गीता की कर्तव्य पालन पर कहानी (Kartavya Palan Par Kahani in Hindi)

Kartavya Palan Ki Kahani in Hindi : महाभारत के युद्ध की तैयारिया चल रही थी | श्रीकृष्ण ने घोड़ों की वल्गाओं को रथ – दंड से बांध दिया और सारथी का आसन त्यागकर पीछे अर्जुन के बराबर में जाकर बैठ गए | उन्होंने अर्जुन के ठंडे, कांपते हाथों को अपने हाथों में ले लिया और उनकी झुकी ठोड़ी को अपने हाथ से ऊपर उठाया | फिर उनकी आंखों में आंखें डालकर कुछ व्यंग – मिश्रित प्रेम – भरी भाषा में बोले, “आज तो बड़ी – बड़ी बातें कर रहे हो, पार्थ ! धर्म, अधर्म, पाप – पुण्य, स्वर्ग – नरक – तुम तो पूरे दार्शनिक हो गए हो गुरु द्रोड़ ने शस्त्र – संचालन के अतिरिक्त क्या दर्शन – शास्त्र भी पढ़ाया था तुम्हें? किन्तु वे तो स्वयं ही अपने रथ को अनेकानेक अस्त्रों-शास्त्रों से भरकर रणांगन में भूखे व्याघ्र की तरह सतर्क खड़े हैं | वे तो धर्म – कर्म, पाप – पुण्य की बात नहीं कर रहें हैं | फिर यह ज्ञान तुमने कहां से लिया ? और क्या तुम्हें यह विश्वास है कि यह ‘ज्ञान’ ही है ?”
हे माधव ! “जो स्पष्ट सामने दिखाई दे रहा हो, उसके विषय में अधिक क्या सोचना | युद्ध का परिणाम स्पष्ट ही कुलनाश, जतिनाश और…..और….सर्वनाश ही है | देखकर भी हम आंखें मूंद लें तो यह पाप नहीं तो और क्या है ? स्वयं काल का ग्रास बनना कोई धर्म नहीं !”
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श्रीकृष्ण – “ अर्जुन के इस कायरतापूर्ण, अनर्गल प्रलाप को सुन रहे थे और सोच रहे थे कि धर्म की बात करने वाला अर्जुन अपना कर्तव्यपरायणता का धर्म भी भूल गया है | इसी घड़ी के लिए उसने जीवन – भर तपस्या की है ! जाने किस – किस देवता की सेवा कर उनसे असंख्य दिव्यास्त्र एकत्रित किए हैं | क्या सब मंदिर में बैठकर ताली झुनझुने बजाने के लिए हैं ? यदि अर्जुन को नि:शस्त्र देखकर धृतराष्ट्र – पुत्रों ने उसके सारे भाईयों, पुत्रों और संबंधियों को मार डाला, तब कुल में पितरों को पिंड देने वाला कौन बचेगा ? भरी सभा में जो कौरव अर्जुन की उपस्थिति में उसी की पत्नी द्रौपदी को घसीटकर अपनी जांघ पर बैठा सकता है, फिर भला वह जीतने के बाद पांडव ललनाओं के साथ क्या – क्या करेगा, क्या इसकी कल्पना की जा सकती है ? उसे समझाना होगा कि वास्तविक धर्म क्या है |”
“हे अर्जुन ! तुमको इस विषम स्थल में यह अज्ञान किस हेतु से प्राप्त हुआ ? न तो श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा ऐसा आचरण किया गया है और न ही यह स्वर्ग देने वाला है और न ही यह तुम्हारी कीर्ति को बढ़ाने वाला है | यह तो नपुसंकता का मार्ग है, पार्थ | यह मार्ग तो गांडीवधारी अर्जुन के लिए बिलकुल उचित नहीं है | हे परंतप ! इस दुर्बलता को झटककर फेंक दें | उठ ! खड़ा हो जा युद्ध के लिए |”
अर्जुन कुछ देर चुप रहे | और फिर दयार्द्र – सा होकर बोले, “हे मधुसूदन, जरा सोचो तो, मैं अपने पूज्य गुरुदेव द्रोड़ और पितामह भीष्म पर कैसे बाणों की वर्षा कर सकता हूं ! इनको मारने से अच्छा है कि मैं भिक्षा मांगकर ही अपना निर्वाह कर लूं | भला मैं, अपने गुरुजनों पर कैसे हथियार उठा सकता हूं ?”
“तुमने यह भी कैसे सोच लिया, पार्थ ! कि तुम्हीं इन गुरुजनों और आचार्यों को मार सकोगे ? इसका विपरीत भी तो हो सकता है ! दूसरा पक्ष तुम्हें मारने को सन्नद्ध खड़ा है |” श्रीकृष्ण ने प्रश्न फेंका |
अर्जुन – “मैं यह नहीं कह रहा हूं मधुसूदन कि हम ही जीतेगे और वे मरेंगे ही | पता नहीं कौन जीते, कौन हारे? मैं तो यह कह रहा हूं कि मैं धृतराष्ट्र के पुत्रों को भी मारकर जीना नहीं चाहता | वास्तव में मैं जितना ही नहीं चाहता | जितना क्या, मैं युद्ध ही नहीं करना चाहता, केशव | संसार का निष्कंटक राज्य, यहां तक कि स्वर्ग का स्वामी होकर भी मैं नहीं देखता कि मेरा शोक दूर हो सकेगा |”
अर्जुन का मुंह और लटक गया, उसमें साहस नहीं हुआ कि वह कृष्ण की आंखों में झांक सके | उसे श्रीकृष्ण की खुली, चौड़ी, प्रश्न पूछती आंखों ने ही कुछ अहसास करा दिया कि उसमें कायरता प्रवेश कर रही है | वह कुछ पल मुंह लटकाए रहा | फिर सहसा कृष्ण की आंखों में अपनी दयार्द्र, याचना करती हुई – सी आंखें डालीं और हाथ जोड़कर गिडगिडाया –
“मैं युद्ध नहीं करूंगा, कृष्ण, मैं युद्ध नहीं करूंगा ! युद्ध क्या, मेरा मन कुछ भी करने का नहीं हो रहा है | मुझे नपुंसकता घेरे जा रही है | मैं अपना कर्तव्य – कर्म भूल गया हूं | मेरा मार्ग – दर्शन करें, केशव ! मेरा मार्ग – दर्शन करें | मैं आपका शिष्य हूं | मैं आपकी शरण में हूं |”
हांफता – सा अर्जुन मुंह लटकाकर चुप जो गया |
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अर्जुन की स्थिति देखकर श्रीकृष्ण हँस पड़े और कहा – “मैं युद्ध नहीं करूंगा- यह तो तुमने निश्चय ही कर लिया है | फिर क्यों कहता है कि मेरा मार्ग – दर्शन करें कि मैं क्या करूं | ऐसी अनिश्चय की स्थिति में ऐसा निश्चयात्मक वक्तव्य ? कैसा है आदमी का मन | कैसा दोहरा व्यक्तित्व | शास्त्रों की भाषा बोलता है | शास्त्रों के हवाले दे रहा है, और मूर्तिमंत शास्त्र सामने खड़ा है | छद्म ज्ञान की बातें समक्ष खड़े साक्षात ज्ञान से ही कर रहा है | और निर्णय लेकर भी अनिर्णय की स्थिति में क्यों है ? मनुष्य कह देता है कि मैं तेरी शरण में हूं फिर भी स्वयं को बचाकर रखता है |”
किंतु श्रीकृष्ण तो अर्जुन से प्रेम करते हैं | उसके घोड़े की लगाम तो उन्होंने थाम ही ली है | अब अर्जुन के भटकते मन की लगाम भी थामनी ही होगी |
श्रीकृष्ण ने अर्जुन का हाथ अपने हाथ में ले लिया और उसकी दृष्टि में सेंध लगाकर उसके ह्रदय में उतरते हुए बोले, “हे अर्जुन ! तू शोक न करने वालों के लिए शोक करता है | वास्तव में इस संसार में कोई शोक करने योग्य है ही नहीं | यहां कोई मरता ही नहीं | यहां सभी आत्माएं हैं और आत्मा कभी मरती ही नहीं | ऐसा कोई काल नहीं है, जिसमें मैं नहीं था | या कि ये राजा लोग जो युद्ध में खड़े है, नहीं थे | और हम सब इससे आगे भी होंगे |”
“यह कैसे संभव है, केशव ? हम सबने कभी न कभी जन्म तो लिया ही है न ? और हम सब मरेंगे भी |” अर्जुन की जिज्ञासा कुछ बढ़ी |

“जन्म, जीवन नहीं है, पुरुषश्रेष्ठ ! जीवन शाश्वत है | जन्म – मृत्यु घटनाएँ हैं | जीवन अस्तिव है | और अस्तित्व को कभी अन – अस्तित्व में नहीं ले जाया जा सकता | हां, अस्तित्व का रूप बदलता रहता है | तभी तो संसार रंग – बिरंगा और मोहक लगता है | अस्तित्व असीम है , अभिव्यक्ति सिमित है | अर्जुन की आत्मा असीम और अनंत है | अर्जुन सिमित है – मात्र एक लघु अभिव्यक्ति | ऐसी अभिव्यक्ति भिन्न – भिन्न रूपों में बार – बार हुई है | शरीर के ही नाम-रूप बदलते रहते हैं | आत्मा तो अजन्मा , नित्य, शाश्वत और पुरातन है | शरीर के नाश होने पर भी यह नष्ट नहीं होता |”
अर्जुन अवाक् होकर यह सब सुन रहे थे | समझने का प्रयास भी कर रहे थे | वह कुछ संभलकर बैठ गये और श्रीकृष्ण के चमकते मुखमंडल की ओर निहारने लगे | कृष्ण ने जब घोड़े की वल्गा थामी थी तब ऐसे नहीं लग रहे थे | अब तो उनके मुख का तेज प्रतिक्षण जैसे बढ़ता जा रहा है | पहले कृष्ण ने अर्जुन के हाथ पकड़े थे | अब जैसे अर्जुन ने कृष्ण के हाथों को कसकर पकड़ लिया और उनके मुखारविंद से पराग जैसे झरते एक – एक शब्द को पीने लगे |
श्रीकृष्ण बोलते जा रहे हैं- “और जब आत्मा नष्ट ही नहीं होती तो भला कैसे कोई किसी को मार सकता है या मारा जा सकता है ?”
“किन्तु शरीर का अस्तित्व भी तो है ही न, कृष्ण | चाहे कुछ काल के लिए ही सही | और आत्मा कुछ काल के लिए शरीर के साथ रहती है तो उस शरीर से मोह तो हो ही जाता है न ! उस शरीर के गिरने का ही तो शोक होता है | शरीर के वियोग का शोक होना क्या उचित नहीं है ?” अर्जुन अभी अपने धरातल से ही प्रश्न पूछ रहा है |
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“नहीं, यह उचित नहीं है | बिलकुल उचित नहीं, क्योंकि शरीर तो वस्त्र के समान है | जैसे मनुष्य पुराने वस्त्र त्यागकर नए वस्त्र धारण करता है ऐसे ही आत्मा भी पुराने, जीर्ण-शीर्ण शरीर को त्यागकर नया शरीर धारण करती है | क्या पुराना फटा हुआ वस्त्र त्यागकर नया वस्त्र पहनने में कभी तुमने शोक किया है ? हां ! बच्चे अवश्य रोते हैं जब माँ उनके फटे – पुराने वस्त्र उतार रही होती है | किन्तु माँ उनके रोने की परवाह न करके नया वस्त्र पहना देती है, क्योंकि वह इसी में बच्चे का कल्याण देखती है | और नया वस्त्र पहनकर बच्चा बाद में प्रसन्न ही होता है और पुराने वस्त्रों को भूल जाता है | अपने शरीर को वस्त्र की भांति अनुभव करने का प्रयास करो | फिर देखो, तुम्हें शोक और वियोग नहीं, आनंद की अनुभूति होगी | नूतन सदैव आनंद देता है |”
शरीर को मात्र वस्त्र की तरह अनुभव करने की बात पहली बार सुनी थी अर्जुन ने | उसने अनुभव करने का प्रयास भी किया, किन्तु कुछ है जो उसके मन में गड्डमड्ड हो रहा है | उसने पूछ ही लिया, “ आपने कहा आत्मा कभी जन्मती नहीं, क्योंकि वह कभी मरती भी नहीं | और शरीर बदलता रहता है | फिर कौन है जो अमर आत्मा और नश्वर शरीर का बार – बार संयोग करवाता है ?”
“एक शरीर है जो आत्मा के लिए भीतर का वस्त्र है – वह है सूक्ष्म शरीर | उसे अन्त:वस्त्र भी कह सकते हैं |वह शरीर एक प्रकार के विद्धुत कणों से ही निर्मित है | यह मन बुद्दी, चित्त अहंकार से बना है |इसे कारण शरीर या जीवात्मा भी कहते हैं | सूक्ष्म शरीर आता – जाता ई | आत्मा आती जाती नहीं, स्थूल शरीर आता – जाता है | स्थूल शरीर मिलता है माता – पिता से, सूक्ष्म शरीर मिलता है पिछले जन्म से और आत्मा सदा शाश्वत ही है | सूक्ष्म शरीर नहीं तो स्थूल शरीर ग्रहण नहीं किया जा सकता | सूक्ष्म शरीर टूटने का अर्थ है मोक्ष | सारी साधनाएं एस सूक्ष्म शरीर को तोड़ने की हैं |”
“मान लिया कि सूक्ष्म शरीर के टूटने से मोक्ष मिल जाता है |” अर्जुन के मन में बादलों की तरह प्रश्न उमड़-घुमड़ रहे हैं – “फिर मोक्ष मिलने के बाद भी क्या आत्माएं एक – दूसरे से मिल सकती हैं? क्योंकि आपने कहा आत्मा तो अरूप है | रूप तो केवल शरीर का होता है |”
“अभी तुम मिलने – बिछुड़ने पर ही अटके हो !” कृष्ण ने मुस्कराते हुए उदाहरण देकर उसका समाधान करने का प्रयास किया, “आत्मा को बूंद समझो अर्जुन ! और परमात्मा को सागर | जैसे बूंद समुद्र में मिल जाती है, ऐसे ही आत्मा परमात्मा में | कोई बूंद से पूछे कि सागर में गिरकर तू कहां होगी ?”
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अर्जुन ने भरपूर उर्जा से प्रश्न किया “फिर मेरा धर्म क्या है, मधुसूदन ?”
“हे अर्जुन तुम अपने कर्तव्य – धर्म का पालन करों | इससे बढकर एक क्षत्रिय के लिए कोई कल्याणकारी कर्तव्य नहीं होता | यह युद्ध तुमने जान-बूझकर खड़ा नहीं किया है | तुमने लोगों से संधि करने की बहुत चेष्टा की, किन्तु किसी भी प्रकार से दुर्योधन ने तुम्हारा धरोहर के रूप में रखा राज्य वापस लौटाने से मना कर दिया | इसलिए हे अर्जुन ! मार्ग कितना भी कठिन हो, मनुष्य को कभी अपना कर्तव्य पालन नहीं भूलना चाहिए और इस समय यह युद्ध तो तुम्हें कर्तव्य – रूप में प्राप्त हुआ है | इसलिए हे अर्जुन आगे बढों और अपने कर्तव्य का पालन करों |”
दोस्तों भगवत गीता में श्रीकृष्ण के द्वारा अर्जुन को कर्तव्य बोध पर दिए गए उपदेशों को कहानी के माध्यम से बताने का उद्देश्य मनुष्य को उसके नैतिक कर्तव्यों से अवगत कराना था | मनुष्य जीवन को अपने कर्तव्यों का पालन करने से कभी भी पीछे नहीं हटना चाहिए क्योंकि कर्तव्य पालन ही मनुष्य का बड़ा धर्म है |
कर्तव्य परायणता मनुष्य जीवन की स्थिरता एवं प्रगति का अस्तित्व एवं आधारशिला होता है | इससे विमुख नहीं होना चाहिए क्योंकि व्यक्ति को उसके कर्तव्य कर्म रूप में प्राप्त होते है |कर्तव्य पालन व्यक्ति की कर्तव्य निष्ठा का परिचय देता है |
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Kya khoob likha hai Babita ji aapne achha article hai aap k shandaar post k liye aap ka dhnybad
Thanks Sandeep ji.
बहुत ही बेहतरीन article लिखा है आपने। Share करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। 🙂 🙂
Thank you so much.
कर्तव्य परायनता के लिए अर्जुन और श्रीकृष्ण संवाद से बढ़ कर कोई संवाद नहीं हैं। शेयर करने के लिए धन्यवाद।
धन्यवाद ज्योंति जी ।
अज़र अमर आत्मा , सूक्ष्म शरीर व् स्थूल शरीर को बहुत बारीकी से बताया है | जीवन तो शाश्वत है परन्तु सूक्ष्म शरीर ही पिछले जन्म के कर्मों के आधार पर बार – बार जन्म लेने को विवश करता है | गीता का ज्ञान पूरी मानवजाति के लिए अनमोल है | उसे सरल भाषा में समझा कर आपने आत्मा परमात्मा से सम्बंधित तमाम प्रश्नों का निराकरण किया है | अच्छा आलेख … धन्यवाद बबिता जी
Thanks and keep visiting.
very Nice Article shared with us thank you
Thanks.