संत कबीर के दोहे और उनके अर्थ

कबीर के दोहे हिंदी अर्थ सहित – Kabir Ke Dohe With Meaning Hindi Language
दोहा – 1
कबीर कहा गरबियो, काल गहे कर केस।
ना जाने कहाँ मारिसी, कै घर कै परदेस।।
अर्थ : परमज्ञानी कबीर दास जी कहते हैं कि हे मानव ! तू क्या गर्व करता है? काल अपने हाथों में तेरे केश पकड़े हुए है। मालूम नहीं, वह घर या परदेश में, कहाँ पर तुझे मार डाले।
***
दोहा – 2
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।”
अर्थ – संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि बड़ी बड़ी पुस्तकें पढ़ कर इस जग में न जाने कितने लोग मृत्यु के द्वार पहुँच गए, पर सभी विद्वान न हो सके। कबीर मानते हैं कि यदि कोई प्रेम या प्यार के केवल ढाई अक्षर ही अच्छी प्रकार से पढ़ ले, अर्थात प्यार का वास्तविक रूप पहचान ले तो वही सच्चा ज्ञानी होगा।
***
दोहा – 3
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय,
जो दिल खोजा आपना, तो मुझसे बुरा न कोय।
अर्थ – कबीर कहते है जब मैं इस संसार में बुराई खोजने निकला तो मुझे कोई बुरा नहीं मिला परन्तु जब मैंने अपने मन में झाँक कर देखा तो पाया कि इस संसार में मुझ से बुरा कोई नहीं है ।
***
दोहा – 4
जब गुण को गाहक मिले, तब गुण लाख बिकाई।
जब गुण को गाहक नहीं, तब कौड़ी बदले जाई।।
अर्थ : कबीर कहते हैं कि जब गुण को परखने वाला ग्राहक मिल जाता है तो; गुण की कीमत होती है। पर जब ऐसा ग्राहक नहीं मिलता, तब गुण कौड़ी के भाव चला जाता है।
***
दोहा – 5
तू – तू करु तो निकट है, दूर – दूर करु हो जाय,
ज्यौं गुरु राखै त्यों रहै, जो देवै सो खाय।
अर्थ – तू – तू करके बुलावे तो निकट जाय, यदि दूर – दूर करके दूर करे तो दूर जाय । गुर और स्वामी जैसे रखे उसी प्रकार रहे, जो देवें वही खाय । कबीर कहते है कि यही अच्छे सेवक के आचरण होने चाहिए ।
***
दोहा – 6
निरमल गुरु के नाम सों , निरमल साधू भाय,
कोइला होय न ऊजला , सौ मन साबुन लाय ।
अर्थ – सत्गुरू के सत्य – ज्ञान से निर्मल मनवाले लोग भी सत्य – ज्ञानी हो जाते हैं, लेकिन कोयले की तरह काले मनवाले लोग मन भर साबुन मलने पर भी उजले नहीं हो सकते – अर्थात उन पर विवेक और बुद्धि की बातों का कोई असर नहीं पड़ता ।
***
दोहा – 7
कबीर लहरि समंद की, मोती बिखरे आई।
बगुला भेद न जानई, हंसा चुनी-चुनी खाई।।
अर्थ :कबीर कहते हैं कि समुद्र की लहर में मोती आकर बिखर गए. बगुला उनका भेद नहीं जानता, परन्तु हंस उन्हें चुन-चुन कर खा रहा है. इसका अर्थ यह है कि किसी भी वस्तु का महत्व जानकार ही जानता है।
***
दोहा – 8
कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर,
ना काहू से दोस्ती,न काहू से बैर।
अर्थ : इस संसार में आकर कबीर अपने जीवन में बस यही चाहते हैं कि सबका भला हो और संसार में यदि किसी से दोस्ती नहीं तो दुश्मनी भी न हो !
***
दोहा – 9
दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार,
तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।
अर्थ : इस संसार में मनुष्य का जन्म मुश्किल से मिलता है. यह मानव शरीर उसी तरह बार-बार नहीं मिलता जैसे वृक्ष से पत्ता ;झड़ जाए तो दोबारा डाल पर नहीं लगता।
***
दोहा – 10
कल करे सो आज कर, आज करे सो अब,
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब ।
अर्थ – कल के सारे काम आज कर लें, और आज के काम अभी खत्म कर लें, समय का कोई भरोसा नहीं, पता नहीं कब प्रलय हो जाये। इसलिए शुभ काम को कल पर कभी मत टालिए, उनको जीवन ख़त्म होने से पहले कर लीजिये ।
***
दोहा – 11
दीपक सुन्दर देख करि, जरि जरि मरे पतंग,
बढ़ी लहर जो विषय की, जरत न मोरें अंग ।
अर्थ – जिस प्रकार दीपक की सुनहरी और लहराती लौ की ओर आकर्षित होकर कीट – पतंगे उसमें जल मरते हैं उसी प्रकार जो कामी लोग होते है वो विषय – वासना की तेज लहर में बहकर ये तक भूल जाते है कि वे डूब मरेंगे ।
***
दोहा – 12
कहत सुनत सब दिन गए, उरझि न सुरझ्या मन।
कही कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन।।
अर्थ : कहते सुनते सब दिन निकल गए, पर यह मन उलझ कर न सुलझ पाया। कबीर कहते हैं कि अब भी यह मन होश में नहीं आता। आज भी इसकी अवस्था पहले दिन के समान ही है।
***
दोहा – 13
हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना,
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना।।
अर्थ : कबीर कहते हैं कि हिन्दू राम के भक्त हैं और तुर्क (मुस्लिम) को रहमान प्यारा है। इसी बात पर दोनों लड़-लड़ कर मौत के मुंह में जा पहुंचे, तब भी दोनों में से कोई सच को न जान पाया।
***
दोहा – 14
बन्दे तू कर बंदगी, तो पावै दीदार,
औसर मानुष जन्म का, बहुरि न बारम्बार ।
अर्थ – हे सेवक ! तू सद्गुरु की सेवा कर क्योंकि सेवा के बिना उसका स्वरूप – साक्षात्कार नहीं हो सकता है । तुझे इस मनुष्य जन्म का उत्तम अवसर बारम्बार न मिलेगा ।
***
दोहा – 15
जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ,
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।
अर्थ : जो प्रयत्न करते हैं, वे कुछ न कुछ वैसे ही पा ही लेते हैं जैसे कोई मेहनत करने वाला गोताखोर गहरे पानी में जाता है और कुछ ले कर आता है। लेकिन कुछ बेचारे लोग ऐसे भी होते हैं जो डूबने के भय से किनारे पर ही बैठे रह जाते हैं और कुछ नहीं पाते।
***
दोहा – 16
दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त,
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।
अर्थ : यह मनुष्य का स्वभाव है कि जब वह दूसरों के दोष देख कर हंसता है, तब उसे अपने दोष याद नहीं आते जिनका न आदि है न अंत।
***
दोहा – 17
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान,
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।
अर्थ : सज्जन की जाति न पूछ कर उसके ज्ञान को समझना चाहिए. तलवार का मूल्य होता है न कि उसकी मयान का – उसे ढकने वाले खोल का।
***
दोहा – 18
लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट।
पाछे पछतायेगा, जब प्राण जायेंगे छूट।।
अर्थ – बिना किसी कीमत के आपके पास राम के नाम तक पहुंच है। फिर क्यों आप जितना संभव हो, उतना नहीं पहुंच सकते। कही ऐसा न हो, आपके जीवन के आखिरी पल में आपको खेद हो।
***
दोहा – 19
कस्तूरी कुंडल बसे; मृग ढूँढत बन माहि।
ज्यो घट घट राम है; दुनिया देखे नाही।।
अर्थ – एक हिरण स्वयं में सुगंधित होता है, और इसे खोजने के लिए पूरे वन में चलता है। इसी प्रकार राम हर जगह है लेकिन दुनिया नहीं देखती है। उसे अपने अंतर्मन में ईश्वर को खोजना चाहिए और जब वह एक बार भीतर के ईश्वर को पा लेगा तो उसका जीवन आनन्द से भर उठेगा ।
***
दोहा – 20
जैसे तिल में तेल है, ज्यों चकमक में आग।
तेरा साईं तुझ में है, तू जाग सके तो जाग।।
अर्थ – जैसे तिल के बीज में तेल होता है और चकमक पत्थर में आग। ठीक उसी तरह ईश्वर बीज के समान आपके भीतर है और तूम प्रार्थना स्थलों पर ढूँढते हो |
***
दोहा – 21
चिंता ऐसी डाकिनी, काट कलेजा खाए।
वैद बेचारा क्या करे, कहा तक दवा लगाए।।
अर्थ – कबीर का यह दोहा प्रत्येक इंसान की हालत बताता है | कबीर कहते है “चिंता इतनी चोर है कि यह किसी के भी दिल को खा जाती है। कोई डॉक्टर भला क्या कर सकता है ? उसकी दवा कितनी दूर तक मदद कर पायेगी ??
***
दोहा – 22
निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय,
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।
अर्थ : जो हमारी निंदा करता है, उसे अपने अधिकाधिक पास ही रखना चाहिए। वह तो बिना साबुन और पानी के हमारी कमियां बता कर हमारे स्वभाव को साफ़ करता है।
***
दोहा – 23
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप,
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।
अर्थ : न तो अधिक बोलना अच्छा है, न ही जरूरत से ज्यादा चुप रहना ही ठीक है. जैसे बहुत अधिक वर्षा भी अच्छी नहीं और बहुत अधिक धूप भी अच्छी नहीं है।
***
दोहा – 24
बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि।
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।
अर्थ : यदि कोई सही तरीके से बोलना जानता है तो उसे पता है कि वाणी एक अमूल्य रत्न है। इसलिए वह ह्रदय के तराजू में तोलकर ही उसे मुंह से बाहर आने देता है।
***
दोहा – 25
संसारी से प्रीतड़ी , सरै न एकी काम,
दुविधा में दोनों गए , माया मिली न राम।
अर्थ – संसारी लोगों से प्रेम और मेल – जोल बढ़ाने से एक भी काम अच्छा नहीं होता, बल्कि दुविधा या भ्रम की स्थिति बन जाती है, जिसमें न तो भौतिक संपत्ति हासिल होती है, न अध्यात्मिक । दोनों ही हाथ खाली रह जाते है ।

दोहा – 26
सुख के संगी स्वारथी , दुःख में रहते दूर,
कहैं कबीर परमारथी , दुःख सुख सदा हजूर ।
अर्थ – स्वार्थी लोग मात्र सुख के साथी होते हैं । जब दुःख आता है तो भाग खड़े होने में क्षणिक विलम्ब नहीं करते हैं और जो सच्चे परमार्थी होते हैं वे दुःख हो या सुख सदा साथ होते हैं ।
***
दोहा – 27
भय से भक्ति करै सबै , भय से पूजा होय,
भय पारस है जीव को , निरभय होय न कोय ।
अर्थ – सांसारिक भय के कारण ही लोग भक्ति और पूजा करते है । इस प्रकार भय जीव के लिए पारस के समान है, जो इसे भक्तिमार्ग में लगाकर उसका कल्याण करता है । इसलिए सन्मार्ग पर चलने के लिए जरुरी है कि सभी भीरु हों ।
***
जरुर पढ़े : रहीम दास के दोहे हिंदी अर्थ सहित
दोहा – 28
यह बिरियाँ तो फिरि नहीं, मन में देखु विचार,
आया लाभहि कारनै, जनम जुआ मत हार ।
अर्थ – हे दास ! सुन, मनुष्य जीवन बार – बार नहीं मिलता, इसलिए सोच – विचार कर ले कि तू लाभ के लिए अर्थात मुक्ति के लिए आया है । इस अनमोल जीवन को तू सांसारिक जुए में मत हार ।
***
दोहा – 29
झूठा सब संसार है, कोउ न अपना मीत ।
राम नाम को जानि ले, चलै सो भौजल जीत ।।
अर्थ – हे मनुष्य ! ये संसार झूठा और असार है जहाँ कोई अपना मित्र और सम्बंधी नहीं है । इसलिए तू राम – नाम के सच्चाई को जान ले तो ही इस भवसागर से मुक्ति मिल जाएगी ।
***
दोहा – 30
बडा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नही फल लागे अति दूर ॥
अर्थ – सिर्फ बड़े होने से कुछ नहीं होता । बड़ा तो खजूर का पेड़ भी होता है लेकिन ना तो ये किसी यात्री को धूप के समय छाया दे सकता है, ना ही इसके फल कोई आसानी से तोड़ के अपनी भूख मिटा सकता है ।
***
दोहा – 31
कबीरा खड़ा बाज़ार में, सबकी मांगे खैर।
ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर ॥
अर्थ – विरोध, कटुता, तनाव और टकराव को भुलाकर सबके बारे में भला सोच । ना तू किसी से ज्यादा दोस्ती रख और ना ही किसी से दुश्मनी ।
***
दोहा – 32
कहे कबीर कैसे निबाहे , केर बेर को संग,
वह झूमत रस आपनी, उसके फाटत अंग।
अर्थ – जैसे केले और बेर का पेड़ साथ साथ नहीं लगा सकते क्योंकि हवा से बेर का पेड़ हिलेगा और उसके काँटों से केले के पत्ते कट जायेंगे उसी प्रकार भिन्न प्रकृति के लोग एक साथ नहीं रह सकते ।
***
दोहा – 33
सुख मे सुमिरन ना किया, दु:ख में करते याद,
कह कबीर ता दास की, तो कौन सुने फरियाद ।
अर्थ – हे दास ! जब तूने अपने अच्छे समय में भगवान का सुमिरन नहीं किया है और अब तू उसे बुरे समय में याद कर रहा हैं तो फिर कौन तेरा रोना सुनेगा ।
***
दोहा – 34
साई इतना दीजिए, जामे कुटुम्ब समाए,
मैं भी भूखा ना रहू, साधु भूखा ना जाए ।
अर्थ – कबीरदास भोगवाद के कट्टर विरोधी थे । वे अनावश्यक संग्रह के भी कटु आलोचक थे और केवल उतने ही उपभोग के पक्षधर थे जितने से जीवन – यापन हो सके इसलिए वे कह उठे थे भगवान, मुझे बहुत ज्यादा नहीं देते, लेकिन मेरे परिवार की देखभाल करने के लिए पर्याप्त है, और मेरे पास आने वाले लोग खाली पेट नहीं जाना चाहिए ।
***
दोहा – 35
रात गवाई सोए के, दिवस गवाया खाय,
हीरा जनम अनमोल था कोड़ी बदले जाए।
अर्थ – अपना पूरा जीवन केवल सोते और खाने में ही बर्बाद कर देने वाले हे मनुष्य तू याद रख कि भगवान ने यह अनमोल जन्म ऊंचाइयों को हासिल करने के लिए दिया है, ना कि इसे बेकार करने के लिए ।”
***
दोहा – 36
ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोय,
औरन को शीतल करै, आपहु शीतल होय।
अर्थ – मान और अहंकार का त्याग करके ऐसी वाणी में बात करें कि औरों के साथ – साथ स्वयं को भी खुशी मिले | कबीर कहते है केवल मीठी वाणी से ही दिल जीते जाते है ।
***
दोहा – 37
गुरु गोविंद दोनो खड़े, काके लागू पाए,
बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद डियो बताए।
अर्थ – गुरु और गोविंद (भगवान) दोनो एक साथ खडे हो तो किसे प्रणाम करणा चाहिये – गुरु को अथवा गोविंद को । ऐसी स्थिती में गुरु के श्रीचरणों मे शीश झुकाना उत्तम है जिनके कृपा रुपी प्रसाद से गोविंद का दर्शन प्राप्त करने का सौभाग्य हुआ।
***
दोहा – 38
माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय,
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूगी तोय।
अर्थ – मिटटी कुम्हार से कहती है कि आज तो तू मुझे पैरों के नीचे रोंद रहा है पर एक दिन ऐसा आएगा जब तू मेरे नीचे होगा और मैं तेरे ऊपर होउंगी अर्थात मृत्यु के बाद सब मिटटी के नीचे ही होते हैं ।

दोहा – 39
बार – बार तोसों कहा, रे मनुवा नीच,
बनजारे का बैल ज्यों, पैडा माही मीच।
अर्थ – हे नीच मनुष्य ! सुन, तुझसे मैं बारम्बार कहता रहा हूँ । जैसे एक व्यापारी का बैल बीच मार्ग में प्राण गवा देता है वैसे तू भी अचानक एक दिन मर जाएगा ।
***
दोहा – 40
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।
अर्थ : कोई व्यक्ति लम्बे समय तक हाथ में लेकर मोती की माला तो घुमाता है, पर उसके मन का भाव नहीं बदलता, उसके मन की हलचल शांत नहीं होती. कबीर की ऐसे व्यक्ति को सलाह है कि हाथ की इस माला को फेरना छोड़ कर मन के मोतियों को बदलो या फेरो।
***
दोहा – 41
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय,
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।
अर्थ : मन में धीरज रखने से सब कुछ होता है. अगर कोई माली किसी पेड़ को सौ घड़े पानी से सींचने लगे तब भी फल तो ऋतु आने पर ही लगेगा !
***
दोहा – 42
तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय,
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।
अर्थ : कबीर कहते हैं कि एक छोटे से तिनके की भी कभी निंदा न करो जो तुम्हारे पांवों के नीचे दब जाता है. यदि कभी वह तिनका उड़कर आँख में आ गिरे तो कितनी गहरी पीड़ा होती है !
***
दोहा – 43
पानी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जात।
एक दिना छिप जाएगा,ज्यों तारा परभात।
अर्थ : कबीर का कथन है कि जैसे पानी के बुलबुले, इसी प्रकार मनुष्य का शरीर क्षणभंगुर है। जैसे प्रभात होते ही तारे छिप जाते हैं, वैसे ही ये देह भी एक दिन नष्ट हो जाएगी।
***
दोहा – 44
साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय,
सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।
अर्थ : इस संसार में ऐसे सज्जनों की जरूरत है जैसे अनाज साफ़ करने वाला सूप होता है. जो सार्थक को बचा लेंगे और निरर्थक को उड़ा देंगे।
***
दोहा – 45
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय,
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।
अर्थ : जब मैं इस संसार में बुराई खोजने चला तो मुझे कोई बुरा न मिला. जब मैंने अपने मन में झाँक कर देखा तो पाया कि मुझसे बुरा कोई नहीं है।
***
दोहा – 46
पाहन केरी पूतरी, करि पूजै संसार,
याहि भरोसें मत रहो, बूडो काली धार।
अर्थ – पत्थर की मूर्ति बनाकर, संसार के लोग पूजते हैं । परन्तु इसके भरोसे मत रहो, अन्यथा कल्पना के अंधकार कुँए में, अपने को डूबे – डुबाए समझों ।
***
दोहा – 47
पाहन पूजै हरि मिलै, तो मैं पूजूँ पहार,
ताते तो चक्की भली, पीसि खाय संसार।
अर्थ – यदि पत्थर के पूजने से ज्ञान या कल्याण की प्राप्ति हो, तो मैं पर्वत को पूजने पर डट जाऊं । मूर्ति पूजने से तो चक्की पूजना अच्छा है, जिससे आटा पीसकर संसार खाता है ।
***
दोहा – 48
न्हाए धोए क्या भया, जो मन मैला न जाय,
मीन सदा जल में रहै, धोए बास न जाय।
अर्थ – पवित्र नदियों में शारीरिक मैल धो लेने से कल्याण नहीं होता। इसके लिए भक्ति – साधना से मल का मैल साफ करना पड़ता है। जैसे मछली हमेशा जल में रहती है, लेकिन इतना धुलकर भी उसकी दुर्गंध समाप्त नहीं होती।
***
दोहा – 49
मन मक्का दिल द्वारिका, काया काशी जान,
दश द्वारे का देहरा, तामें ज्योति पिछान ।
हिंदी अर्थ – कबीर कहते है पवित्र मन ही मक्का और दिल ही द्वारिका है और काया को ही काशी जानो । दस – द्वारों के शरीर – मंदिर में ज्ञान प्रकाशमय स्व – स्वरूप चेतन को ही सत्य देवता समझों ।
***
दोहा – 50
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।
अर्थ – हाथ में मला लेकर फेरते हुए युग व्यतीत हो गया फिर भी मन की चंचलता और संसारिक विषय रुपी मोह भंग नहीं हुआ । कबीर दास जी संसारिक प्राणियों को चेतावनी देते हुए कहते है- हे अज्ञानियों हाथ में जो माला लेकर फिरा रहे हो, उसे फेंक कर सर्वप्रथम अपने हृदय की शुध्द करो और एकाग्र चित्त होकार प्रभु का ध्यान करो ।
***
दोहा – 51
दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त,
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।
अर्थ – यह मनुष्य का स्वभाव है कि जब वह दूसरों के दोष देख कर हंसता है, तब उसे अपने दोष याद नहीं आते जिनका न आदि है न अंत।
***
दोहा – 52
दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार,
तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।
अर्थ – संत कबीर दास जी कहते हैं कि मनुष्य के रूप में मिला हुआ यह जन्म एक लम्बे अवसर के बाद मिलता है अतः इसे व्यर्थ नहीं गवाना चाहिए अपितु इस सुअवसर को जीव हित के लिए उपयोग करना चाहिए । यह अवसर हाथ से निकलने के पश्चात पुनः नहीं मिल सकता जिस प्रकार वृक्ष से झड़े हुए पत्ते उस पर पुनः नहीं जोड़े जा सकते।
***
दोहा – 53
कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर,
ना काहू से दोस्ती, न काहू से बैर।
अर्थ – इस संसार में आकर कबीर अपने जीवन में बस यही चाहते हैं कि सबका भला हो और संसार में यदि किसी से दोस्ती नहीं तो दुश्मनी भी न हो !
***
दोहा – 54
कहत सुनत सब दिन गए, उरझि न सुरझ्या मन।
कही कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन।
अर्थ – कहते सुनते सब दिन निकल गए, पर यह मन उलझ कर न सुलझ पाया। कबीर कहते हैं कि अब भी यह मन होश में नहीं आता। आज भी इसकी अवस्था पहले दिन के समान ही है।
***
दोहा –55
कबीर लहरि समंद की, मोती बिखरे आई।
बगुला भेद न जानई, हंसा चुनी-चुनी खाई।
अर्थ – कबीर कहते हैं कि समुद्र की लहर में मोती आकर बिखर गए। बगुला उनका भेद नहीं जानता, परन्तु हंस उन्हें चुन-चुन कर खा रहा है। इसका अर्थ यह है कि किसी भी वस्तु का महत्व जानकार ही जानता है।
***
दोहा – 56
जब गुण को गाहक मिले, तब गुण लाख बिकाई।
जब गुण को गाहक नहीं, तब कौड़ी बदले जाई।
अर्थ – कबीर कहते हैं कि जब गुण को परखने वाला गाहक मिल जाता है तो गुण की कीमत होती है। पर जब ऐसा गाहक नहीं मिलता, तब गुण कौड़ी के भाव चला जाता है।
***
दोहा – 57
कबीर कहा गरबियो, काल गहे कर केस।
ना जाने कहाँ मारिसी, कै घर कै परदेस।
अर्थ – कबीर कहते हैं कि हे मानव ! तू क्या गर्व करता है? काल अपने हाथों में तेरे केश पकड़े हुए है। मालूम नहीं, वह घर या परदेश में, कहाँ पर तुझे मार डाले।
***
दोहा – 58
हाड़ जलै ज्यूं लाकड़ी, केस जलै ज्यूं घास।
सब तन जलता देखि करि, भया कबीर उदास।
अर्थ – यह नश्वर मानव देह अंत समय में लकड़ी की तरह जलती है और केश घास की तरह जल उठते हैं। सम्पूर्ण शरीर को इस तरह जलता देख, इस अंत पर कबीर का मन उदासी से भर जाता है।
***
दोहा – 59
जो उग्या सो अन्तबै, फूल्या सो कुमलाहीं।
जो चिनिया सो ढही पड़े, जो आया सो जाहीं।
अर्थ – इस संसार का नियम यही है कि जो उदय हुआ है,वह अस्त होगा। जो विकसित हुआ है वह मुरझा जाएगा। जो चिना गया है वह गिर पड़ेगा और जो आया है वह जाएगा।
***
दोहा – 60
झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद।
खलक चबैना काल का, कुछ मुंह में कुछ गोद।
अर्थ – कबीर कहते हैं कि अरे जीव ! तू झूठे सुख को सुख कहता है और मन में प्रसन्न होता है? देख यह सारा संसार मृत्यु के लिए उस भोजन के समान है, जो कुछ तो उसके मुंह में है और कुछ गोद में खाने के लिए रखा है।
***
दोहा – 61
ऐसा कोई ना मिले, हमको दे उपदेस।
भौ सागर में डूबता, कर गहि काढै केस।
अर्थ – कबीर संसारी जनों के लिए दुखित होते हुए कहते हैं कि इन्हें कोई ऐसा पथप्रदर्शक न मिला जो उपदेश देता और संसार सागर में डूबते हुए इन प्राणियों को अपने हाथों से केश पकड़ कर निकाल लेता।
***
दोहा – 62
संत ना छाडै संतई, जो कोटिक मिले असंत
चन्दन भुवंगा बैठिया, तऊ सीतलता न तजंत।
अर्थ – सज्जन को चाहे करोड़ों दुष्ट पुरुष मिलें फिर भी वह अपने भले स्वभाव को नहीं छोड़ता। चन्दन के पेड़ से सांप लिपटे रहते हैं, पर वह अपनी शीतलता नहीं छोड़ता।
***
दोहा – 63
कबीर तन पंछी भया, जहां मन तहां उडी जाइ।
जो जैसी संगती कर, सो तैसा ही फल पाइ।
अर्थ – कबीर कहते हैं कि संसारी व्यक्ति का शरीर पक्षी बन गया है और जहां उसका मन होता है, शरीर उड़कर वहीं पहुँच जाता है। सच है कि जो जैसा साथ करता है, वह वैसा ही फल पाता है।
***
दोहा – 64
तन को जोगी सब करें, मन को बिरला कोई।
सब सिद्धि सहजे पाइए, जे मन जोगी होइ।
अर्थ – शरीर में भगवे वस्त्र धारण करना सरल है, पर मन को योगी बनाना बिरले ही व्यक्तियों का काम है य़दि मन योगी हो जाए तो सारी सिद्धियाँ सहज ही प्राप्त हो जाती हैं।
***
दोहा – 65
तू तू करता तू भया , मुझमें रही न हूंय ।
बारी तेरे नाम पर , जीत देखूं तित तुंय ।।
अर्थ – हे परमात्मा ! तुम्हारे नाम का सुमिरन करते करते मै तुम जैसा हो गया हु । अब मेरे मन में सांसरिक वासना , ममता एवम तृष्णा नहीं है । मै तेरे अविनाशी नाम ज्ञान के ऊपर न्यौछावर हूं । मेरी दृष्टी जिधर भी घुमती है उधर तुम्हारा ही स्वरुप दिखायी देता है ।
***
दोहा – 66
माया मुई न मन मुआ, मरी मरी गया सरीर।
आसा त्रिसना न मुई, यों कही गए कबीर।
अर्थ – कबीर कहते हैं कि संसार में रहते हुए न माया मरती है न मन। शरीर न जाने कितनी बार मर चुका पर मनुष्य की आशा और तृष्णा कभी नहीं मरती, कबीर ऐसा कई बार कह चुके हैं।
***
दोहा – 67
मन हीं मनोरथ छांड़ी दे, तेरा किया न होई।
पानी में घिव निकसे, तो रूखा खाए न कोई।
अर्थ – मनुष्य मात्र को समझाते हुए कबीर कहते हैं कि मन की इच्छाएं छोड़ दो , उन्हें तुम अपने बूते पर पूर्ण नहीं कर सकते। यदि पानी से घी निकल आए, तो रूखी रोटी कोई न खाएगा।
***
दोहा – 68
जब मैं था तब हरी नहीं, अब हरी है मैं नाही ।
सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माही ।।
अर्थ – जब मैं अपने अहंकार में डूबा था – तब प्रभु को न देख पाता था – लेकिन जब गुरु ने ज्ञान का दीपक मेरे भीतर प्रकाशित किया तब अज्ञान का सब अन्धकार मिट गया – ज्ञान की ज्योति से अहंकार जाता रहा और ज्ञान के आलोक में प्रभु को पाया।
***
दोहा – 70
कबीर सुता क्या करे, जागी न जपे मुरारी।
एक दिन तू भी सोवेगा, लम्बे पाँव पसारी ।।
अर्थ – कबीर कहते हैं – अज्ञान की नींद में सोए क्यों रहते हो? ज्ञान की जागृति को हासिल कर प्रभु का नाम लो।सजग होकर प्रभु का ध्यान करो।वह दिन दूर नहीं जब तुम्हें गहन निद्रा में सो ही जाना है – जब तक जाग सकते हो जागते क्यों नहीं? प्रभु का नाम स्मरण क्यों नहीं करते ?
***
दोहा – 71
आछे / पाछे दिन पाछे गए हरी से किया न हेत।
अब पछताए होत क्या, चिडिया चुग गई खेत ।।
अर्थ – देखते ही देखते सब भले दिन – अच्छा समय बीतता चला गया – तुमने प्रभु से लौ नहीं लगाई – प्यार नहीं किया समय बीत जाने पर पछताने से क्या मिलेगा? पहले जागरूक न थे – ठीक उसी तरह जैसे कोई किसान अपने खेत की रखवाली ही न करे और देखते ही देखते पंछी उसकी फसल बर्बाद कर जाएं।
***
दोहा – 72
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।
हीरा जन्म अमोल सा, कोड़ी बदले जाय ॥
अर्थ – रात नींद में नष्ट कर दी – सोते रहे – दिन में भोजन से फुर्सत नहीं मिली यह मनुष्य जन्म हीरे के सामान बहुमूल्य था जिसे तुमने व्यर्थ कर दिया – कुछ सार्थक किया नहीं तो जीवन का क्या मूल्य बचा ? एक कौड़ी –
***
दोहा – 73
हरिया जांणे रूखड़ा, उस पाणी का नेह।
सूका काठ न जानई, कबहूँ बरसा मेंह॥
अर्थ – पानी के स्नेह को हरा वृक्ष ही जानता है.सूखा काठ – लकड़ी क्या जाने कि कब पानी बरसा? अर्थात सहृदय ही प्रेम भाव को समझता है. निर्मम मन इस भावना को क्या जाने ?
***
दोहा – 74
झिरमिर- झिरमिर बरसिया, पाहन ऊपर मेंह।
माटी गलि सैजल भई, पांहन बोही तेह॥
अर्थ – बादल पत्थर के ऊपर झिरमिर करके बरसने लगे. इससे मिट्टी तो भीग कर सजल हो गई किन्तु पत्थर वैसा का वैसा बना रहा.
***
दोहा – 75
कहत सुनत सब दिन गए, उरझी न सुरझ्या मन।
कहि कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन॥
अर्थ – कहते सुनते सब दिन बीत गए, पर यह मन उलझ कर न सुलझ पाया ! कबीर कहते हैं कि यह मन अभी भी होश में नहीं आता. आज भी इसकी अवस्था पहले दिन के ही समान है.
***
दोहा – 76
कबीर थोड़ा जीवना, मांड़े बहुत मंड़ाण।
कबीर थोड़ा जीवना, मांड़े बहुत मंड़ाण॥
अर्थ – बादल पत्थर के ऊपर झिरमिर करके बरसने लगे. इससे मिट्टी तो भीग कर सजल हो गई किन्तु पत्थर वैसा का वैसा बना रहा.
***
दोहा – 77
झिरमिर- झिरमिर बरसिया, पाहन ऊपर मेंह।
माटी गलि सैजल भई, पांहन बोही तेह॥
अर्थ – थोड़ा सा जीवन है, उसके लिए मनुष्य अनेक प्रकार के प्रबंध करता है. चाहे राजा हो या निर्धन चाहे बादशाह – सब खड़े खड़े ही नष्ट हो गए.
***
दोहा – 78
इक दिन ऐसा होइगा, सब सूं पड़े बिछोह।
राजा राणा छत्रपति, सावधान किन होय॥
अर्थ – एक दिन ऐसा जरूर आएगा जब सबसे बिछुड़ना पडेगा. हे राजाओं ! हे छत्रपतियों ! तुम अभी से सावधान क्यों नहीं हो जाते !
***
दोहा – 79
कबीर प्रेम न चक्खिया,चक्खि न लिया साव।
सूने घर का पाहुना, ज्यूं आया त्यूं जाव॥
अर्थ – कबीर कहते हैं कि जिस व्यक्ति ने प्रेम को चखा नहीं, और चख कर स्वाद नहीं लिया, वह उसअतिथि के समान है जो सूने, निर्जन घर में जैसा आता है, वैसा ही चला भी जाता है, कुछ प्राप्त नहीं कर पाता.
***
दोहा – 80
यह तन काचा कुम्भ है,लिया फिरे था साथ।
ढबका लागा फूटिगा, कछू न आया हाथ॥
अर्थ – यह शरीर कच्चा घड़ा है जिसे तू साथ लिए घूमता फिरता था.जरा-सी चोट लगते ही यह फूट गया. कुछ भी हाथ नहीं आया.
***
दोहा – 81
कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरसा आई ।
अंतरि भीगी आतमा, हरी भई बनराई ॥
अर्थ – कबीर कहते हैं – प्रेम का बादल मेरे ऊपर आकर बरस पडा – जिससे अंतरात्मा तक भीग गई, आस पास पूरा परिवेश हरा-भरा हो गया – खुश हाल हो गया – यह प्रेम का अपूर्व प्रभाव है ! हम इसी प्रेम में क्यों नहीं जीते !
***
दोहा – 82
जिहि घट प्रेम न प्रीति रस, पुनि रसना नहीं नाम।
ते नर या संसार में , उपजी भए बेकाम ॥
अर्थ – जिनके ह्रदय में न तो प्रीति है और न प्रेम का स्वाद, जिनकी जिह्वा पर राम का नाम नहीं रहता – वे मनुष्य इस संसार में उत्पन्न हो कर भी व्यर्थ हैं. प्रेम जीवन की सार्थकता है. प्रेम रस में डूबे रहना जीवन का सार है.
***
दोहा – 83
लंबा मारग दूरि घर, बिकट पंथ बहु मार।
कहौ संतों क्यूं पाइए, दुर्लभ हरि दीदार॥
अर्थ – घर दूर है मार्ग लंबा है रास्ता भयंकर है और उसमें अनेक पातक चोर ठग हैं. हे सज्जनों ! कहो , भगवान् का दुर्लभ दर्शन कैसे प्राप्त हो?संसार में जीवन कठिन है – अनेक बाधाएं हैं विपत्तियां हैं – उनमें पड़कर हम भरमाए रहते हैं – बहुत से आकर्षण हमें अपनी ओर खींचते रहते हैं – हम अपना लक्ष्य भूलते रहते हैं – अपनी पूंजी गंवाते रहते हैं
***
दोहा – 84
कबीर रेख सिन्दूर की काजल दिया न जाई।
नैनूं रमैया रमि रहा दूजा कहाँ समाई ॥
अर्थ – कबीर कहते हैं कि जहां सिन्दूर की रेखा है – वहां काजल नहीं दिया जा सकता. जब नेत्रों में राम विराज रहे हैं तो वहां कोई अन्य कैसे निवास कर सकता है ?
***
दोहा – 85
कबीर सीप समंद की, रटे पियास पियास ।
समुदहि तिनका करि गिने, स्वाति बूँद की आस ॥
अर्थ – कबीर कहते हैं कि समुद्र की सीपी प्यास प्यास रटती रहती है. स्वाति नक्षत्र की बूँद की आशा लिए हुए समुद्र की अपार जलराशि को तिनके के बराबर समझती है. हमारे मन में जो पाने की ललक है जिसे पाने की लगन है, उसके बिना सब निस्सार है.
***
दोहा – 86
जांमण मरण बिचारि करि कूड़े काम निबारि ।
जिनि पंथूं तुझ चालणा सोई पंथ संवारि ॥
अर्थ – जन्म और मरण का विचार करके , बुरे कर्मों को छोड़ दे. जिस मार्ग पर तुझे चलना है उसी मार्ग का स्मरण कर – उसे ही याद रख – उसे ही संवार सुन्दर बना –
***
दोहा – 87
माया मुई न मन मुवा, मरि मरि गया सरीर ।
आसा त्रिष्णा णा मुई यों कहि गया कबीर ॥
अर्थ – न माया मरती है न मन शरीर न जाने कितनी बार मर चुका. आशा, तृष्णा कभी नहीं मरती – ऐसा कबीर कई बार कह चुके हैं.
***
दोहा – 88
कबीर सो धन संचिए जो आगे कूं होइ।
सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्या कोइ ॥
अर्थ – कबीर कहते हैं कि उस धन को इकट्ठा करो जो भविष्य में काम दे. सर पर धन की गठरी बांधकर ले जाते तो किसी को नहीं देखा.
***
दोहा – 89
झूठे को झूठा मिले, दूंणा बंधे सनेह
झूठे को साँचा मिले तब ही टूटे नेह ॥
अर्थ – जब झूठे आदमी को दूसरा झूठा आदमी मिलता है तो दूना प्रेम बढ़ता है. पर जब झूठे को एक सच्चा आदमी मिलता है तभी प्रेम टूट जाता है.
***
दोहा – 90
करता केरे गुन बहुत औगुन कोई नाहिं।
जे दिल खोजों आपना, सब औगुन मुझ माहिं ॥
अर्थ – प्रभु में गुण बहुत हैं – अवगुण कोई नहीं है.जब हम अपने ह्रदय की खोज करते हैं तब समस्त अवगुण अपने ही भीतर पाते हैं.
***
दोहा – 91
बुरा जो देखन मैं चला बुरा न मिलिया कोय ।
जो घर देखा आपना मुझसे बुरा णा कोय॥
अर्थ – मैं इस संसार में बुरे व्यक्ति की खोज करने चला था लेकिन जब अपने घर – अपने मन में झाँक कर देखा तो खुद से बुरा कोई न पाया अर्थात हम दूसरे की बुराई पर नजर रखते हैं पर अपने आप को नहीं निहारते !
***
दोहा – 92
कबीर चन्दन के निडै नींव भी चन्दन होइ।
बूडा बंस बड़ाइता यों जिनी बूड़े कोइ ॥
अर्थ – कबीर कहते हैं कि यदि चंदन के वृक्ष के पास नीम का वृक्ष हो तो वह भी कुछ सुवास ले लेता है – चंदन का कुछ प्रभाव पा लेता है . लेकिन बांस अपनी लम्बाई – बडेपन – बड़प्पन के कारण डूब जाता है. इस तरह तो किसी को भी नहीं डूबना चाहिए. संगति का अच्छा प्रभाव ग्रहण करना चाहिए – आपने गर्व में ही न रहना चाहिए .
***
दोहा – 93
क्काज्ल केरी कोठारी, मसि के कर्म कपाट।
पांहनि बोई पृथमीं,पंडित पाड़ी बात॥
अर्थ – यह संसार काजल की कोठरी है, इसके कर्म रूपी कपाट कालिमा के ही बने हुए हैं. पंडितों ने पृथ्वीपर पत्थर की मूर्तियाँ स्थापित करके मार्ग का निर्माण किया है.
***
दोहा – 94
मूरख संग न कीजिए ,लोहा जल न तिराई।
कदली सीप भावनग मुख, एक बूँद तिहूँ भाई ॥
अर्थ – मूर्ख का साथ मत करो.मूर्ख लोहे के सामान है जो जल में तैर नहीं पाता डूब जाता है . संगति का प्रभाव इतना पड़ता है कि आकाश से एक बूँद केले के पत्ते पर गिर कर कपूर, सीप के अन्दर गिर कर मोती और सांप के मुख में पड़कर विष बन जाती है.
***
दोहा – 95
जानि बूझि साँचहि तजै, करै झूठ सूं नेह ।
ताकी संगति रामजी, सुपिनै ही जिनि देहु ॥
अर्थ – जो जानबूझ कर सत्य का साथ छोड़ देते हैं झूठ से प्रेम करते हैं हे भगवान् ऐसे लोगों की संगति हमें स्वप्न में भी न देना.
***
दोहा – 96
मन मरया ममता मुई, जहं गई सब छूटी।
जोगी था सो रमि गया, आसणि रही बिभूति ॥
अर्थ – मन को मार डाला ममता भी समाप्त हो गई अहंकार सब नष्ट हो गया जो योगी था वह तो यहाँ से चला गया अब आसन पर उसकी भस्म – विभूति पड़ी रह गई अर्थात संसार में केवल उसका यश रह गया
***
दोहा – 97
तरवर तास बिलम्बिए, बारह मांस फलंत ।
सीतल छाया गहर फल, पंछी केलि करंत ॥
अर्थ – कबीर कहते हैं कि ऐसे वृक्ष के नीचे विश्राम करो, जो बारहों महीने फल देता हो .जिसकी छाया शीतल हो , फल सघन हों और जहां पक्षी क्रीडा करते हों !
***
दोहा – 98
काची काया मन अथिर थिर थिर काम करंत ।
ज्यूं ज्यूं नर निधड़क फिरै त्यूं त्यूं काल हसन्त ॥
अर्थ – शरीर कच्चा अर्थात नश्वर है मन चंचल है परन्तु तुम इन्हें स्थिर मान कर काम करते हो – इन्हें अनश्वर मानते हो मनुष्य जितना इस संसार में रमकर निडर घूमता है – मगन रहता है – उतना ही काल (अर्थात मृत्यु )उस पर हँसता है ! मृत्यु पास है यह जानकर भी इंसान अनजान बना रहता है ! कितनी दुखभरी बात है.
***
दोहा – 99
जल में कुम्भ कुम्भ में जल है बाहर भीतर पानी ।
फूटा कुम्भ जल जलहि समाना यह तथ कह्यौ गयानी ॥
अर्थ – जब पानी भरने जाएं तो घडा जल में रहता है और भरने पर जल घड़े के अन्दर आ जाता है इस तरह देखें तो – बाहर और भीतर पानी ही रहता है – पानी की ही सत्ता है. जब घडा फूट जाए तो उसका जल जल में ही मिल जाता है – अलगाव नहीं रहता – ज्ञानी जन इस तथ्य को कह गए हैं ! आत्मा-परमात्मा दो नहीं एक हैं – आत्मा परमात्मा में और परमात्मा आत्मा में विराजमान है. अंतत: परमात्मा की ही सत्ता है – जब देह विलीन होती है – वह परमात्मा का ही अंश हो जाती है – उसी में समा जाती है. एकाकार हो जाती है.
***
दोहा – 100
तू कहता कागद की लेखी मैं कहता आँखिन की देखी ।
मैं कहता सुरझावन हारि, तू राख्यौ उरझाई रे ॥
अर्थ – तुम कागज़ पर लिखी बात को सत्य कहते हो – तुम्हारे लिए वह सत्य है जो कागज़ पर लिखा है. किन्तु मैं आंखों देखा सच ही कहता और लिखता हूँ. कबीर पढे-लिखे नहीं थे पर उनकी बातों में सचाई थी. मैं सरलता से हर बात को सुलझाना चाहता हूँ – तुम उसे उलझा कर क्यों रख देते हो? जितने सरल बनोगे – उलझन से उतने ही दूर हो पाओगे.
***
दोहा – 101
मन के हारे हार है मन के जीते जीत ।
कहे कबीर हरि पाइए मन ही की परतीत ॥
अर्थ – जीवन में जय पराजय केवल मन की भावनाएं हैं.यदि मनुष्य मन में हार गया – निराश हो गया तो पराजय है और यदि उसने मन को जीत लिया तो वह विजेता है. ईश्वर को भी मन के विश्वास से ही पा सकते हैं – यदि प्राप्ति का भरोसा ही नहीं तो कैसे पाएंगे?
***
दोहा – 102
पढ़ी पढ़ी के पत्थर भया लिख लिख भया जू ईंट ।
कहें कबीरा प्रेम की लगी न एको छींट॥
अर्थ – कबीर जी ज्ञान का सन्देश देते हुए कहते हैं कि बहुत अधिक पढकर लोक पत्थर के समान और लिख लिखकर ईंट के समान अति कठोर हो जाते हैं । उनके हृदय में प्रेम की छींट भी नहीं लगी अर्थात् ‘प्रेम’ शब्द का अभिप्राय ही न जान सके जिस कारण वे सच्चे मनुष्य न बन सके ।
***
दोहा – 103
जाति न पूछो साधू की पूछ लीजिए ज्ञान ।
मोल करो तरवार को पडा रहन दो म्यान ॥
अर्थ – सच्चा साधु सब प्रकार के भेदभावों से ऊपर उठ जाता है. उससे यह न पूछो की वह किस जाति का है साधु कितना ज्ञानी है यह जानना महत्वपूर्ण है. साधु की जाति म्यान के समान है और उसका ज्ञान तलवार की धार के समान है. तलवार की धार ही उसका मूल्य है – उसकी म्यान तलवार के मूल्य को नहीं बढाती.
***
दोहा – 104
दीपक सुन्दर देखि करि , जरि जरि मरे पतंग ।
बढ़ी लहर जो विषय की, जरत न मारै अंग ।।
अर्थ – प्रज्जवलित दीपक की सुन्दर लौ को देख कर कीट पतंग मोह पाश में बंधकर उसके ऊपर मंडराते है ओर जल जलकर मरते है । ठीक इस प्रकार विषय वासना के मोह में बंधकर कामी पुरुष अपने जीवन के वास्तविक लक्ष्य से भटक कर दारुण दुःख भोगते है ।
***
दोहा – 105
प्रेम न बाडी उपजे प्रेम न हाट बिकाई ।
राजा परजा जेहि रुचे सीस देहि ले जाई ॥
***
अर्थ – प्रेम खेत में नहीं उपजता प्रेम बाज़ार में नहीं बिकता चाहे कोई राजा हो या साधारण प्रजा – यदि प्यार पाना चाहते हैं तो वह आत्म बलिदान से ही मिलेगा. त्याग और बलिदान के बिना प्रेम को नहीं पाया जा सकता. प्रेम गहन- सघन भावना है – खरीदी बेचे जाने वाली वस्तु नहीं !
***
दोहा – 106
माया दीपक नर पतंग , भ्रमि भ्रमि माहि परन्त ।
कोई एक गुरु ज्ञानते , उबरे साधु सन्त ।।
अर्थ – माया , दीपक की लौ के समान है और मनुष्य उन पतंगों के समान है जो माया के वशीभूत होकर उन पर मंडराते है । इस प्रकार के भ्रम से, अज्ञान रूपी अन्धकार से कोई विरला ही उबरता है जिसे गुरु का ज्ञान प्राप्त होने से उद्धार हो जाता है ।
***
दोहा – 107
हाड जले लकड़ी जले जले जलावन हार ।
कौतिकहारा भी जले कासों करूं पुकार ॥
अर्थ – दाह क्रिया में हड्डियां जलती हैं उन्हें जलाने वाली लकड़ी जलती है उनमें आग लगाने वाला भी एक दिन जल जाता है. समय आने पर उस दृश्य को देखने वाला दर्शक भी जल जाता है. जब सब का अंत यही हो तो पनी पुकार किसको दू? किससे गुहार करूं – विनती या कोई आग्रह करूं? सभी तो एक नियति से बंधे हैं ! सभी का अंत एक है !
***
दोहा – 108
कामी का गुरु कामिनी , लोभी का गुरु दाम ।
कबीर का गुरु सन्त है, संतन का गुरु राम ।।
अर्थ – कुमार्ग एवम् सुमार्ग के विषय में ज्ञान की शिक्षा प्रदान करते हुए महासन्त कबीर दास जी कहते है कि कामी व्यक्ति कुमार्गी होता है वह सदैव विषय वासना के सम्पत्ति बटोर ने में ही ध्यान लगाये रहता है । उसका गुरु, मित्र, भाई – बन्धु सब कुछ धन ही होता है और जो विषयों से दूर रहता है उसे सन्तो की कृपा प्राप्त होती है अर्थात वह स्वयं सन्तमय होता है और ऐसे प्राणियों के अन्तर में अविनाशी भगवान का निवास होता है । दूसरे अर्थो में भक्त और भगवान में कोई भेद नहीं ।
***
दोहा – 109
मन मैला तन ऊजला बगुला कपटी अंग ।
तासों तो कौआ भला तन मन एकही रंग ॥
अर्थ – बगुले का शरीर तो उज्जवल है पर मन काला – कपट से भरा है – उससे तो कौआ भला है जिसका तन मन एक जैसा है और वह किसी को छलता भी नहीं है.
***
दोहा – 110
कबीर हमारा कोई नहीं हम काहू के नाहिं ।
पारै पहुंचे नाव ज्यौं मिलिके बिछुरी जाहिं ॥
अर्थ – इस जगत में न कोई हमारा अपना है और न ही हम किसी के ! जैसे नांव के नदी पार पहुँचने पर उसमें मिलकर बैठे हुए सब यात्री बिछुड़ जाते हैं वैसे ही हम सब मिलकर बिछुड़ने वाले हैं. सब सांसारिक सम्बन्ध यहीं छूट जाने वाले हैं
***
दोहा – 111
देह धरे का दंड है सब काहू को होय ।
ज्ञानी भुगते ज्ञान से अज्ञानी भुगते रोय॥
अर्थ – देह धारण करने का दंड – भोग या प्रारब्ध निश्चित है जो सब को भुगतना होता है. अंतर इतना ही है कि ज्ञानी या समझदार व्यक्ति इस भोग को या दुःख को समझदारी से भोगता है निभाता है संतुष्ट रहता है जबकि अज्ञानी रोते हुए – दुखी मन से सब कुछ झेलता है !
***
दोहा – 112
बहता पानी निरमला, बन्धा गन्दा होय ।
साधु जन रमता भला, दाग न लागै कोय ।
अर्थ – निरन्तर भटा हुआ जल स्वच्छ होय है किन्तु एक स्थान पर रूपा हुआ जल गन्दा होता है । ठीक इसी प्रकार सन्तों की ज्ञान वाणी जितनी तीव्रता से प्रवाहित होती है उतना ही जन कल्याण होता है और विचरण करते हुए उन्हें मोह रुपी दोष कलुषित ।
***
दोहा – 113
काम क्रोध तृष्णा तजै, तजै मान अपमान ।
सद्गुरू दाया जाहि पर, जम सिर मरदेमान।।
अर्थ – काम, क्रोध, मद, लोभ, आदि का मन से त्याग करके जो प्राणी सद्गुरू के बताये हुए मार्ग पर चलता है । मान अपमान से रहित होकर गुरु की सेवा करता है और उनके बच्चो का पालन करता है, ऐसे प्राणी मृत्यु तक को जीतने मे समर्थ हो जाते है ।
***
दोहा – 114
माया मरी न मन मरा, मर मर गये शरीर ।
आशा तृष्णा न मरी, कह गये दास कबीर ।।
अर्थ – कबीर दास जी काहते हैं कि शरीर, मन, माया सब नष्ट हो जाता है परन्तु मन में उठने वाली आशा और तृष्णा कभी नष्ट नहीं होती । इसलिए संसार कि मोह तृष्णा आदि में नहीं फॅसना चाहिए ।
***
दोहा – 115
यह तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहिं ।
सीस उतारे भुइॅ धरे, तब घर पैठे माहिं ।।
यह मौसी का घर नहीं है कि जिसमें प्रवेश करने पर पूर्ण आदर और सन्मान प्राप्त होगा । यह प्रेमरूपी घर है । एस प्रेम रुपी घर में प्रवेश करने के लिए कठीन साधना की आवश्यकता होती है । अपना मस्तक काट कर धरती पर चढाना होती है तब भगवान अपने घर में प्रवेश करने कि अनुमति देते हैं अर्थात् तन मन, सब कुछ प्रभु के चरणों में अर्पित करो ।
***
Friends जरूर पढ़े कबीर का विस्तृत जीवन परिचय और संदेश
दोस्तों ! कबीर के बारे में यह दृढ़तापूर्वक कहा जा सकता हैं कि ब्रह्म, जीव, प्रकृति, माया को लेकर और सामाजिक क्षेत्र में जाति-पांति, छुआछूत, ऊँच-नीच पर जैसा यथार्थ चित्रण उन्होंने अपने अनेकों दोहों और पदों में किया हैं वैसा अब तक किसी कवि द्वारा नहीं किया जा सका है। वास्तव में कबीर के दोहे से मिलने वाला ज्ञान और संदेश समाज में सकारात्मक सोच विकसित करने वाली है।
कबीर ने सदियों पूर्व अपने मौखिक दोहों के द्वारा जो शिक्षा, उपदेश और सन्देश दीए वे व्यर्थ नहीं गए। उनके पदचिन्हों पर चलकर अनेक साधारण लोग महान बने और यक़ीनन आप को भी इन दोहों से लाभ प्राप्त हुआ होगा । तो देर किस बार की Kabir Das Ke Dohe हिंदी में को शेयर करे और हाँ हमारे Facebook Page जरुर like करे तथा free email subscription जरुर ले ताकि मैं अपने future posts सीधे आपके inbox में भेज सकूं ।
Thank you so much. aapane bahut hi acche dohe diye hai
Thanks Babita ji
आपका ये आर्टिकल पढ़ कर हमको बहुत ही ख़ुशी हुए आपका बहुत बहुत धन्यावाद
very nice dohe with meaning
Nice post…
अद्भुत दोहा संग्रह
apne yahan par bahut hi achhe dohe likhe hai thank you
yahan par bahut hi achha laga
Kabir’s quotes are the best of all.If a person leads his life according to kabirs quotes then his life becomes heaven. He has to face no trobles in his life and always lead a happy and satisfied life. He will have no extraordinary wishes and be satisfied with what he has and he becomes a perfect man. Thank You.
bahut achhe dohe aapne arth sahit likhe hai.