Vaibhav Laxmi Vrat Vidhi in Hindi | वैभवलक्ष्मी व्रत की विधि | Vaibhav Laxmi ki Pooja Vidhi in Hindi

माता लक्ष्मी देवी के अनेक रूप हैं। इन रूपों में से इनका एक धनलक्ष्मी स्वरूप ‘वैभवलक्ष्मी’ हैं जिसकी पूजा – अर्चना शुक्रवार व्रत के रूप करने का विधान है।
‘शुक्रवार माँ वैभव लक्ष्मी व्रत’ को ‘वरदलक्ष्मी व्रत’ भी कहा जाता है। साप्ताहिक व्रतों के क्रम का यह एक बड़ा धार्मिक और महत्वपूर्ण व्रत है । इस व्रत को जो कोई सद्दभावना पूर्वक करता है एवं ‘वैभवलक्ष्मी व्रत कथा’ पढता है अथवा सुनता है और दूसरों को भी सुनाता है तो माँ लक्ष्मी देवी उसकी सभी मनोकामना पूर्ण करती है और उसकी सदैव रक्षा करती है।
इस व्रत को घर का कोई भी सदस्य कर सकता है। कोई भी से मतलब सौभाग्यशाली स्त्रियों, कुवारी कन्याओं और घर के पुरुषों से है। कहते हैं कि अगर इसे घर का कोई पुरुष करता है तो उसकी हर मनोकामना माता अति शीघ्र पूरी करती हैं। वैभवलक्ष्मी बड़ा सीधा – साधा व्रत है और इस व्रत की पूजा विधि भी बड़ी सरल है।
वैभवलक्ष्मी व्रत की विधि या नियम Vaibhav Laxmi Vrat (Niyam) Vidhi in Hindi
माँ लक्ष्मी जी का व्रत करने के सरल नियम इस प्रकार से है –
–> व्रत के दिन प्रातःकाल उठकर स्नानादि करके ‘जय माँ लक्ष्मी’, ‘जय माँ महालक्ष्मी’ इस प्रकार का रटन मन ही मन करते हुए माँ वैभवलक्ष्मी को पुरे श्रद्धाभाव से स्मरण करना चाहिए।
–> 11 या 21 शुक्रवार व्रत रखने का संकल्प करके शास्त्रीय विधि अनुसार पूजा – पाठ और उपसास करना चाहिए।
–> व्रत की विधि शुरू करने से पहले लक्ष्मी स्तवन का एक बार पाठ करना चाहिए।
–> पूजा वेदी पर श्री यन्त्र जरुर स्थापित करना चाहिए क्योंकि माता लक्ष्मी को श्री यन्त्र अत्यंत प्रिय है।
–> व्रत करते समय माता लक्ष्मी के विभिन्न स्वरुप यथा श्रीगजलक्ष्मी, श्री अधिलक्ष्मी, श्री विजयलक्ष्मी, श्री ऐश्वर्यलक्ष्मी, श्री वीरलक्ष्मी, श्री धान्यलक्ष्मी, एवं श्री सन्तानलक्ष्मी तथा श्रीयन्त्र को प्रणाम करना चाहिए।
–> व्रत के दिन हो सके तो पुरे दिन का उपवास रखना चाहिए। अगर न हो सके तो फलाहार या एक बार भोजन करके शुक्रवार करना चाहिए।
–> शुक्रवार वैभवलक्ष्मी व्रत में कुछ विशेष बातों का ध्यान रखना बेहद जरुरी होता है। जैसे की अगर शुक्रवार के दिन आप प्रवास या यात्रा पर गए हो तो वह शुक्रवार छोड़कर उसके बाद के शुक्रवार को व्रत करना चाहिए।
–> यह व्रत अपने ही घर पर करना चाहिए।
–> अगर कोई स्त्री शुक्रवार व्रत के दिन रजस्वला या सूतकी हो तो वह शुक्रवार छोड़कर उसके बाद वाले शुक्रवार को व्रत करना चाहिए।
वैभवलक्ष्मी व्रत सामग्री (Vaibhav Laxmi Pooja Samagrai)
–> माता लक्ष्मी के विभिन्न स्वरुप यथा श्रीगजलक्ष्मी, श्री अधिलक्ष्मी, श्री विजयलक्ष्मी, श्री ऐश्वर्यलक्ष्मी, श्री वीरलक्ष्मी, श्री धान्यलक्ष्मी, एवं श्री सन्तानलक्ष्मी तथा श्रीयन्त्र का चित्र,
–> बैठने के लिए साफ़ – सुधरा आसन,
–> सोना और अगर सोना न हो तो चांदी की चीज। यदि चांदी भी न हो तो रोकड़ रुपया,
–> धूप, दीप, लाल रंग का फूल, चौकी या पाटा, लाल कपडा, ताम्र पात्र (कलश), एक कटोरी कलश पर रखने के लिए, घी, नैवेद्द, फल, हल्दी और कुमकुम।
वैभवलक्ष्मी व्रत की पूजा विधि (Vaibhav Laxmi Vrat Pooja Vidhi)
– सुबह में स्नान करके स्वच्छ कपडे धारण करें।
– सारा दिन माता के विभिन्न स्वरूपों का स्मरण करते रहे।
– स्त्री हो या पुरुष संध्या के समय पूर्व दिशा में मुहं करके आसन पर बैठ जाए।
– मीठी चीजों से बना प्रसाद भी पास में रख ले।
– सामने पाटा रखकर उस पर एक कपड़ा बिछा ले।
– कपडे पर चावल का छोटा सा ढेर बना ले।
– उस ढेर पर पानी से भरा ताम्बे का कलश रखे तथा सोने, चांदी या फिर रुपया कटोरी में रखकर कलश के ऊपर रख दें।
– माँ लक्ष्मी के सभी रूपों का चित्र और श्रीयन्त्र भी पूजा स्थान पर रख लें।
– अब सर्वप्रथम श्रीयंत्र और लक्ष्मी जी के विविध स्वरूपों का सच्चे दिल से दर्शन करे।
– उसके बाद लक्ष्मी स्तवन का पाठ करे।
– कटोरी में रखे गहने या रुपये को हल्दी, कुमकुम और चावल चढ़ाकर पूजा करे।
– लाल रंग के फुल को अर्पण करे एवं कथा कहे और तत्पश्चात आरती करे।
वैभव लक्ष्मी व्रत की कथा

एक बड़ा शहर था। इस शहर में लाखों लोग रहते थे। पहले के ज़माने के लोग साथ साथ रहते थे और एक दूसरे के काम आते थे। पर नए ज़माने के लोगो का स्वरुप ही अलग सा है। सब अपने काम में रत रहते है। किसी को किसी की परवाह नही। घर के सदस्यों को भी एक दूसरे की परवाह नहीं होती। भजन – कीर्तन, भक्ति भाव, दया – माया, परोपकार जैसे संस्कार कम हो गए है। शहर में बुराइयाँ बढ़ गई थी। शराब, जुआ, रेस, व्यभिचार, चोरी – डकैती वगैरह बहुत से गुनाह शहर में होते थे।
एक प्रसिद्द कहावत है कि निराशा में एक अमर आशा छिपी होती है। इसी तरह इतनी सारी बुराइयों के बावजूद शहर में कुछ अच्छे लोग भी रहते थे ।
ऐसे अच्छे लोगों में शीला और उनके पति की गृहस्थी मानी जाती थी। शीला धार्मिक प्रगति की और संतोषी थी। उनका पति भी विवेकी और सुशील था।
शीला और उनका पति ईमानदारी से जीते थे। वे किसी की बुराई न करते थे और प्रभु भजन में अच्छी तरह समय व्यतीत कर रहे थे। उनका गृहस्थी आदर्श गृहस्थी थी। और शहर के लोग उनकी गृहस्थी की सराहना करते थे।
शीला की गृहस्थी इसी तरह ख़ुशी ख़ुशी चल रही थी। पर कहा जाता है कि ‘कर्म की गति अटल है।’ विधाता के लिखे लेख कोई नहीं समझ सकता है। इन्सान का नसीब पल भर में राजा को रंक बना देता है। और रंक को राजा। शीला के पति के अगले जन्म के कर्म को भोगने को बाकी रह गए होगे कि वह बुरे लोगों से दोस्ती कर बैठा। वह जल्द से जल्द करोड़पति होने के ख्वाब देखने लगा। इसलिए वह गलत रास्ते पर चढ़ गया और करोडपति की बजाय रोडपति बन गया यानि रास्ते पर भटकते भिखारी जैसी उनकी हालत हो गयी थी।
शहर में शराब, जुआ, रेस, गांजा वगैरह बदियाँ फैली हुई थी। उसमे शीला का पति भी फंस गया। दोस्तों के साथ उसे भी शराब की आदत हो गई। जल्द से जल्द पैसे वाला बनने के लालच में दोस्तों के साथ जुआ भी खेलने लगा। इस तरह बचाई हुई धन राशि, पत्नी के गहने सब कुछ रेस जुए में गवां दिया।
इसी तरह एक वक्त ऐसा था जब वह सुशील पत्नी शीला के साथ मजे में रहता था। और प्रभु भजन में सुख शांति से अपना वक्त व्यतीत करता था। जबकि अब उसके घर में दरिद्रता और भूखमरी फैल गई। सुख से खाने के बजाय दो वक्त भोजन के लाले पड़ गए थे। और तो शीला को पति की गालियाँ खाने का वक्त आ गया था।
शीला सुशील और संस्कारी स्त्री थी। उसको पति के बर्ताव से बहुत दुःख हुआ किन्तु वह भगवान पर भरोसा करके बड़ा दिल रख कर दुःख सहने लगी। कहा जाता है कि ‘सुख के पीछे दुःख’ और ‘दुःख के पीछे सुख’ आता ही है। इसलिए दुःख के बाद सुख आएगा ही, ऐसी श्रध्दा के साथ शीला प्रभु भक्ति में लीन रहने लगी।
इस तरह शीला असहाय दुःख सहते सहते प्रभु भक्ति में वक्त बिताने लागी। अचानक एक दिन दोपहर को उनके द्वार पर किसी ने दस्तक दी।
शीला सोच में पड़ गई कि मुझ जैसे गरीब के घर इस वक्त कौन आया होगा ?
फिर भी द्वार पर आये हुए अतिथि का आदर करना चाहिए। ऐसे आर्यधर्म के संस्कार वाली शीला ने खड़े होकर द्वार खोला।
देखा तो सामने एक माँ जी खड़ी थी। वे बड़ी उम्र की लगती थी। किन्तु उनके चेहरे पर अलौकिक तेज निखर रहा था। उनकी आखों में मानो अमृत बह रहा था। उनका भव्य चेहरा करुणा और प्यार से झलकता था। उनको देखते ही शीला के मन में अपार शांति छा गई वैसे शीला इस माँ जी को पहचानती नहीं थी। फिर भी उनको देखकर शीला के रोम रोम में आनंद छा गया। शीला माँ जी को आदर के साथ घर में ले आई। घर में बिठाने के लिए कुछ भी नहीं था। अत: शीला सकुचा कर एक फटी हुई चद्दर पर उनको बिठाया।
माँ जी ने कहा “ क्यों शीला ! मुझे पहचाना नही ?”
शीला न सकुचा कर कहा “ माँ ! आपको देखकर बहुत ख़ुशी हो रही है। बहुत शांति हो रही है। ऐसा लगता है कि मैं बहुत दिनों से जिसे ढूढ रही थी वे आप ही है। पर मैं आपको पहचान नहीं सकती।”
माँ जी ने हंस कर के कहा “क्यों ? भूल गई ? हर शुक्रवार को लक्ष्मी जी के मंदिर में भजन कीर्तन होते हैं, तब मैं भी वहाँ आती हूँ। वहाँ हर शुक्रवार को हम मिलते है।”
जबसे पति गलत रास्ते पर चढ़ गया तब से शीला बहुत दुखी हो गई थी और दुःख की मारी वह लक्ष्मी जी के मंदिर में भी नहीं जाती थी। बाहर के लोगों के साथ नज़र मिलाते उसे शर्म लगती थी। उसने याददास्त पर जोर दिया पर यह माँ जी याद नहीं आ रही थी।
तभी माँ जी ने कहा “तू लक्ष्मी जी के मंदिर में कितने मधुर भजन गाती थी। अभी अभी तू दिखाई नहीं देती थी , इसलिए मुझे हुआ कि तू क्यों नहीं आती है ? कहीं बीमार तो नहीं हो गयी है न ? ऐसा सोचकर मैं तुझे मिलने चली आई हूँ।”
माँ जी के अति प्रेम शब्दों से शीला का ह्रदय पिघल गया। इसकी आखों में आसूं आ गए माँ जी के सामने वह बिलख बिलख कर रोने लगी। यह देखकर माँ जी शीला के नजदीक सरकी और उसकी सिसकती पीठ पर प्यार भरा हाथ फेरकर सान्त्वना देने लगी।
माँजी ने कहा, बेटी ! सुख और दुःख तो धूप और छाँव जैसे होते हैं। सुख के पीछे दुःख आता है, तो दुःख के पीछे सुख भी आता है। धैर्य रखो बेटी और तुझे क्या परेशानी है ? तू अपना दर्द मुझे सुना। इससे तेरा मन तो हल्का होगा ही और तेरे दुःख का कोई उपाय भी मिल जायेगा।
उनकी बाते सुनकर शीला के मन को बड़ी शांति मिली। उसने माजी से कहा, माँ ! मेरी गृहस्थी में भरपूर सुख और खुशियां थीं। मेरे पति भी बहुत सुशिल थे। भगवान की कृपा से पैसे की बात में भी हमें बड़ा संतोष था। हम शांति से गृहस्थी चलाते और ईश्वर भक्ति में अपना वक्त व्यतीत करते थे। यकायक हमारा भाग्य हमसे रूठ गया। मेरे पति की बुरी दोस्ती हो गयी। बुरी दोस्ती की वजह से वे शराब, जुआ, रेस, चरस, गांजा वगैरह ख़राब आदतों के शिकार हो गए है और उन्होंने सब कुछ गवां दिया और अब हम लोग रास्ते के भिखारी जैसे बन गए है ।
यह सुन कर माँ जी ने कहा “सुख के पीछे दुःख’ और ‘दुःख के पीछे सुख’ आता ही रहता है। ऐसा भी कहा जाता है कि ‘कर्म की गति न्यारी होती है।’ हर इन्सान को अपने कर्म भुगतने ही पड़ते है। इसलिए तू चिंता न कर अब तू कर्म भुगत चुकी है। अब तुम्हारे सुख के दिन अवश्य आयेगे। तू तो माँ लक्ष्मी जी की भक्त है। माँ लक्ष्मी जी तो प्रेम और करुणा की अवतार है। वे अपने भक्तों पर हमेशा ममता रखती है। इसलिए तू धैर्य रख कर माँ वैभवलक्ष्मी जी का व्रत कर। इससे सब कुछ ठीक हो जाएगा।
वैभवलक्ष्मी व्रत करने की बात सुनकर शीला के चेहरे पर चमक आ गई। उसने माँ जी से व्रत विधि की जानकारी ली। माँ जी ने भी वैभवलक्ष्मी व्रत की शास्त्रीय विधि उसे विस्तार से सुनाया जिसे सुनकर शीला भावविभोर हो उठी। उसे लगा मानो सुख का रास्ता मिल गया है। उसने आंखे बंद करके मन ही मन उसी क्षण संकल्प लिया कि हे वैभवलक्ष्मी माँ ! मैं भी माँ जी के कहे मुताबिक श्रद्दा से शास्त्रीय विधि अनुसार वैभवलक्ष्मीव्रत इक्कीस शुक्रवार तक करूंगी और व्रत की शास्त्रीय विधि अनुसार उद्द्यापन भी करूंगी।
शीला ने संकल्प करके आँखे खोली तो सामने कोई भी न था। वह विस्मित हो गई की माँ जी आखिर कहा चली गई ? ये माँ जी और कोई नहीं बल्कि साक्षात् लक्ष्मी जी थी। चूकी शीला लक्ष्मी जी की परम भक्त थी इसलिए वो अपने भक्त को रास्ता दिखाने के लिए स्वयं ही आई थी।
संयोगवश दूसरे दिन शुक्रवार था। शीला ने पुरे मन और श्रद्दा भाव से वैभवलक्ष्मी का व्रत रखा और पूजा के प्रसाद को सबसे पहले अपने पति को खिलाया। प्रसाद खाते ही पति के स्वभाव में फर्क पड़ गया। उस दिन उसने शीला को मारा नहीं और न ही उसे सताया। शीला को बहुत आनन्द हुआ एवं उसके मन में वैभवलक्ष्मी व्रत के प्रति श्रद्दा और बढ़ गई।
इस तरह शास्त्रीय विधिपूर्वक शीला ने श्रद्दा से व्रत किया और तुरंत ही उसे इसका फल मिला। उसका पति जो गलत रास्ते पर चला गया था वो अब अच्छा आदमी बन गया और कड़ी मेहनत करके व्यवसाय करने लगा। माँ लक्ष्मी जी के वैभवलक्ष्मी व्रत के प्रभाव से उसको व्यवसाय में ज्यादा मुनाफा हुआ । उसने तुरंत शीला के गिरवी रखे गहने छुड़वा लिए। शीला के घर में अब पहले जैसी सुख – शांति छा गई।
उद्द्यापन विधि
वैभव लक्ष्मी व्रत का उद्द्यापन ग्यारह या इक्कीस जो मन्नत मानी हो उतने शुक्रवार पूरी श्रद्दा और भावना से करने पर आखिरी शुक्रवार को किया जाता है।
हर शुक्रवार की तरह आखिरी शुक्रवार को भी माँ वैभवलक्ष्मी की शास्त्रीय विधि से पूजा की जाती है और श्रीफल फोड़े जाते है। खीर या नैवेद्य को प्रसाद स्वरूप बनाकर भी रखना चाहिए।
श्रीफल फोड़ने के बाद कम से कम सात कुमारी या सौभाग्यशाली स्त्रियों को कुमकुम का तिलक करके वैभवलक्ष्मी व्रत की पुस्तक उपहार स्वरुप भेट करनी चाहिए और सब को खीर का प्रसाद देना चाहिए फिर धनलक्ष्मी स्वरुप वैभवलक्ष्मी स्वरुप माँ लक्ष्मी जी की छवि को प्रणाम करके मन ही मन भावुकता से प्रार्थना करते हुए कहना चाहिए –
हे माँ धनलक्ष्मी ! हे माँ वैभवलक्ष्मी ! मैनें सच्चे ह्रदय से आपका वैभवलक्ष्मी व्रत पूरा किया है तो हे मां मैंने जो मनोकामना की थी उसे पूरा करो। हमारा और सबका कल्याण करों । जिसके पास संतान नहीं है उसे तुम संतान दो तथा सौभाग्यशाली स्त्रियों का सौभाग्य अखंड रखना और मां कुवारी लड़कियों को मनभावन पति देना। जय माँ वैभवलक्ष्मी।
आप का ये चमत्कारी वैभव लक्ष्मी व्रत जो कोई भी करे तुम उनकी सारी विपत्ति दूर करना और समस्त संसार को सुखी रखना माँ। हे मां तुम्हारी महिमा अपरम्पार है। इस प्रकार से उद्द्यापन करके आप चाहे तो दुबारा फिर कभी भी वैभवलक्ष्मी व्रत कर सकते है।
गुरुवार (बृहस्पतिवार) व्रत पूजा विधि एवं व्रत कथा
शनि देव को प्रसन्न करने के अचूक उपाय
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kya udhaypan me nariyal jaruri he, plz reply mam
Bharti ji, nariyal jaruri nahi hai. Aap nariyal ke bina bhi udhyapan kar sakti hai.
मैंने कुछ साल पहले व्रत किया था पर मनोइच्छा पूरी न होने पर उद्यापन नहीं किया क्या मै दो व्रत करके दूसरे व्रत मे उद्यापन कर सकती हूं
Shalini ji pahle vale vrat ka udhyapan aap vrat khatam hone ke baad kabhi bhi kar sakti hai. Isliye aap udhyapan karne ke baad hi dusra vrat shuru kare.