युवा अरविन्द में झलकता है आज के युवा का दर्द
आप का दर्द ही बस गहरा नहीं है और सिर्फ आप ही अपेक्षाओं के बोझ तले नहीं दबे है | आप में कुछ खास करने की चाहत है, कुछ खास बनने की चाहत है पर कैसे ? रास्तें में काटे बिछाने वाले तो बहुत है पर सही रास्ता दिखाने वाले नहीं है | देश के बहुत से युवा इस समस्या से घिरे हुए है | पर कुछ ऐसी महान विभूतियाँ भी है जिनका युवा जीवन आज के युवा के लिए प्रेरक – प्रंसग है | जब मन भटकता है अपने ही अँधियारों में, ढूंढ़ता है उजियारे की किरण तब इन महान विभूतियों के संस्मरण युवाओं के लिए प्रकाशदीप का काम करते है | ऐसे ही एक युवा अरविंद घोष भी थे | आप ही की तरह इनके जीवन के रास्ते में भी चुनौतिया कम नहीं थी | आप के माता – पिता की तरह ही इनके माता – पिता भी अपने बच्चे को आसमान की बुलंदियों पर देखना चाहते थे और कुछ अपेक्षाएं रखते थे |
महर्षि अरविन्द जन्म – 15 अगस्त 1872 कलकत्ता |
अरविंद घोष का बचपन –
इन्होंने बचपन से युवावस्था तक का समय अकेलेपन में गुजारा था | इनके माँ की मानसिक हालत ठीक नहीं रहती थी और पिता स्वभाव से बहुत कठोर थे | अरविन्द घोष को मात्र 7 वर्ष की आयु में शिक्षा प्राप्त करने हेतु इनके पिता ने लंदन भेज दिया था | घर से दूर, अपनों से दूर रहने के कारण वह खुद बहुत अकेला महसूस कर रहे थे |
अरविंद घोष वैवाहिक जीवन –
पढाई के दौरान ही इनकी शादी सरल स्वभाव की मृणालिनी से हो गई थी | हर सामान्य भारतीय पत्नी की तरह मृणालिनी भी चाहती थी कि उनके पति दुनियां के सभी झमेलों से दूर रहकर सुख, शांति और सुरक्षा का जीवन जिए | पर अरविंद घोष को यह स्वीकार नहीं था | उन्होंने कहा – “व्यक्तिगत प्रेम जीवन के महान उद्देश्यों से श्रेष्ठ नहीं हो सकता | जीवन के महान उद्देश्यों के लिए सब कुछ छोड़ा जा सकता है, पर जीवन के महान उद्देश्य किसी भी वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति के लिए नहीं छोड़ सकते |” अरविंद जी के उद्देश्यों को समझने में मृणालिनी जी को वक्त लगा और जब समझ में आया तब उनके शरीर छोड़कर जाने का समय हो गया था |
पिता का सपना था कि बेटे को आई. सी. एस. के रूप में देखे –
असाधारण प्रतिभा के धनी अरविन्द से इनके अपनों खासतौर पर पिता को बहुत उम्मीदें थी | क्वींस कॉलेज, कैम्ब्रिज से स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण करने के साथ, अग्रेजी, ग्रीक, लैटिन, फ्रैंच आदि 10 भाषाओं के विद्वान होकर सन् 1893 में भारत लौटे और उन्होंने सन् 1890 में आई. सी. एस. की परीक्षा उत्तीर्ण भी की, किन्तु इन्होनें ब्रिटिश सरकार की सेवा करने से इन्कार कर दिया क्योंकि अपने देश, अपनी भारतभूमि का दर्द इनसे देखा नहीं जा रहा था |
बिन मांगे सलाह देने वालों की भी कमी नहीं थी | बहुतो ने कहा कि देश की सेवा तो आई. सी. एस. बनकर भी की जा सकती है | पद पर रहकर गरीबों का, दुखियों का ज्यादा भला कर सकोगे | तुम अपनी प्रतिभा को क्यों बर्बाद कर रहे हो ? सलाह के साथ – साथ अपनों के आँसुओं ने भी इन्हें कई बार घेरने की कोशिश की तब अरविन्द घोष ने कहा – “प्रतिभाशाली होने का अर्थ स्वार्थी होना तो नहीं है | भला ऐसी प्रतिभा किस काम की जो संवेदना को सोख लें | प्रतिभा तो प्रकाश की ओर मुड़ चली अंतश्चेतना है, इसे पुन: अँधियारों में नहीं खोना चाहिए |”
अरविंद घोष का साहस भरा कदम –
सन् 1893 से 1906 तक बड़ोदरा (गुजरात) में रहते हुए क्रमशः राजस्व विभाग, सचिवालय और तदन्तर कॉलेज के प्राध्यापक व अन्त में उपप्रधानाचार्य का कार्यभार संभाला | वहां रहते हुए उन्होनें हिंदी, संस्कृत, बंगला, गुजराती तथा मराठी भाषा के साथ – साथ हिन्दू – धर्म, संस्कृति व इतिहास का अध्ययन किया | अगस्त 1893 से फरवरी 1894 तक बम्बई से प्रकाशित पत्र ‘इन्दुप्रकाश’ में इनकी लेखमाला के क्रांतिकारी विचारों ने देश की राजनीति में सनसनी फैला दी |
सन् 1904 में बंगभंग के समय कलकत्ता जाकर सशस्त्र क्रांति के लिए उन्होनें युवकों का आवाहन किया | परिणामस्वरूप शीघ्र ही बंगाल में क्रांतिकारियों का संगठन तैयार हो गया | विपिन चन्द्र पाल द्वारा आरम्भ ‘बंदेमातरम्’ नामक पत्र के सन् 1906 में सम्पादक बने | उक्त पत्र में देशवासियों के नाम खुली चिट्ठी, भारतीयों के लिए राजनीति, मृत्यु या जीवन नामक इनकी लेखमालाओं ने जहाँ एक ओर भारतीय स्वातंत्र्य संग्राम में गर्मी लाई, तो दूसरी ओर इन्हें पढ़कर ब्रिटिश सरकार बौखला उठी |
अरविंद घोष का ‘बंदेमातरम्’ पत्र –
अरविन्द जी का यह पत्र क्रांतिकारियों का नारा बन गया | इस पत्र से ब्रिटिश सरकार और भी बौखला गई और उसने 5 मई 1908 को अरविन्द जी पर राजद्रोह सहित अनेक षड़यंत्र में शामिल होने के आरोप में गिरफ्तार कर अलीपुर जेल में बंद कर दिया | जेल में अरविन्द जी का जीवन अध्यात्म की ओर मुड़ गया | वहां उन्होनें भगवान का साक्षात्कार किया | ब्रिटिश सरकार उनपर लगे आरोपों को सिद्ध नहीं कर पाई और उन्हें जेल से मुक्त कर दिया गया |
लेखक स्वभाव के अरविंद घोष –
लेखक स्वभाव होने के कारण अब वे अंग्रेजी में कर्मयोगी और बंगला में धर्म नामक पत्रिकाए निकालने लगे | इनके लेखों से ब्रिटिश सरकार आक्रोश में आ गई और अरविन्द जी को देश से निकालने की ठान ली | जब इसकी भनक अरविन्द जी को लगी तो वे चुपके से फ्रांसीसी अधिकार वाले नगर पांडिचेरी चले गये | वहां राजनीति से दूर वे योगसाधना में लीन हो गये | पूरे 40 वर्ष रहकर वहां उन्होनें कठोर साधना की और अनेक सिद्धियाँ प्राप्त की |
अरविंद घोष में योग, अध्यात्म, और राष्ट्रीयता का अनूठा संगम –
उनमें योग, अध्यात्म, और राष्ट्रीयता का अनूठा संगम था | योगसाधना पर इन्होनें अनेक पुस्तके लिखी है | अब लोग श्री अरविन्द जी को महर्षि अरविन्द कहने लगे थे | इसी दौरान एक फ्रांसीसी महिला सत्य की खोज में पांडिचेरी आयी और अरविन्द जी को अपना गुरु स्वीकार कर लिया | आगे चलकर यही महिला श्रीमाँ के नाम से विख्यात हुई और अरविन्द आश्रम की अधिष्ठात्री बन गई | महर्षि अरविन्द के इस आश्रम में तमाम देश और विदेश के विद्वान, सन्यासी के रूप में योगसाधना और अध्यात्म की शिक्षा के लिए आश्रम में आज भी रह रहे हैं |
5 दिसम्बर 1950 को उन्होंने अपनी योजना से शरीर त्याग दिया | 9 दिसम्बर तक इनके शरीर में से एक दिव्य ज्योति निकलती रही | उस दिव्य ज्योति के विलीन हो जाने पर आश्रम में ही इस महामानव को महासमाधि दी गई |