कबीर अथवा संत कबीर की जीवनी (Biography of Sant Kabir Das in Hindi)
Kabir Das Biography in Hindi : पूर्व संयासी संत कबीरदास जी उच्चतम आध्यात्मिक विचारों से परिपूर्ण उन महान कवियों में से एक हैं, जिनके चिरस्थायी दोहे ने सदियों पूर्व सभी धर्मों, सम्प्रदायों और जातियों के चल रहें व्यवहार को चुनौती दी और उनके वे दोहे आज भी प्रासंगिक है तथा मानव सभ्यता के रहने तक सांप्रदायिक सौहार्द बढ़ाने में अत्यधिक महत्वपूर्ण योगदान देते रहेंगे।
संत कबीरदास का जीवन और संदेश दोनों ने भारतीय जनमानस को सबसे अधिक प्रभावित किया । भक्त कवियों में कबीर का स्थान आकाश नक्षत्र के समान हैं । यद्यपि उनके विषय में बहुत सी खोजों हुई है बावजूद इसके संत कबीरदास का जीवन – वृत्त अभी भी संदिग्ध है । इस बारे में जो साक्ष प्राप्त है उनमें सबसे बड़ी किवदंतियां कबीर के जन्म तिथि में प्रचलित है ।
‘कबीर चरित्र – बोध’ के मतानुसार इनका जन्म संवत् 1455 विक्रमी, ज्येष्ठ सुदी पूर्णिमा के दिन सोमवार को काशी के लहरतारा तालाब के निकट हुआ था । इनके पंथियों के मतानुसार भी कबीर का जन्म 1455 संवत् पूर्णमासी को ही ठहरता है ।
“चौदह सौ पचपन साल गए, चंद्रवार एक ठाठ गए |
ज्येष्ठ मुदी बरसायत को, पूरणमासी प्रगट भये ||
धन गरजै दामिनी दमके, बूंदें वरसे झर लाग गए |
लहर तारा तालाब में कमल खिले, तहं कबीर भानु प्रगत भये ||”
जबकि इस मत को डॉ श्याम सुन्दर दासजी विवादास्पद मानते है उनका कथन है कि कबीर का जन्म 1455 संवत् में ज्येष्ठ पूर्णिमा चन्द्रवार को नहीं पड़ता । पद को ध्यान से पढने से संवत् 1456 निकलता है क्योकि उसमें स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि चौदह सौ पचपन साल गए अर्थात 1455 संवत् बीत गया था । किन्तु डॉ रामकुमार वर्मा लिखते है कि गणना से संवत् 1456 में चन्द्रवार को ही ज्येष्ठ पूर्णिमा पड़ती है । अत: इस दोहे के अनुसार कबीर का जन्म संवत् 1456 की ज्येष्ठ पूर्णिमा को हुआ । किन्तु गणना करने पर ज्ञात होता है कि चन्द्रवार को ज्येष्ठ पूर्णिमा नहीं पड़ती । चन्द्रवार के बदले मंगलवार दिन आता है । इस प्रकार बाबू श्यामसुंदर दास जी का कथन प्रमाणित नहीं माना जा सकता ।
‘कवि कसौटी’ में भगत कबीर का जन्म संवत् 1455 और मृत्यु 1575 माना गया है। परन्तु आधुनिक खोजों के आधार पर इनका जन्म काल ज्येष्ठ सुदी पूर्णिमा सोमवार विक्रमीय संवत् 1456 और मृत्यु 1575 माना गया है ।
इनके जन्म स्थान लहरतारा तालाब के बारे में भी अभी बहुत मतभेद है । परन्तु अधिकतर विद्वान इनका जन्म काशी का लहरतारा तालाब के निकट ही मानते है । ऐसा कहा जाता है कि जगद्गुरु रामानन्द ने अपने एक भक्ति की विधवा पुत्री को पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे दिया । फलस्वरूप उस विधवा ब्राह्मण पुत्री को एक पुत्र उत्पन्न हुआ । बालक के जन्म के उपरान्त लोक – लाजवश उसने अपने पुत्र को लहरतारा तालाब के किनारे फेंक दिया ।
वहाँ पर नीरू नामक जुलाहे शुद्ध होने के लिए आया और उस बालक को अपने घर ले आया । नि:संतान होने के कारण उसका लालन पालन बड़े प्यार से किया और अपना व्यवसाय सिखाया।
कबीर के शिक्षा के सम्बन्ध में प्रचलित है कि वे अनपढ़ थे लेकिन साधुओं के साथ बैठकर बहुश्रुत हो गए थे और साधु – संगत तथा स्वानुभव से ही उन्होंने ज्ञान अर्जित किया । परन्तु डॉ माताप्रसाद गुप्त, आचार्य परशुराम चतुर्वेदी एवं डॉ ओमप्रकाश शर्मा शास्त्री ने उन्हें पढ़ा – लिखा महान व्यक्ति माना है । इनका मत है कि “मसि कागद छूयो नहीं, कलम गह्यो नहीं हाथ ।” की उक्ति उनके विरोधियों ने प्रचारित की हुई है जबकि कबीरदास निरक्षर नहीं थे । इन्होने किसी विद्यालय में शिक्षा नहीं पाई थी । परन्तु वे पढ़े लिखे थे।
रामानन्द कबीरदास के गुरु थे जिनसे कबीर ने निर्गुण भक्ति की दीक्षा ली । जिसके सम्बन्ध में उन्होंने लिखा भी है –
“काशी में हम प्रगत भये है, रामानन्द चिताय |”
कबीर पर हिन्दुओं और मुसलमानों, दोनों धर्मों के संस्कारों का काफी गहरा प्रभाव पड़ा और रामानन्द एवं उनके विचारों ने भी प्रभावित किया । कबीरदास मूलतः मस्त और फक्कड़ व्यक्ति थे । वे निर्भीक प्रकृति के थे । वे एक गृहस्थ थे, पर साथ ही साथ वे संत भी थे । इन्हीं गुणों के कारण उनके पदों में जीवन का यथार्थ है, एवं उनके अन्तस् की कोमल भावनाओं का चित्रण दोहों में हुआ है ।
कवि के रूप में कबीरदास

भगत कबीर कवि के रूप में सफल रहें । ये हिंदी साहित्य के 15 वी सदी के इकलौते भारतीय रहस्यवादी कवि और संत हुए और भक्तिकालीन युग में ज्ञानाश्रयी – निर्गुण शाखा की काव्यधारा के प्रवर्तक के रूप में जाने गए । इन्होनें अपनी दोहों और कविताओं से सम्पूर्ण भारतीय जनमानस को प्रभावित किया ।
कबीर ने स्वयं किसी ग्रन्थ की रचना नहीं की किन्तु उनके द्वारा गाये हुए पदों को उनके शिष्यों ने इकठ्ठा किया और पुस्तक का रूप दिया और नाम रखा बीजक । इनके तीन भाग है – साखी, सबद, रमैनी ।
कबीर की वाणी सबसे पहले आदिग्रंथ गुरुग्रंथ साहिब में संकलित हुई थी । वही से बाद में खोज आरम्भ हुई और अनेक पद प्राप्त हुए । इनकी भाषा सधुक्कड़ी या खिचड़ी है । अब विद्वान् इसे ब्रजभाषा मानते है । उनकी भाषा के संबद्ध में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा है कि –
“भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था । वे वाणी के तानाशाह थे । जिस बात को उन्होनें जिस रूप में प्रकट करना चाहा, उसे उसी रूप में भाषा से कहलवा दिया है । ”
कबीर की मृत्यु मगहर में संवत् 1575 में हुई । कहते है कि जब उन्हें अपनी मृत्यु निकट आती लगी तो वे काशी छोड़कर मगहर चले आये थे । इस संबंध में उनकी उक्ति है –
“ सफल जनम शिव पुरी गंवाया,
मरते बेर मगहर उठि धाया |”
पर ऐतिहासिक सच्चाई तो यह है कि सिकंदर लोधी ने कबीर को सूखे काँटों में खड़ा करके जलवा दिया था और जब वह चला गया तो उनके अनुयायियों में अंतिम संस्कार को लेकर विवाद हुआ । सभी जातियों ने एकमत से जब उनकी अस्थियों को चुनने के लिए चादर हटाई तो उसके नीचे कुछ फुल पड़े थे जिसेसे उन्होंने अपने – अपने धर्म के अनुसार उनका संस्कार किया था । वास्तव में कबीर एक ऐसे व्यक्तित्व के स्वामी थे जो बाह्य आडम्बरों के घोर विरोधी और सत्याचरण के हिमायती थे ।
कबीर निर्गुणोपासक थे । उनके निर्गुणोपासक में न तो मुसलमानों के एकेश्वरवाद को स्थान प्राप्त था और न हिन्दुओं की सगुणोपासना को । वे जाति – पाति के बंधन को नहीं मानते थे , वे सच्चे मानव थे ।
कबीर के दोहों और सिद्धांतों में नूतनता तो अवश्य थी, किन्तु नीरसता नहीं थी । तभी तो समय की अमूल्यता को इस कवि ने सदियों पहले ही समझ लिया था उन्होंने अपने दोहे कल करे सो आज कर आज करे सो अब (Tomorrow’s Work do Today) में कोई भी काम समय से करने पर विशेष बल दिया है । यह हिंदी की अत्यंत प्रसिद्द सूक्ति है जिसका प्रयोग लोग प्राय: कहावत के रूप में करते हैं । यह दोहा कबीर के एक दोहे का पूर्वार्द्ध है । उनका पूरा दोहा इस प्रकार है –
कल करे सो आज कर आज करे सो अब |
पल में परलै होयेगी बहुरि करोगे कब ||
कबीर के इस दोहे का मतलब है कि हमे समय के सदुपयोग की आदत डालनी चाहिए । तभी हम अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकते है । समय तो क्षणभंगुर है जो अगले क्षण ही धोखा दे सकता है । इसलिए मृत्यु आने से पूर्व जो कुछ करना चाहते है , उसे कर लेना चाहिए ।
पर इनकी साधना समय, वनों और पहाड़ों की कंदराओं में प्रविष्ट होने वाली नहीं थी बल्कि प्रतिदिन के जीवन में कंधे से कंधा और पैर-से-पैर मिलाकर चलने वाली थी ।
यही वजह है कि हिन्दी साहित्य जगत के हजार वर्षों के इतिहास में जब जब अत्यंत प्रसिद्द रचनाओं या दोहों को स्मृति पटल पर याद किया गया तो उनमें संत कबीर दास की रचनाओं और दोहों का नाम सर्वप्रथम आया .
और आज भी उनकी बातें समीचीन हैं। उनके कहें पद व दोहा को आज भी लोग बड़े शौक से सुना करते हैं। कहते है कि कबीर के दोहे में उनका ह्रदय नहीं, बल्कि उनका मस्तिष्क बोलता था।
कबीर ने किसी भी बात का अंधानुकरण नहीं किया बल्कि उन्होंने मानव समाज को नयी चेतना और नया जीवन प्रदान किया । कबीर का भगवान निराकार, अरूप और एक है । कबीर के राम निश्चय ही रूप रेखा और आकार प्रकार से परे है ।
कबीर अपनी रचानों में बार बार परम ब्रह्म के विरह में तड़पती हुई अपनी आत्मा का चित्रण करते है । इनकी आत्मा को बालम के विरह में न तो रात को चैन है और न दिन को । आँखे प्रतीक्षा में रुक गयी है । किन्तु उस बेदर्द बालम ने सुध तक नहीं ली ।
उन्होंने लिखा है –
“ तलफै बिनु बालम मोर जीया,
दिन नहीं चैन, रात नहीं निंदिया,
तलफ – तलफ कैभोर किया |
तन – मन – मोर रहत अस डोलैं,
सून सेज पर जनम दिया |”
नैन थकित भये पथ न सूझै, साई बेदरदी सुध न लिया,
कहत कबीर सुनो भाई साधो, हरो पीर दुख जोर किया |”
रचनाओं के द्वारा ही सही पर कबीर ने हिंसा त्यागने पर अत्याधिक बल दिया है । मुसलमानों में हिंसा की जो तीव्र भावना पाई जाती है, कबीर ने इसकी कटु आलोचना की है –
“ दिन भर रोजा रखत है, रात हंट है गाय,
यह तो खून यह बंदगी, कैसे खुशी समय !
घास – पात जो खात है, तिनकी काढ़ी खाल,
जो नर मुर्गी खात है तिनकी कौन हवाल !”
कबीर ने समता पर भी जोर दिया है । उनकी दृष्टि में न तो कोई ब्राह्मण , न कोई शुद्र, न कोई राम और न कोई रहीम, किसी के बीच में कोई अंतर नहीं । उनका कहना था कि वे ही बड़े है जिनका कर्म बड़ा है –
“हिन्दू तर्क की राह है, सतगुरु इहै बताय,
कहे कबीर सुनो हे संतो, राम न कहेउ खुदाय |
ऊँचे कुल का जन्मीया, करनी ऊँच न होय,
सुबरन कलश सुरा भरा, साधो निंदा सोय ||”
कबीर के स्वरुप के विषय में डॉ, हजारी प्रसाद द्विवेदी कहते है-
“व्यंग करने और चुटकी लेने में कबीर अपना प्रतिद्वंद्वी नहीं रखते । पंडित और काजी, साधु और जोगिया, मुल्ला और मौलवी सभी उनके व्यंग से तिलमिला जाते हैं । अत्यंत सीधी भाषा में ऐसी गहरी चोट करते है कि चोट खाने वाला धूल झाड़कर चल देने के सिवा और कोई रास्ता नहीं पाता |”
डॉ, हजारी प्रसाद द्विवेदी अन्यंत्र लिखा है –
“हिंदी साहित्य के हजार वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई लेखक नहीं उत्पन्न हुआ | महिमों में यह व्यक्तित्व केवल एक व्यक्ति जानता है, तुलसीदास |”
कबीर के समाज दर्शन की प्रासंगिकता
कबीर ने भारत में ऐसे समय में जन्म लिया जब भारतीय समाज निराशा में डूब रहा था । दूसरे शब्दों में कहें तो सामाजिक रूप से कबीर के समय में वर्ण, वर्ग और धर्म – सम्प्रदाय में परस्पर ऊँच – नीच की दीवारे गहरी हो रही थी । धर्म वर्ण और सम्प्रदायगत श्रेष्ठता का भाव चरम सीमा पर था । अत: धार्मिक आडम्बर कर्मकाण्ड जातिवाद आदि प्रधान होता गया । ऐसे समय में विश्रृंखलित होते और परस्पर वैमनस्य से क्षीण होते सामज को कबीर ने ब्रह्म और प्रेम का संदेश दिया ।
ब्रह्मा की एकता के सहारे उन्होनें हिंदू – मुसलमान दोनों के ईश्वर – खुदा को एक बताते हुए धर्म – साधना में सभी प्रकार के कर्मकाण्डो और अवतारवाद को व्यर्थ बताया । ईश्वर एक है और उसे प्रेम – साधना से, आत्मज्ञान से पाया जा सकता है । कबीर का यह दर्शन केवल धर्म क्षेत्र तक ही नहीं सिमित है, बल्कि सामाजिक रूप से भी इसकी महत्वपूर्ण प्रासंगिकता है ।
कबीर समाज सुधारक के रूप में
कबीर मूलत: भक्त थे, संत थे, भक्ति साधना में वे सहज और सत्याचरण के हिमायती थे । अत: समाज सुधार के मार्ग में आने वाली विकृतियों के विरुद्ध उन्होंने बिना लाग लपेट के अपना स्वर व्यक्त किया जो आज भी जरुरी है ।
कबीर जन्म से विद्रोही थे और उन्होंने धर्म – साधना के ही सामजिक संरचना में, मानवीय आचरण में समस्त आडम्बरों, निरर्थक कर्मकाण्डों का विरोध किया । कबीर के रूप में हमें एक ऐसा प्रकाश – स्तम्भ मिला है, जो मानव समाज की एकता, परस्पर प्रेम और सहज सामाजिक जीवन, जिसमें धर्म, वर्ण और जाति का कोई भेद न हो – ऐसे समाज की संरचना में और सबसे ऊपर व्यक्ति को मानवीय गुणों से सम्पृक्त करने में सदियों से प्रकाश देता रहा है और भविष्य में भी देता रहेगा ।
एक भक्त कवि के रूप में एक प्रगतिशील समाज (जो धर्म के साथ कर्म संयुक्त भी हो) की संरचना में कबीर की चिंता और दर्शन उन्हें अन्य भक्त कवियों से अलग पहचान देता है ।
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तुलनात्मक रूप से कबीर दास का इस धराधाम पर जीवन भले ही कष्टपूर्ण रहा लेकिन कठोर जीवन के विस्तार में, उनकी उपलब्धियाँ अत्यधिक थी. उनका जीवन और संदेश लाखों युवा और व प्रौढ़ में समान रूप से प्रेरणा का स्रोत है । बीज हर्गिज बरगद का पेड़ नहीं होता, यद्यपि सम्भावी रूप से बीज में समाविष्ट होता है । इसी प्रकार की आशा की जाती है संत कबीर दास के इस संक्षिप्त जीवन चरित्र से पाठक को भारत के अनपढ़ लेकिन तूफानी संत के और अधिक विस्तृत जीवन का अध्ययन करने की प्रेरणा प्राप्त होगी ।
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thank you!
aapke lekh se mujhe help mili
कबीर दास के बारे में यह लेख अच्छा लगा आपका लिखने का अंदाज काफी अच्छा है
Jai kabir saheb ki
Its fantastic life story of kabirdas Ji
bahut achha lekh hai
उत्तम लेख पढ़कर बहुत ही अच्छा लगा ,कबीर दास जी का जीवन परिचय।
समाज सुधारक कवि कबीर दास जी का बहुत ही बढ़िया ढंग से उनके जीवन शैली को दरसायां गया है ,जो पढ़ कर हमें बहुत ही अच्छा लगा ,एेसे ही बढ़िया लेख लिखते रहिए आप ,इस लेख के लिये आपका बहुत बहुत धन्यवाद।
लेख के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद।
बढ़िया लेख |
बहुत बढ़ियाँ पोस्ट ,कबीर दास जी के जीवन से सम्बन्धित कथा को हमसे शेयर करने के लिये ,