Bhartiya Sanskriti aur Paschatya Sanskriti
अकसर हम लोग जब संस्कृति की बात करते है तो भारतीय संस्कृति एवं पाश्चात्य संस्कृति इन दो शब्दों का ज्यादातर प्रयोग करते है | कई लोग तो ये भी कहते है कि पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव के कारण भारतीय सभ्यता में उपभोक्ता संस्कृति का प्रचार – प्रसार हुआ है | अब जब पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति की बात आ ही गई तो सबसे पहले यह जान लेना जरुरी है की संस्कृति किसे कहते है |
संस्कृति किसी समाज की आत्मा होती है | इसमें उन सभी संस्कारों तथा उपलब्धियों का बोध होता है जिसके सहारे सामूहिक अथवा सामाजिक जीवन व्यवस्था, लक्ष्यों एवं आदर्शों का निर्माण किया जाता है |
भारतीय और पाश्चात्य संस्कृति की विशेषताएं (Bhartiya sanskriti aur paschatya sanskriti Ki Visheshataye in hindi)

संस्कृति का कोई मूर्त या साकार स्वरूप नहीं हुआ करता, ये तो मात्र एक अमूर्त भावना होती है जो अपने अमूर्त स्वरुप वाली डोर में न केवल किसी विशेष भू – भाग के निवासियों, बल्कि उससे भी आगे बढ़ सारी मानवता को बाधे रखने की अद्भुत क्षमता अपने में समाएं रहती है | संस्कृति मानवीय साधना का सर्वश्रेष्ठ स्वरुप है |
डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों के में “ मनुष्य की श्रेष्ठ साधनाएं ही संस्कृति है |”
अंग्रेजी विद्वान् एवं समालोचक के शब्दों में “विश्व के सर्वोत्कृष्ट विचारों एवं कथनों का ज्ञान ही संस्कृति है |”
हर संस्कृति की अपनी – अपनी विशेषता एवं लक्षण होते है जो अकसर टकराव के रूप में दिखाई देता है जैसे की आज भारतीय संस्कृति और पाश्चात्य संस्कृति की विशेषताओं के बीच टकराव की स्थिति दिखाई पड़ती है | भारतीय संस्कृति और पाश्चात्य संस्कृति के मध्य किन – किन चीजों से यह स्थिति पैदा होती है उनकी चर्चा आज हम इस लेख में करेंगे |
पश्चिमी सभ्यता बनाम भारतीय सभ्यता
भारतीय संस्कृति का विकास प्रकृति के क्रोड में हुआ है जो की ऋषि – कृषि संस्कृति होने के कारण सर्वाधिक प्रमुख एवं पहली विशेषता कही जाती है | जबकि पाश्चात्य संस्कृति ईंट – पत्थरों के मकान को सर्वस्व मानती है |
भारतीय संस्कृति ऊध्वर्गामी एवं आंग्ल विधायिका है | पाश्चात्य संस्कृति यूरोपीय पानी मिट्टी को सर्वस्व मानती है |
भारतीय संस्कृति वस्तुतः कृषि और ऋषि परम्परा पर आधारित होने के कारण इसका विकास वनों को काटकर अन्न उपजाने वाले किसानों एवं वन प्रदेश के एकांत स्थलों पर साधनारत तपस्वियों द्वारा हुआ है | जबकि पाश्चात्य संस्कृति का विकास उन तत्वों को लेकर हुआ है जिन्हें भारतीय मनीषा सभ्यता के रूप में स्वीकार करती है |
प्राचीर इतिहास में झाककर देखें तो मिलता है कि आर्य प्रवासी जब पहले पहल इस देश में आए तो उन्होंने यहाँ की भूमि को वेस्तीर्ण वन – उपवनों की भूमि के रूप में पाया | इस भूमि की निषिद्ध वनों के हरित पल्लवित वृक्षों ने उन्हें तब प्रचंड गर्मी में शरण दी और तूफानी आँधियों से रक्षा करके अपने आचंल में आश्रय दिया जब वे इस भूमि को निवास योग्य बनाने का प्रयत्न कर रहें थे |
इस भूमि में पशुओं के लिए उन्हें चारागाह मिले | यज्ञ की अग्नि के लिए यथेष्ठ समिधाएँ मिली | कुटीर बनाने के लिय उन्हें यथेष्ठ लकड़ियाँ मिली और जब उन्हें इतनी सारी सुविधाएं मिली तो वे सुखपूर्वक रहने लगे और अपने बुद्धि कौशल द्वारा उन्होंने खेतों, गांवों, नगरों आदि का और अधिक विकास किया |
इस तरह हमारे भारत की सभ्यता का उद्भव जंगलों में हुआ और विशेष वातावरण में विकसित होकर विशिष्टता युक्त भारतीय संस्कृति हो गई | प्रकृति जिसकी माता बनी और उसी के क्रोड में उसका पालन पोषण हुआ |
कुछ विचारकों ने तो ये कहने से भी खुद को रोक न पाए कि वन्य जीवन में बुद्धि कुठित हो जाती है और जीवन का धरातल नीचे गिर जाता है | जबकि इतिहास साक्षी है कि तत्कालीन वन जीवन ने मनुष्य की मन:स्थिति को एक विशेष दिशा में प्रेरित किया | प्रकृति के सहचर्य ने उसे सिखा दिया कि स्वत्वों की रक्षा के लिए एक भयभीत कृपण की भातिं किले बंदी की आवश्यकता नही है |
इस प्रकार स्वार्थपरता के प्रति उदासीनता एवं स्वतंत्रता में भारतीय मनीषा का निर्माण हुआ | प्रकृति ने तो उन्हें यह भी सिखा दिया की मनुष्य का ध्येय स्वत्व वृद्धि नहीं है बल्कि स्वानुभव और समीपस्थ चेतन – अचेतन वस्तुओं के साथ विस्तृत और विकसित होना है | उसने सिखा कि सत्य की प्राप्ति का सच्चा रास्ता विश्व की सम्पूर्ण विभूतियों में स्वात्म अनुभूति करना ही है |
फलत: विश्व के कण कण के प्रति आत्मीयता का अनुभव भारतीय संस्कृति का मूलाधार बना | विश्व बंधुत्व, वसुधैव कुटुम्बकम् सिद्धांत उसी का सर्वव्यापी रूप है | अनुभूति विश्व चेतना की देन है |
ज्ञान द्वारा, प्रेम द्वारा, सेवा द्वारा सब प्राणियों में संभव रखना और इस प्रकार सर्वव्यापी रूप को अनुभव करना ही भारतीय अथवा मानव संस्कृति का सर्वश्रेष्ठ तत्व है और यही सारांश रूप भारतीय संस्कृति की विशेषता है जिसको लक्ष्य करके कवि इक़बाल ने कहा है –
“कुछ बात है कि ऐसी हस्ती मिटती नहीं हमारी”
स्वामी विवेकानंद ने ठीक ही कहा है कि भारतीय (हिन्दू) संस्कृति आध्यात्मिकता की अमर आधारशिला पर आधारित है |
प्राचीन यूनान की सभ्यता की उपज है यूरोप की सभ्यता या पाश्चात्य संस्कृति जिसका विकास नगर – दीवारों की किलाबंदियों से हुआ | सम्पूर्ण आधुनिक सभ्यता ने ही ईटों और पत्थरों के पालने में जन्म लिया और इसी जड़ वातावरण में विकास पाया है |
आधुनिक सभ्यता अर्थात तथाकथित पाश्चात्य सभ्यता पूर्णत: स्टूल एवं जड़वादी कहा जाता है क्योकि मनुष्यों के मन पर इन दीवारों की गहरी छाप पड़ गयी है | यह प्रभाव अपने आत्मसात आदर्शों को भी दीवारों में बंद करने की प्रवृति को उकसाता है – अपने को हम प्रकृति से भिन्न देखने के अभ्यस्त हो चले है ? भारत की ऋषि – कृषि संस्कृति से पाश्चात्य सभ्यता की यह बहुत महत्वपूर्ण विलगता है |
रवीन्द्रनाथ टैगोर के शब्दों में “यह प्रवृति हमे स्वनिर्मित प्राचीरों के बाहर की प्रत्येक वस्तु को संदिग्ध दृष्टि से देखने को विवश कर देती है और हमारे अंत:करण तक प्रवेश करने के लिए सच्चाई को भी विकट युद्ध करना पड़ता है |”
स्पष्टत: भारतीय संस्कृति और पाश्चात्य संस्कृति के मध्य साधन – साध्य दोनों ही दृष्टियों से व्यापक अंतर है | एक प्रकृति से साहचर्य की पक्षधर है तो वही द्वितीय स्वनिर्मित दीवारों के मध्य बनाए गए छिद्रों से होकर प्रकृति को देखकर संतुष्ट कर लेती है |
भारतीय संस्कृति का स्वरुप विश्वव्यापी एवं आध्यात्मिकतागामी है जबकि पाश्चात्य संस्कृति जड़वादी एवं आत्मक्रेंदित है | पाश्चात्य संस्कृति व्यक्तिवादी है , जबकि भारतीय संस्कृति विश्व के साथ व्यक्ति के संबंधो को महत्त्व देती है | भारतीय संस्कृति मानवतावादी है जबकि पाश्चात्य संस्कृति स्वकेंद्रित है और व्यक्ति के छोटे छोटे कटघरों में बांटकर देखती है |
पाश्चात्य संस्कृति भौतिक के प्रति प्रतिबद्ध दिखाई देती है | अत: वह मूलतः अर्थवादी है तथा उसकी मूल प्रवृति भोगवादी है | यह मुख्यतः भौतिक उन्नति के प्रति समर्पित प्रतीत होती है क्योकि उसका आध्यात्मिक पक्ष भी पदार्थ के सूक्ष्मतम रूप से आगे नहीं बढ़ पाता है | दृष्टव्य है ईसाई धर्म का दार्शनिक पक्ष मनुष्य के बंधुत्व पर जाकर रुक जाता है |
भारतीय संस्कृति त्यागवादी है | उसका आध्यात्मिक पक्ष चेतना के उच्चतम प्रदेशों तक जाता है | वह सादा जीवन और उच्च विचारों की संस्कृति है | वह विश्व के कण कण के प्रति आत्मीयता की अनुभूति करती है और विश्व बंधुत्व का प्रतिपादन करती है | उसमे बाह्य-प्रदर्शन का महत्व बहुत कम है | भारतीय संस्कृति कृषि – ऋषि की संस्कृति है |
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Very good essay.
Very good writing skill you have.