साधारण से साधारण व्यक्ति भी अपने परिश्रम से एक महान उद्योगपति बन जाता है। सामने रखे हुए थाल में रोटी भी बिना श्रम के मुँह में नहीं जाता और जाने के बाद भी बिना मुख-चवर्ण का व्यायाम किये पेट में नहीं जा सकता। भर्तृहरि जी ने लिखा है कि –
“उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मी: दैवेन देयमिति कापुरुषा: वदन्ति।
दैवम् निहत्य कुरुपौरुषमात्मशक्त्या, यत्ने कृते यदि न सिद्धय्ती कोत्र दोष:।।”
अर्थात उद्योग परुष को ही लक्ष्मी प्राप्त होती है, ‘ईश्वर देगा’ ऐसा कायर (coward) आदमी कहा करते हैं। देव को छोड़कर मनुष्य को यथाशक्ति पुरुषार्थ करना चाहिये। यदि प्रयत्न करने पर भी कार्य सिद्ध न हो तो यह विचार करना चाहिए कि इसमें हमारी क्या कमी रह गई ?
जीवन की सफलता के लिए परिश्रम की नितान्त आवश्यकता है। आलसी अनुद्योगी और अकर्मण्य व्यक्ति जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफल नहीं होता। आलसी लोगो का कोई वर्तमान और भविष्य नहीं होता।
शूकर, कूकर के समान जैसे वह आता है वैसे ही चला जाता है। मनुष्य वही है, उसी मनुष्य का जीवन सार्थक है, जिसने अपना, अपनी जाति का, अपने देश का, अपने परिश्रम से उत्थान और अभ्युदय किया हो | बिना परिश्रम के जीवन व्यर्थ होता है –
“स: जात: येन जातेन याति वंश: समुन्नतिम।”
परिश्रम का ही दूसरा नाम जीवन है। जिस मनुष्य के जीवन में परिश्रम नहीं है, वह आगे नहीं बढ़ सकता, जहाँ पैदा हुआ है किसी दिन उसी स्थान पर सूख कर पृथ्वी पर गिर पड़ेगा। वह उस तालाब के समान है, जिसमें पानी न कही से आता है और न निकलता ही है। वर्षा हुई तो थोड़ा भर गया और उसमें सड़ता रहा। पथिक भी उसकी दुर्गंध से दूर भागते हैं, कोई पास आना भी पसंद नहीं करता।
मानव जीवन संघर्षों के लिए है, संघर्षों के पश्चात् उसे सफलता मिलती है। संघर्षों में घोर श्रम करना पड़ता है। जो व्यक्ति संघर्षों से, श्रम से डर गया, वह मानव नहीं पशु है, पशु भी नहीं, वह जड़ वृक्ष है, जहाँ पैदा हुआ है वही उसे मुरझा जाना है। परिश्रम अथवा कर्म का महत्व श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता में उपदेश देते हुए कहा –
“माम् अनुस्मर युद्धय च”
अर्थात मेरा स्मरण करो और संसार में संघर्ष करो, युद्ध करो, सफलता अवश्य मिलेगी। गजराज, मृगेंद्र यदि अपनी माद में पड़ा – पड़ा सोता रहे, तो संभवत: कोई भी वन्य पशु उसके भोजन के लिए वहाँ उपस्थित न हो। उसे अपने जीवन के लिये दहाड़ना पड़ता है, उछल-कूद करनी पड़ती है, तब कहीं वन के राजा का पेट भर पाता है। यदि वह अकर्मण्य होकर अपने ही स्थान पर पड़ा रहे तो शायद वह भूखा मर जाये। कहा भी है –
“उद्यमेन ही सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथै: ।
नहीं सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगा: ।।”
उद्योग और कठिन परिश्रम से ही मनुष्य की कार्य सिद्धि होती है, केवल इच्छामात्र से नहीं, जैसे कि सोते हुए सिंह के मुख में मृग स्वयं नहीं घुसते | जो मनुष्य अपने जीवन में जितना परिश्रमी रहा, जितना अधिक से अधिक संघर्ष और कठिनाइयां उसने उठा ली, अंत में उसने उतनी ही अधिक उन्नति की –
“जितने कष्ट संकटों में है जिनका जीवन – सुमन खिला ।
गौरव – गंध उन्हें उतना ही यंत्र तत्र सर्वत्र मिला ।”
केवल ईश्वर की इच्छा और भाग्य के सहारे पर चलना कायरता है और अकर्मण्यता है | मनुष्य अपने भाग्य का विधाता स्वयं है | वह दूध में जितना गुड़ डालेगा, दूध उतना ही मीठा होगा | जिसने जीवन के अभ्युत्थान के लिए जितना श्रम किया होगा, उसको उतनी सफलता मिली होगी | वैसे भी ईश्वर उन्हीं की सहायता करता है, जो अपनी सहायता स्वयं करने में समर्थ होते है , कायरों से निरीह और निकम्मों से ईश्वर भी घबड़ाता है | एक अंग्रेज़ी कहावत है –
“ God help those who help themselves.”
परिश्रम व्यक्ति की वास्तविक पूजा है | परिश्रम करने से मनुष्य का सबसे बड़ा लाभ है, उसे आत्मिक शांति प्राप्त होती है, उसका हृदय पवित्र होता है, उसके संकल्पों में दिव्यता आती है, उसे सच्चे ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है, उसे व्यक्तिगत जीवन में उन्नति प्राप्त होती है | जीवन की उन्नति के लिये मनुष्य क्या काम नहीं करता, यहाँ तक कि बुरे से बुरे काम करने के लिए उद्धत हो जाता है | परन्तु यदि वह सफलता रूपी ताले की कुंजी परिश्रम को अपने हाथ में ले तो फिर सफलता उस मनस्वी के चरणों को चूमने लगती है | वह उत्तरोत्तर उन्नति और समृद्धि के शिखर पर चढ़ता हुआ चला जाता है |
भारतवर्ष की दासता और पतन का मुख्य कारण भी यही था कि यहाँ के निवासी अकर्मण्य हो गये थे, परिश्रम करना उन्होंने भूला दिया था। यदि आज भी अकर्मण्य और आलसी बने रहे, तो परिणामस्वरूप प्राप्त की हुई स्वतंत्रता फिर खो देंगे। आज देश को कठोर परिश्रमी नवयुवकों की बेहद आवश्यकता है, जिससे देश की विदेशी आक्रमण से रक्षा हो सके।
जीवन का वास्तविक सुख और शान्ति मनुष्य को, अपने काम से प्राप्त होती है। परिश्रम का फल जब उसके समक्ष होता है; तो उसका ह्रदय हर्ष से उछलने लगता है, वह आत्मगौरव का अनुभव करता है। परिश्रमी को कभी किसी वस्तु का अभाव नहीं होता, वह किसी के सामने हाथ फैलाकर गिडगिडाता नहीं, उसे अपने श्रम पर विश्वास रहता है, वह जानता है कि मैं जो चाहूँगा, प्राप्त कर सकता हूँ, वह सदैव आत्मनिर्भर रहता है।
परिश्रम करने से मनुष्य का अन्त:करण जान्ह्वी के जल की भाँती पवित्र हो जाता है। संसार की समस्त दुर्वासनायें, कुलषित भावनायें, उन्हीं को सताती हैं, जिनके पास इन पर सोचने के लिए न समय है और न उनकी पूर्ति के लिये साधन हैं। परिश्रमी के पास इन सब बातों का सोचने के लिये समय कहाँ। वह तो परिश्रम रूपी यज्ञ में दुर्वासनाओं की आहुति दे चुका है।
खाली मस्तिष्क ही शैतान का घर होता है, जैसा कि अंग्रेजी कहावत से सिद्ध है – “An empty mind is a devil’s work-shop.” जहाँ व्यस्तता है, कार्य का आधिक्य है, वहाँ इन सब बातों के लिये जगह कहाँ ? जिस प्रकार परमेश्वर की उपासना करने से मनुष्य की अंतरात्मा पवित्र हो जाती है, उसी प्रकार परिश्रम से भी मनुष्य का अन्त:करण पवित्र रहता है, संसार को वह बिलकुल भूल जाता है और उसका मन संसार से खिंचकर एक निश्चित लक्ष्य की ओर लग जाता है |
परिश्रम से, मनुष्य को यश और धन दोनों ही प्राप्त होते है। परिश्रम से मनुष्य धनोपार्जन भी करता है। ऐसे लोग देखे गये हैं, जिन्होंने अपना व्यापार दस रुपये से प्रारंभ किया और अपने अथक परिश्रम और शौर्य के बल पर कुछ ही वर्षों में लक्षाधीश बन गये। जहाँ तक यश का सम्बन्ध है, वह परिश्रमी मनुष्य को जीवित रहते हुए भी मिलता है और मृत्यु से अनन्तर भी। जीवित रहते हुए समाज के व्यक्ति उसका मान करते हैं, उसकी कीर्ति उसकी जाति और नगर में गाई जाती है। मृत्यु के पश्चात् वह एक आदर्श छोड़ जाता है, जिसपर चलकर भावी सन्नति अपना पथ प्रशस्त करती है। लोग उसकी यशोगाथा से अपना और अपने बच्चों का मार्ग निर्माण करते हैं।
महामना मालवीय, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, महाकवि कालिदास, छत्रपति शिवाजी आदि महापुरुषों का गुण-गान करके हम भी अपना मार्ग निश्चित करते हैं। इतिहास साक्षी है कि इन लोगों ने अपने जीवन में कितना श्रम किया और कितने संघर्ष किये, जिसके फलस्वरूप वे उन्नति के शिखर पर पहुँचे। आज भी उनका यश है और सदैव रहेगा।
“एक तंदुरुस्ती हजार नियामत” वाली कहावत आज भी घर – घर में कही जाती है। एक बार गया हुआ स्वास्थ्य फिर लौटकर नहीं आता, परन्तु यह स्वास्थ्य आता कहाँ से है, यह विचारणीय है। स्वास्थ्य आता आता है परिश्रम से। जो लोग दिन-रात मेहतन करते हैं, वे स्वस्थ देखे जाते हैं, वे कभी बीमार नहीं पड़ते, उन्हें कभी कोई रोग नहीं सताता। इसके विपरीत, जो लोग सिर्फ खाते है और गद्दे और तकियों के सहारे पड़े रहते हैं, उनकी शक्ल पीली देखी जाती है और आये दिन डॉक्टरों और वैद्यों के घर का खर्च चलाया करते हैं।
जो लोग अपना काम स्वयं नहीं कर सकते, अपने हाथ – पैरों से कोई मेहनत नहीं करते, उनके शरीर की कर्मेन्द्रियाँ शक्तिहीन हो जाती हैं। ऐसे व्यक्तियों का जीवित रहना या मर जाना दोनों एक समान हैं। परिश्रम करने से मनुष्य में नई शक्ति, नई स्फूर्ति और नवीन चेतना का उदय होता है। वह सदैव प्रसन्नवदन एवं चिंतामुक्त रहता है। अकर्मण्य और आलसी व्यक्ति चिडचिडे और क्रोधी स्वभाव के होते हैं।
महापुरुषों ने जीवन में परिश्रम के महत्व का मूल्यांकन किया था। वे जानते थे कि परिश्रम से मनुष्य की न केवल भौतिक उन्नति होती है, अपितु अध्यात्मिक उन्नति भी होती है। श्रीकृष्ण को क्या आवश्यकता थी मूक पशुओं को लाठी लेकर हाँकने की तथा उन्हें वन – वन लेकर घूमने की। कबीर कपड़ा बुनते थे और रैदास जूते सिलते थे। खलीफा उमर अपने रंगमहलों में बैठे – बैठे चटाई बुना करते थे, जॉन ऑफ़ ऑर्क को भेड़े चराने में आनन्द आता था।
रैमेज मैकडोनाल्ड केवल एक निर्धन श्रमिक था, परन्तु अपने अथक परिश्रम के बल पर ही एक दिन इंग्लैण्ड का प्रधानमंत्री बना। छत्रपति शिवाजी ने थोड़े से सैनिकों की सहायता से ही समस्त हिन्दू जाति और हिन्दू धर्म की यवन आततायियों के हाथ से रक्षा की, महामना मालवीय जी एक साधारण परिवार के बालक थे, परन्तु अपने अदम्य साहस और अथक परिश्रम के बल पर ही काशी हिन्दू विश्वविद्यालय जैसी अभूतपूर्व संस्था का निर्माण कर सके। ठीक ही कहा है – “श्रमेण बिना न किमपि साध्यं |”
यदि हम चाहते हैं कि अपने देश की, अपनी जाति की, और अपनी उन्नति करें तो यह आवश्यक हैं कि अपने देश की, हमें परिश्रमी बनना होगा। आज भारतवर्ष में परिश्रम प्रायः समाप्त होता जा रहा है। सभी लोग पकी-पकाई खाने को तैयार हैं, पकाना कोई नहीं चाहता। यदि हम इसी स्थिति में रहे, तो जो कुछ हमारे पास अब तक रह गया है, वह भी एक दिन खो बैठेंगे। हमारा कल्याण तभी हो सकता है, जब हम अपना काम, अपना व्यवसाय, अपना उद्योग, अपनी कृषि आदि सभी कार्य आलस्य को छोड़कर स्वयं अपने हाथो से करेंगे। जीवन में एक बात गाँठ बाध ले “परिश्रम जीवन है, आलस्य मरण है।“
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We are thankful to Alpana ji for sending such useful essay on Hard Work. Alpana ji is an experienced consultant with a demonstrated history of working in the higher education industry.
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very nice article keep it up
Aapka yah post kafi achha laga aapne bahut hi badhiya nibandh ko aapne share kiya hain dhnyabad.
Bahut hi sunder. Par aaj ke time me hard work nahi smart work ka jamaana hai. par ha parishram karne ka fal to jarur hi milta hai chaahe wo deri se hi kyo na mile. Bahut hi acha topic chuna h aapne kahaani likhne ke liye.
सुंदर व् सटीक निबंध